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गुमशुदा श्वान की तलाश (강아지를 찾습니다)

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गुमशुदा श्वान की तलाश (강아지를 찾습니다) दक्षिण कोरिया के चौराहे पर चस्पा फ़ोटो। अनुवाद गुमशुदा श्वान की तलाश  मिलने पर लीफलेट को स्वयं हटा लेंगे, कृपया इसे न फाड़ें ! *दिखने पर ज़बरन पकड़ने की कोशिश न करें,  फ़ोटो खींचकर हमें ख़बर करें! वज़न ०८ किलोग्राम /  मादा श्वान  साफ़ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें और ढँके हुए कान; बहुत नन्हे-नन्हे पैर वस्त्र: X (नहीं),  पगहा: X (नहीं)/ आदमियों के प्रति अत्यधिक सजगता  लापता होने की तिथि: १०-जुलाई को लापता; पिछली बार ०४ सितम्बर को जाकजोंगडोंग होम प्लस पे आख़िरी बार दिखी थी।  इनाम 💰: लगभग रु. ३१ हज़ार  संपर्क ०१०.XXXX.XXXX  

ठोकरों से ख़ुदा बनते हैं (कविता)

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ठोकरों को सहकर ठोकरों से सँवरकर मन में ठानकर  वो गर्भगृह को जाते हैं। बिना हिले, बिना मिले, बिना बोले, चलाते हैं कई गोले। तो जब भी कभी  ठोकर खाओ, जब कभी टूटने-सी चोट खाओ, तो देखो उनको, और  भरोसा दो ख़ुद को कि एक दिन तुम भी साकार होगे, कि एक दिन तुम भी आकार लोगे। यह जादुई मंत्र जापते, कर्म-हवन कुण्ड की लौ तापते, अगर आकार ले लिये, अगर साकार हो लिये, तो कभी मौन रहने की न सोचना तो कभी बुत बनने की न सोचना, वहम भी न पालना कि दुनिया तुम चला रहे हो, वहम न पालना कि सूरज बन धरा घुमा रहे हो। गृह हो, न हो, गर्भगृह में न पहुँच जाना, लोगों से इतनी दूर न पहुँच जाना  जहाँ लोग छू न पाएँ, जहाँ लोग मिल न पाएँ। अगर ऊँचे उठ गए, पोल वॉल्ट के लट्ठे-सा उठना  ऊँचाई में ज़रूरत पे लचक लगाना, खिलाड़ी की ऊँची बाधा को हराना। पत्थर बनना, बुरा न मानना। पर बुत न बनना, ये सुध रखना।  इस आकार का बनना, और इस आचार का बनना कि एक ओर ज़मीन पे टिक सको, और दूसरी ओर इतना तो समतल रहना, ताकि किसी थके-हारे को अपने ऊपर टिका सको! मंदिरों की दीवारों में, घर के पहरेदार घेरों में, सड़क के राहगीरों में, मन की मूरतों में, चाहे जैसी भी सूर

लघु कथा- "क्या आप मुझे अपने पास रखेंगे?"

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राजीव अपने मोबाइल पर आए कॉल के नम्बर को देख के घबरा गया। उसे एक बार भी विश्वास नही हुआ, उसने फिर से ध्यान से देखा। ये नम्बर उसके रूम पार्टनर रहे मोहित का था, जिसकी दो महीने पहले कोरोना के कारण मृत्यु हो गई थी। राजीव को अपने उस जिगरी की मौत का पता हॉस्टल वाले व्हाट्सएप ग्रुप से चला कि दो दिन के अंतर पर मोहित और उसकी पत्नी की कोविड के कारण मृत्यु हो गई, जो कभी इतना पक्का दोस्त था कि हॉस्टल के साथी मियां बीबी कह के मज़े लिया करते थे। बचपन से ही माँ की ममता से वंचित मोहित अपने पापा के गुजरने के बाद ट्यूशन पढ़ा के खुद भी तैयारी कर रहा था। उसे पढ़ाना बहुत पसंद था और इसीलिए उसने बीएड भी कर रखा था।हॉस्टल के अन्तःवासियों के साथ साथ यार दोस्त भी उसे मास्टर ही कहते थे। राजीव खुद भी निम्न वर्ग के परिवार से था, उसके पिता की धार्मिक पुस्तकों की छोटी से दुकान थी। जल्दी ही विशिष्ट बी टी सी में मोहित की नौकरी प्राथमिक विद्यालय में लग गई। नौकरी लगने वाली उस रात दोनों पार्टनर सोये नही। मोहित और राजीव दोनों बहुत खुश थे पर दोनों रोये भी; मोहित इसलिए कि मां और बाप दोनों दुनिया में नही थे जो उसकी इस खुशी

नब्ज़: गूँज दबते स्वरों की- संघर्ष के स्वर

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  सादर   प्रणाम , मैं   आपका   नवीन। “… को   शब्दों   में   अभिव्यक्त   नहीं   किया   जा   सकता। ” अक़्सर   हम   सुनते   हैं   कि   किसी   व्यक्ति   की   महानता ,  या   किसी   भावुक   पल   को ,  या   फिर   किसी   के   प्रति   कृतज्ञता   को  शब्दों   से   बयाँ   नहीं  किया   जा   सकता।   ऐसे   पल   आते   हैं ,  जहाँ   भावों   की   बाढ़   में   शब्दों   की   कश्ती   डूब   जाती   है।   यहाँ   महानता   को   जताने   के   लिए   शब्दों   को  बौना   बनाया   जाता   है !  यह   तुलनात्मक   अभिव्यक्ति   आलसीपन   या   समय   या   स्याही   की   कंजूसी   की   वजह   से   भी   हो   सकती   है।   ढूँढिए ,  कुछ  नहीं   तो   ' एक'   शब्द   ऐसा   मिलेगा ,  जो   शब्दों   को   बौना   बनने   से   बचा   सकता   है।   हम   भारत   की     महान   आत्माओं   का   ही   उदाहरण   लेते   हैं।  शिवाजी - आज़ादी ,  महात्मा   गांधी - अहिंसा ,  सुभाष   चंद्र   बोस - संगठन ,  भगत   सिंह - इंक़लाब ,  पण्डित   नेहरू - दूरदृष्टि ,  इंदिरा   गांधी - शक्ति ,  अब्दुल   कलाम - सपना ,  अटल   बिहारी   बाजपेयी - सम्भावना … ।   ये

प्रख्यात लेखक-विचारक डॉ. हरेंद्र नारायण सिंह जी के काशी की क़लम थामने पे सादर अभिनंदन और आभार।

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 सादर प्रणाम,  मैं हूँ आपका नवीन और मेरे पास है आप सभी सुधिजनों के लिए एक बेहद खूबसूरत ....  ...  ख़ुशख़बरी!!! आपकी काशी की क़लम को और धार देने आ रहे हैं सुप्रसिद्ध लेखक, विचारक डॉ. हरेंद्र जी। मैं हमेशा क़लम के पीछे के सहयोगियों और मार्गदर्शकों की बात करता हूँ, उनमें से एक शीर्ष नाम है इनका। ये परदे के पीछे रहकर रंगमच को चमकाने की कला में माहिर हैं। पेश है संक्षिप्त परिचय: जन्म : गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश। आरम्भिक शिक्षा: मिर्ज़ापुर और वाराणसी से।  इलाहाबाद विश्विद्यालय से बी. ए., एम. ए., गाँधी विचार और शांति अध्ययन में पी.जी. डिप्लोमा और डी. फिल. उत्तर प्रदेश संस्कृति विभाग की पुस्तकों एवं पत्रिकाओं में लेखन और संपादन।  उत्तर प्रदेश राज्य अभिलेखागार ( ARCHIVES) में कार्यरत।  आपकी बहुचर्चित क़िताब 'भारतीय कला फ़िल्म आंदोलन का इतिहास' फ़िल्म जगत में ख़ास स्थान रखती है। आपके आने से बस चार चाँद ही नहीं, बल्कि ब्रम्हाण्ड के सारे चाँद काशी की क़लम को लग गए हैं। ज़ल्द आप इनकी रचनाओं से से रूबरू होंगे। भरोसा रखिए, इनकी लेखनी इतनी सारगर्भित और रोमांचक है कि आप इनकी अगली रचनाओं का बेसब्री से इंतज़ार

हिंदी (के पण्डाल) दिवस की बधाइयाँ, हिंदी की हसरत है मंदिरों की

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सादर प्रणाम,  मैं आपका नवीन। हिंदी दिवस की ढेरों शुभकामनाएँ!   तस्वीर नक़ली है, तो ख़ुद को कैसे मना लूँ, तदबीर खोखली है, तो मशाल क्यों न उठा लूँ? तक़दीर हिंदी की न पण्डालों में सजा दो, हसरते हिंदी है-इन्हें मंदिरों में पनाह दो। -काशी की क़लम हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ; छायांकन गीता सिंह      बताने की ज़रूरत नहीं, हिंदी की ज़मीनी स्थिति कैसी है। उसके पीछे हमारा अंधविश्वास है कि  हिंदी  हमारे भोजन में घी तो बन सकती है, मगर दाल-भात नहीं कमा सकती है। इस अन्धविश्वास की जड़ें काफ़ी गहरी हैं, और साथ में इन जड़ों का फैलाव भी व्यापक है।  भाग १- जड़ें व उनका फैलाव: हमारी असल संस्कृति आइने में सदियों से क़ैद है: प्रमुख जड़ है-अपनी संस्कृति और भाषा में लोगों का आत्मविश्वास न होना। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस आत्विश्वास का क्षय इस संस्कृति के लिए आत्मघाती है। इसी वजह से भारत गुलाम रहा। उस लम्बी ग़ुलामी ने हमारे और हमारी मूल संस्कृति के बीच एक शीशे की  दीवार खड़ी कर दी। ये शीशा ठीक वैसा ही है, जैसा कि मोटर गाड़ियों में होता है-अंदर बैठा हुआ व्यक्ति हमें देख सकता है, बाहर का आदमी इस आइने में केवल अपना चेहरा देख पाता है। इ

राजर्षि के जन्म दिवस की ढेरों बधाइयाँ

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 आत्मा ही परमात्मा है, और कर्म इस यात्रा का मार्ग।  आज राजर्षि उदय प्रताप सिंह जू देव जी के जन्म दिवस पर उनको नमन। आज जहाँ पर दसों हाथों द्वारा एक केले का दान अख़बारों तक शोर मचा रहा है, वही आपने इतना विशाल विद्यालय खड़ा करते वक़्त उसमें दूर-दूर तक अपने नाम की आहट भी न होने दी। आपका यह अकथित संदेश आज भी छात्रों को प्रेरित करता है जनसेवा के असल चरित्र को।  बस काम के हवाले करो ख़ुद को बाक़ी फ़िज़ा देखेगी… -काशी की क़लम