हिंदी (के पण्डाल) दिवस की बधाइयाँ, हिंदी की हसरत है मंदिरों की

सादर प्रणाम, 

मैं आपका नवीन। हिंदी दिवस की ढेरों शुभकामनाएँ! 

तस्वीर नक़ली है, तो ख़ुद को कैसे मना लूँ,

तदबीर खोखली है, तो मशाल क्यों न उठा लूँ?

तक़दीर हिंदी की न पण्डालों में सजा दो,

हसरते हिंदी है-इन्हें मंदिरों में पनाह दो।

-काशी की क़लम


हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ; छायांकन गीता सिंह  

 

बताने की ज़रूरत नहीं, हिंदी की ज़मीनी स्थिति कैसी है। उसके पीछे हमारा अंधविश्वास है कि हिंदी हमारे भोजन में घी तो बन सकती है, मगर दाल-भात नहीं कमा सकती है। इस अन्धविश्वास की जड़ें काफ़ी गहरी हैं, और साथ में इन जड़ों का फैलाव भी व्यापक है। 

भाग १- जड़ें व उनका फैलाव:

हमारी असल संस्कृति आइने में सदियों से क़ैद है:

प्रमुख जड़ है-अपनी संस्कृति और भाषा में लोगों का आत्मविश्वास न होना। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस आत्विश्वास का क्षय इस संस्कृति के लिए आत्मघाती है। इसी वजह से भारत गुलाम रहा। उस लम्बी ग़ुलामी ने हमारे और हमारी मूल संस्कृति के बीच एक शीशे की दीवार खड़ी कर दी। ये शीशा ठीक वैसा ही है, जैसा कि मोटर गाड़ियों में होता है-अंदर बैठा हुआ व्यक्ति हमें देख सकता है, बाहर का आदमी इस आइने में केवल अपना चेहरा देख पाता है। इसी प्रकार के धूपी चश्में भी नज़रों को आजकल छिपाते हैं। इस शीशे के एक ओर माँ सरीख़ मूल संस्कृति है, जो शीशे के दूसरी ओर अपनी पीढ़ियों को ख़ुद से दूर जाते देख रही है। दूसरी ओर हम हैं, जो शीशे में अपना ही चेहरा देखकर ख़ुश हो रहे हैं। सैकडों बरसों से हमनें अपना असली चेहरा, यानि शीशे के उस पार की सूरत, देखी नहीं! अतः इस नक़ल के मुखौटे को ही अपनी असली संस्कृति मान बैठे हैं।

जब पण्डालों को सजाना आसान है, तो मंदिरों की ज़हमत कौन उठाए:

इतिहासकारों की मनमान मेहरबानियों की देन है कि हम घुसपैठ करने वालों को महान, और उनको लोहे के चने चबवाने वाले योद्धाओं को कम आँकते हैं। और यहीं शुरुआत होती है अपने आपको कमतर आँकने की; छोटा और कमज़ोर समझने की। घुसपैठिए स्थान छोड़ने के बावज़ूद भी पिण्ड न छोड़े। वे हमें हमारी संस्कृति से दूर करने में स्थायी सफलता साथ ले गए। और हमें मिली अस्थायी उत्सवों की सौग़ात-हिंदी दिवस।

 हिंदी दिवस पे ये जो देश-विदेश में पखवाड़े भर पण्डाल सजे हैं, उन्हें देखकर कोई भी धोखा खा सकता है कि हिंदी की देवी कितनी जागता हैं! देवी की शक्ति तो अपरंपार है। पर बात उपासकों की है। अस्थाई पण्डालों को बनवाकर उसमें हिंदी की भव्य प्रतिमा का स्थापन आसान है। ये पूरा वातावरण मनलुभावन है, बहकावन भी। तस्वीरें नक़ल चीज़ों की और अच्छी आती हैं। मैंने अच्छी तस्वीर की ख़ातिर लोगों को जन्मदिवस पर नक़ली केक खाते देखा है; और फिर ये ब्यूटी प्लस वाले ऐप  तो लोगों और उनके बीच की खाई बनते जा रहे हैं। पता है कि कुछ दिनों बाद इन सजाई गई मूर्तियों और पण्डालों का विसर्जन कर दिया जाता है। साथ ही हम यादों में भी उस प्रतिमा को बिसरा देते हैं। ये मेले साल में एक बार ही लगते हैं। हाँ, स्थाई मंदिर बनवाने की तुलना में पण्डाल बनवाने में लागत भी कम है। तो हिंदी का मंदिर बनवाने का बेड़ा कौन उठाए। कौन इतना बड़ा चंदा जोड़े? कौन सदियों से क़ैद अपने असली चेहरा की यादों को कुरेदे?

मज़बूत देश ही अपनी संस्कृति और भाषा को समृद्ध कर सकता है:

ऐसा नहीं है कि अंग्रेज़ी का लाभ नहीं है। लाभ है-विदेशी निवेश लाने में। मगर यह निवेश क्या हमें अपने पैरों पे खड़ा होने देगा? क्या भारत भी कोरिया, चीन आदि की तरह अपना गूगल बनाने की प्रेरणा ले सकेगा? हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में अपने कमज़ोर आत्मविश्वास के कारण हम कभी भी इसकी ज़रूरत महसूस नहीं करेंगे।

भाषा की समृद्धि के लिए उसके संवाहकों का अपनी भाषा के लिए सम्मान, उसमें विश्वास आवश्यक है। नहीं तो हिंदी दिवस काग़ज़ी बन के ही रह जाएगा। एक दिन की हिंदी, फिर अंधेरी रात! पिछले वर्ष मेरे मित्र डॉ. हरेंद्र जी ने  हिंदी साहित्य की यह मार्मिक तस्वीर साझा की। तस्वीर दिल्ली की है, आज जितने लोग हिंदी दिवस की बधाइयाँ देंगे, सारे शक्ति केंद्र से कुछ क़दम पे हिंदी की ये दुर्दशा! कारण कई सारे हो सकते हैं, मगर कोई कारण अपनी ज़िम्मेदारी लेने को तैयारी नहीं। इस चित्र को देख ख़याल सीधे रद्दी का आया, आख़िर किलो के भाव तो वही बिकती है। नई किताबें, वो भी साहित्य! साहित्य जो समाज की चेतना है!! जो समाज का दर्पण है!!! देखिए, ये किताबें हम पर ही हँस रही हैं। और कह रही हैं, आज मेरी ये दशा है, तो कहीं-न-कहीं तुम भी अपने आप पे सवालिया निशाँ लगाते जा रहे हो। 

हिंदी साहित्य रू २०० प्रति किलो, चित्र सौजन्य -डॉ. हरेंद्र 

भाग २-हिंदी के रास्ते गूगल में जगह दिलवाने के लिए क़लम  विनत है:

आपने टी॰वी॰ पर, अख़बारों में, सड़कों के किनारे लगे बड़े-बड़े इश्तेहारों को देखा होगा। इन सब विज्ञापनों से उनकी आमदनी होती है, जिनकी जगह पे विज्ञापन दिये जाते हैं।अब जिस जगह की पूछ जितनी ज़्यादा, उसकी विज्ञापन क़ीमत उतनी ही अधिक। ये पूछ विषयवस्तु की गुणवत्ता के आधार पर दर्शक निर्धारित करते हैं। उदाहरण-क्रिकेट की रहीसी। भगवान न किए हों, अगर किसी क्रिकेट विश्वकप में भारत शुरुआती दौर में ही से बाहर निकल जाए, तो भारी छूट देने पे भी कोई भारतीय ब्राण्ड उस विश्वकप में विज्ञापन नहीं देना चाहती है। इसलिए विज्ञापन के लिए सबसे महत्वपूर्ण मानक है-जगह की विषयवस्तु, जो लोगों को बाँधे रख सके। 

लोग जहाँ हैं, विज्ञापन वहाँ है। आजकल लोग डाल-डाल डिजिटल हैं, तो विज्ञापन भी पात-पात डिजिटल हो गए हैं। YouTubers नामक शब्द लगभग पाँच साल पहले अनसुना-सा था। लेकिन आज कई देशों में प्राइमरी के बच्चे YouTuber बनने का सपना देख रहे हैं। इसलिए डिजिटल ही भविष्य है। हर जगह ये विज्ञापन नहीं दिए जाते, उनके मानक होते हैं। तकनीकी शब्द हैं, आज की विषयवस्तु में नहीं हैं, तो इसमें न उलझते हुए मैं बात सीधे हिंदी की करता हूँ।

हिंदी दिवस पर हिंदी से जुड़ी एक ख़ुशख़बरी है। आपसे साझा करते हुए बेहद प्रसन्नता और विनम्रता हो रही है, आपकी काशी की क़लम को गूगल ने अपने विज्ञापन प्रोग्राम (Adsense) में स्वीकार कर लिया है। इसका पूरा श्रेय आप सभी श्रद्धेय जनों को है, जिनके क़लम के प्रति स्नेह और आशीर्वाद की आहट गूगल को हो गई है। इस अगाध आशीष एवं स्नेह से क़लम अभिभूत है। भूत में जितना मिला, इसकी हसरत भविष्य में और अधिक रहेगी। हसरते दुआ… ज़िंदाबाद!!!

ग़ौर करने की बात यह है कि काशी की क़लम में बातें सिर्फ़ हिंदी में हुईं। बातें हिंदी और हिंदुस्तान की हुईं। हिंदी की कहानियाँ, कविताएँ, लेख मात्र ही इस नौसिखिए की सीमा रहीं। इस ब्लॉग में थोड़ी-बहुत बातें एक हिंदुस्तानी की नज़र से कोरिया की भी हुईं। कुछ कोरियन साहित्य का हिंदी में अनुवाद भी हुआ। तो इससे निष्कर्ष ये है कि हिंदी की विषयवस्तु को लोगों के दिल में यदि जगह मिले, तो गूगल भी उसे सिर आँखों पे रखता है। ख़ैर, इस ब्लॉग को शुरू करने का मक़सद केवल-और-केवल आत्मज्ञान व मनोरंजन था, जहाँ पर मैं अपने आपको ढूँढ सकूँ। उद्देश्य की यही शुद्धता आगे भी रहेगी।

गूगल ने अपने दिल में काशी की क़लम को दी जगह, जिसका रास्ता आपके स्नेह से होकर गुज़रा ! मनभर कुंतलों आभार 🙏
हिंदी को अंधियारी डगर में मैं सूरज का झूठा वादा तो नहीं कर सकता, मगर दुष्यंत जी की ये पंक्तियाँ ज़रूर साझा करना चाहूँगा,

कौन कहता है कि आसमाँ में सुराख़ हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।

सादर, 

आपकी 

काशी की क़लम  


टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूब लिखा नवीन, हिंदी को पंडालों में नहीं मंदिर में पनाह दो। सटीक विष्लेषण और हिंदी की स्थिति की विवेचना।

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  2. दक्षिण कोरिया में रहते हुए जिस तरह से आपने हिंदी की विरासत को संभाल कर रखा है उसके लिए आप बधाई के पात्र हैंं। ऐसा देश जहां के लिए हिंदी अल्पसंख्यक है आप जैसे बिरले भारतीय ही अपनी विरासत को संभालने में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। आप अनवरत अपने लेखन के माध्यम से हिंदी को एक नई ऊंचाई तक ले जाएं ऐसी मेरी कामना है। धन्यवाद

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