नब्ज़: गूँज दबते स्वरों की- संघर्ष के स्वर
सादर प्रणाम,
मैं आपका नवीन।
“…को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।”
अक़्सर हम सुनते हैं कि किसी व्यक्ति की महानता, या किसी भावुक पल को, या फिर किसी के प्रति कृतज्ञता को शब्दों से बयाँ नहीं किया जा सकता। ऐसे पल आते हैं, जहाँ भावों की बाढ़ में शब्दों की कश्ती डूब जाती है। यहाँ महानता को जताने के लिए शब्दों को बौना बनाया जाता है! यह तुलनात्मक अभिव्यक्ति आलसीपन या समय या स्याही की कंजूसी की वजह से भी हो सकती है। ढूँढिए, कुछ नहीं तो 'एक' शब्द ऐसा मिलेगा, जो शब्दों को बौना बनने से बचा सकता है। हम भारत की महान आत्माओं का ही उदाहरण लेते हैं। शिवाजी-आज़ादी, महात्मा गांधी-अहिंसा, सुभाष चंद्र बोस-संगठन, भगत सिंह-इंक़लाब, पण्डित नेहरू-दूरदृष्टि, इंदिरा गांधी-शक्ति, अब्दुल कलाम-सपना, अटल बिहारी बाजपेयी-सम्भावना…। ये 'एक' शब्द सार्वभौमिक नहीं, व्यक्ति विशेष पे निर्भर है। जैसे भगवान राम से दुनिया ने क्या नहीं लिया, परंतु रावण ने बस दुश्मनी ली!
ऐसा ही एक शब्द है-संघर्ष। बीज ज़मीन के ख़िलाफ़ संघर्ष न करता, तो दुनिया न देख पाता। बारिश, धूप, हवा यानी प्रकृति से फलता-फूलता है। जो प्रकृति उसके होने के लिए ज़रूरी है, वही प्रकृति उससे संघर्ष की भी अपेक्षा रखती है। ये भ्रम है कि सबको प्रकृति पालती है। अगर ऐसा होता, तो होमो सेप्यंस (Homo Sapiens) के साथ-साथ होमो नियनडर्थल (Homo Neanderthal), होमो इरेक्ट्स (Homo Erectus) भी आज होते। संघर्ष से ही देश ग़ुलाम हुए, इसी के हथियार से आज़ाद भी। चढ़ने में जितना अधिक संघर्ष है, उतरने में भी उतना ही है। एक बार मैं जोश में पहाड़ चढ़ गया, फ़तह की मिथ्या अनुभूति हुई। थोड़ी देर में उतरना भी था, पैर पथरा गए और दिमाग़ से सिग्नल टूटने-सा हो गया। अगर सम्भालता नहीं, तो लुढ़कर नीचे आता। संघर्ष जो कर सका, वही सतत है। इसी संघर्ष का प्रकृति के जिज्ञासु वैज्ञानिकों ने अलग-अलग तरीक़े से अवलोकन किया है। डार्विन- वही चलने लायक़ है, जो समय के साथ ढलने लायक़ है। न्यूटन-परस्पर आकर्षण का नियम। अगर हमको खड़ा भी होना है, तो हमारी मांस पेशियों को धरती के गुरुत्वाकर्षण के ख़िलाफ़ संघर्ष करना पड़ता है। संघर्ष ही है कि माँ दर्द से लड़के बच्चे को जनती है। यह जनन ही सृष्टि का संचालक है। इसलिए अगर सृष्टि का कारक बिग बैंग है, तो उसका धारक संघर्ष है। संघर्ष ही स्थिरता देता है।
आज के समय में इस शब्द की महत्ता बहुत बढ़ गई है। अगर मानव ने मशीनों को बनाया, अब उसका संघर्ष निरंतर उसी से होता नज़र आ रहा है। मानवों ने सभ्यता की खोज की। अगर आज वो अपनी लिप्साओं के ख़िलाफ़ संघर्ष न करेगा, तो वापस असभ्य बन जाएगा। सभ्यता की स्थिरता के लिए अपने मूल्यों को पुनर्जीवन और उनका समयानुसार नव निर्माण आवश्यक है।
बात शुरू हुई थी महान व्यक्तित्वों को परिभाषित करने वाले एक सटीक शब्द से। ज़माना जब हम नहीं जानते हैं, तब से हम अपने घर को जानते हैं। तो इस शब्द को मेरे लिए परिभाषित करते हैं मेरे चाचा श्री राजाराम सिंह जी। यही शब्द उनकी धरोहर है, जिसकी विरासत की सौग़ात बड़े सौभाग्य से मिली है। उन्होंने गूँज पढ़ी, और पुस्तक को इस संघर्ष का ही परिणाम माना। एक अलग क़िस्म की ख़ुशी होती है, जब मौन हसरत काया ले ले। पिता अपने गुणों की विरासत चाहता है, लेकिन उसको थोपना भी नहीं चाहता। उनका आशीर्वाद इस क़लम को मिला है। यह जीवन-संघर्ष के पन्नों पर क़लम उनके आशीष से सुगंध बिखेरती रहेगी।
वे सोशल मीडिया पे नहीं है, अतः आत्म्श्लाघा से बचते हुए उनकी टिप्पणी को शब्दशः आपके समक्ष धरता हूँ:
“पुस्तक में शब्द अटल जी वाले हैं।”
मैं अटल जी का क़ायल हूँ। उनकी कविताओं एवं वाणी के ओज की झलक गूँज में होना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।
आशा है, आप भी गूँज की नब्ज़ मुझे शीघ्र भेजेंगे 🙏🏽।
सादर…
काशी की क़लम
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गूँज दबते स्वरों को आशीर्वाद देते हुए आदरणीय चाचा श्री राजाराम सिंह जी |
संघर्ष की व्याख्या अद्भुत तरीके से करी है। कलम और शब्दों का संघर्ष अभिव्यक्ति में झलक रहा है। बहुत खूब
जवाब देंहटाएंआदरणीय संजीव सर, 🙏🏽
जवाब देंहटाएंआदरणीय संजीव सर, 🙏🏽
जवाब देंहटाएंआदरणीय संजीव सर, 🙏🏽
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