गाँव बसर: भाग १ -खुले दिलवाली वो कौन ? #GaonBasar
नमस्ते,
बूजिए पहेली:
बाँस की रीढ़ की हड्डी और फल्ठे की पसलियों के सहारे, सूखी पतलो से सजी छज्जा ।
लकड़ी से बनी, तनकर खड़ी, छज्जा को अपने ऊपर ठेकाने वाली, निर्भरता और सहारे की प्रतीक थुम्बी।
चाहे तपती गर्मी हो, कड़ाके की सर्दी हो या फिर मूसलाधार बारिश, सबमें ग़रीब को न्यूनतम ज़रूरी छाँव करने वाली जननी।
पशुओं की हवामहल।
सिवान का मकान।
ताश खेले जाने का अड्डा।
जो बड़ी ही आत्मीयता से पथिक को सुस्ताने का अड्डा हुआ करती थी ।
जिसको उठाने के लिए पूरा गाँव एक जुट हो उठता था। अब न तो वो है, न ही एकजुट गाँव: बताइए कौन?
कुछ यादें:
मड़ई एक काल को समेटे हुए है, जीवन का खुलापन; जिसमे हर कोई देख सकता है, झांक सकता है; नैतिकता का बोध है नंगापन नही। सब कुछ खुला होने के बावजूद कुछ खोने या चोरी होने का डर नही। प्रकृति से बनी और प्रकृति को समर्पित आदर्श को समेटे हुए है। -डॉ. हरेंद्र नारायण सिंह
"मुझे याद है बचपन में मड़ई उठाना एक बेहतरीन एक्सरसाइज हुवा करता था, गांव के कुछ बलिष्ठ युवाओं को गुड़ दही के शरबत के साथ मड़ई उठाने का न्योता मिलता था। तब मैं छोटा था और मैं भी पिताजी के साथ हो लेता था, फिर ’बोला बोला बजरंग बली की’ इस नारे के साथ मड़ई उठा कर थुंबी पे रख दी जाती थी। -डॉ. अवनीश सिंह
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