ठोकरों से ख़ुदा बनते हैं (कविता)
ठोकरों को सहकर
ठोकरों से सँवरकर
मन में ठानकर
वो गर्भगृह को जाते हैं।
बिना हिले,
बिना मिले,
बिना बोले,
चलाते हैं कई गोले।
तो जब भी कभी
ठोकर खाओ,
जब कभी टूटने-सी
चोट खाओ,
तो देखो उनको,
और भरोसा दो ख़ुद को
कि एक दिन तुम भी साकार होगे,
कि एक दिन तुम भी आकार लोगे।
यह जादुई मंत्र जापते,
कर्म-हवन कुण्ड की लौ तापते,
अगर आकार ले लिये,
अगर साकार हो लिये,
तो कभी मौन रहने की न सोचना
तो कभी बुत बनने की न सोचना,
वहम भी न पालना कि दुनिया तुम चला रहे हो,
वहम न पालना कि सूरज बन धरा घुमा रहे हो।
गृह हो, न हो,
गर्भगृह में न पहुँच जाना,
लोगों से इतनी दूर न पहुँच जाना
जहाँ लोग छू न पाएँ,
जहाँ लोग मिल न पाएँ।
अगर ऊँचे उठ गए,
पोल वॉल्ट के लट्ठे-सा उठना
ऊँचाई में ज़रूरत पे लचक लगाना,
खिलाड़ी की ऊँची बाधा को हराना।
पत्थर बनना,
बुरा न मानना।
पर बुत न बनना,
ये सुध रखना।
इस आकार का बनना,
और इस आचार का बनना
कि एक ओर ज़मीन पे टिक सको,
और दूसरी ओर इतना तो समतल रहना,
ताकि किसी थके-हारे को अपने ऊपर टिका सको!
मंदिरों की दीवारों में,
घर के पहरेदार घेरों में,
सड़क के राहगीरों में,
मन की मूरतों में,
चाहे जैसी भी सूरतों में,
ऐसी जगह न पाँव धरना,
अभिशापित घाव न वरना,
जो बूझ न पाए चलने वाला,
तुमसे टकराकर टूट न जाए
किसी कर्म पुजारी की माला।
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ठोकरों से ख़ुदा बनते हैं। छायांकन: कनिष्का रघुवंशी -नवीन काशी की क़लम से |
Bahut sundar
जवाब देंहटाएंBeautiful NAVEEN!!
जवाब देंहटाएंWah.Ati sundar
हटाएंVery nice 👌
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