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The New Arrival

बढ़ना है तो पढ़ना है (कविता)

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 गली-मोहल्ले और फुटपाथ सबका यही कहना है, धरती से लेकर अंबर तक शिक्षा ही अक्षय गहना है। चाँद-तारे और आफ़ताब कहते हैं यह सच बात, शिक्षा के रक्खे जो ख़्वाब, सबसे ऊँची उसकी बिसात! घर-मकान, जेवर-गहने  सब  समय-शीला पे घिसते हैं, अजर-अमर है उसकी थाती, शिक्षा से जिसके रिश्ते हैं। अचल सम्पत्तियाँ चल जाती हैं, वक़्त पे सब फिसल जाती हैं, शिक्षा की सड़कें सतत हैं, कल, आज और कल जाती हैं। रात कितनी ही क़हर होती है, हर रात की सहर होती है, शिक्षा का दीया दिखाओ, काली रात भी दोपहर होती है। झुग्गी- झोपड़ियाँ आज जो दाने-पानी की मोहताज हैं, शिक्षा की सीढ़ी दो, इनके नसीब में तख़्त-औ-ताज़ हैं। सुगंधित होता वह राज शिक्षा-सुमन जहाँ खिल जाते हैं, वक़्त आने पे फूल बनें अंगारे, सिंहासन भी हिल जाते हैं। हालातों से लड़ना है, कुछ भी हो सपने गढ़ना, मूल मंत्र एक ही है कि बढ़ना है, तो पढ़ना है। -काशी की क़लम

संघर्ष के सफ़र में ही सफलता का शिखर है- प्रोफ़ेसर डॉक्टर हरेंद्र नारायण सिंह।

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मित्र हरेन्द्र को डॉक्टर हरेन्द्र बनने पर हम लोगों को बहुत गर्व हुआ था। उससे भी अधिक गर्व अब हो रहा है, जब आप डॉक्टर हरेंद्र से प्रोफ़ेसर डॉक्टर हरेंद्र बन रहे हैं। पहली यात्रा भी आसान नहीं रही होगी। लेकिन उसका सफ़र बहुत हद तक अपेक्षित ही रहा होगा। दूसरी यात्रा अदम्य और अप्रतिम है। अपने सपने को साकार करने के लिए अथक परिश्रम, अथाह आशा और अनवरत प्रयास करते रहने की यह गाथा प्रेरणा का सागर है। इन दोनों यात्राओं से पहले आपने एक और, शायद अभूतपूर्व, यात्रा की थी। इण्टरमीडिएट तक विज्ञान वर्ग की शिक्षा के बाद स्नातक के लिए कला वर्ग का चुनाव विरलय लोग ही कर पाते हैं। अंतरात्मा की आवाज़ का बाहरी शोर से ऊँचा होने पर ही ऐसे निर्णय लिये जा सकते हैं। आपकी यात्रा ने यह सिद्ध किया कि कला के रास्ते संघर्ष ज़रूर है, पर संतोष भी है। मन के किसी कोने में कला वर्ग का प्रेम दबाए बैठे छात्रों को आपकी यात्रा स्वर देगी। आज के दौर में जब हमारे इर्द-गिर्द नकारात्मक उदाहरण इतने हैं कि लोग इन्हीं को अपना परितंत्र मान ले रहे हैं। सफलता के लिए सही रास्ते के जगह आसान रास्ते का चुनाव हो रहा। सही रास्ते टूटते जा रहे हैं,

रॉयल ओक (अमेरिकी शहर) का चौराहा

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बैठ गया हूँ एक रॉयल ओक के चौरसते पे  मन हुआ कि चौराहे की नब्ज़ टटोला जाए। दूर एक पेड़ है उससे मधुर संगीत सुनाई पड़ रहा है शाम का समय है और गौरैया अपने घर आ गई हैं। उनकी संख्या इतनी अधिक है कि पत्तों और  गौरैयाओं में भेद करना कठिन हो रहा है। यह किसी और फल का पेड़ नहीं, गौरैया का लगता है। दिन में ये कहाँ जाती हैं किसे पता है! पर शाम का पता यही पेड़ है, इतना इन सबको पता है। दो लोग टहलते हुए जा रहे हैं, वेश भूषा में दोनों उत्तर-दक्षिण हैं। एक हाफ़ पैंट और टी शर्ट में  दूसरा टाई और फ़ुल पैंट-शर्ट में। दोनों बात करके हँस-मुस्कुरा रहे हैं। चुपके-से झमाझम बारिश शुरू हुई, शुरू होते ही बंद भी हो गई।  ‘सिरी’ ने बदरी बताया पर बरखा हो गई यह शिक़ायत कर रहीं हैं एक मोहतरमा। गरम तवे पे पानी के छींटे पड़ने के जैसे बारिश का पानी छन-से सूख गया। कटकटाई सूखी मिट्टी पे छन-से बूँदें पड़ने से,  मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू आ रही है।  मूर्ख़ हूँ मैं, यहाँ तो मिट्टी है ही नहीं।  ये तो कोलतार की सड़कें हैं। जो मुझे महका उसको मैंने मिलान कर लिया है, शायद यह ख़ुशबू धूल पे बूँदे पड़ने से आ रही हो। चतुराई का पता नहीं, पर

ज़िंदगी की क़िताब (कविता)

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मेरी ज़िंदगी की क़िताब मेरे सामने आ गई है। समय के थपेड़ों से इसके पन्ने ख़ुद-बख़ुद खुल रहे हैं। क़िताब के कुछ पन्नों पे लिखा हुआ है। शायद इसे ही इतिहास कहते हैं। इसमें ऐसा बहुत-कुछ है जिससे मैं इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ। इसमें बहुत ऐसे पन्ने हैं जिनका श्वेत रंग मेरे जीवन में रौशनी भरते हैं। इनका ज़िक्र मेरे हृदय को तरलता से भर देता है, जो मेरे चेहरे से छलक जाती है।  इसमें चंद ऐसे भी कुछ पन्ने हैं, जिनको पढ़ना कठिन है। ये इतने काले हैं कि कोई उजाला बचता ही नहीं, जिससे इनको पढ़ा जा सके। इनपे घनघोर अंधेरा है। बहुत कोशिश करके इनको पढ़ता हूँ। मन करता है एक बार में पलट डालूँ। इन सबको एक बार में ही पार कर जाऊँ। लेकिन उजियारे पन्नों की उम्मीद में इनको पढ़ता जाता हूँ।  ये पन्ने बहुत धीमे पढ़े जा पाते हैं। इनका समय गाढ़ा बीता।  जी करता है कि इन पन्नों को फाड़ के क़िताब से अलग कर दूँ। मिटा दूँ वो सब-कुछ जो स्याह है, जिसमें आह है, जिसमें कराह है। फिर सोचता हूँ कि इन चंद पन्नों ने ही तो मेरी परिभाषा लिखी है। इन्हीं पन्नों ने तो मुझे मौक़ा दिया बनने का या फिर बिखरने का।  कठिन दौर में भी अपनी कहानी को निर्

सपने

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अगर आपके सपने सच्चे हैं तो पलक से फ़लक पे उतर ही आएँगे। सपने की सच्चाई उसकी उदारता पर निर्भर करती है। स्वार्थी सपने मिथक होते हैं, माया में लिपटे होते हैं। वे मृग-मरीचिका की भाँति लुभाते हैं, पर कभी साकार नहीं होते। इनका आजीवन पीछा करने पर भी अंत में निराशा और असंतोष ही हाथ लगता है। तो क्यों नहीं अपने सपनों में औरों को सजाया जाए! क्यों नहीं किसी के नन्हें ख़्वाबों को पंख दिये जाएँ! क्यों न ऐसा हो कि दूसरे के सपने साकार करना ही अपना सपना बन जाए! अगर ऐसा होने लगे तो सिकुड़ती धरती शायद अपने आकार को बचा सके। यह उदारता चंद लोगों को नसीब होती है। काश उन नसीबों में मेरा भी एक होता!  -काशी की क़लम

कला समाज की आत्मा है, जीवन्त समाज के लिए आत्मा का होना आवश्यक है।

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 विज्ञान और कला। मैं उस जगह से आता हूँ, जहाँ कला के छात्र को मंद बुद्धि और न जाने कौन-कौन-से तमगों से विभूषित किया जाता था। पढ़ाई में कम रुचि रखने वाले लोग by default कला के विषय ले लेते थे। लेकिन जब मेधावी लोग कला की ओर रुख़ करते थे, उनकी बौद्धिक क्षमता पे भी सवालिया निशान लगते थे। ये निशान दुखद थे। क्योंकि इतिहास, भूगोल, भाषा, संगीत, चित्रकारी, इत्यादि दिमाग़ से अधिक हृदय से होता है। समय के साथ कला का यह चित्र सुधरा है, लेकिन हवा द्वारा पत्त्थर पे की जा रही नक़्क़ाशी की रफ़्तार से! कला वाले को हमेशा अपनी क़ाबिलियत समाज को साबित करनी पड़ती है। कतिपय अपवाद हो सकते हैं, पर कला की साधना अभी भी बहुतेरे समाजों में एक बौद्धिक कलंक है। यदि विज्ञान की प्रगति के सापेक्ष कला की प्रगति की बात करें, तो कला बहुत पीछे छूट गई है। जहाँ विज्ञान ने चाँद को छू लिया है, वहीं कला मिश्र की सभ्यता की तरह अपने अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। आख़िर कला से दुराव के क्या कारण हैं? सबसे पहले जीवन यापन के मूलभूत साधनों को जुटाने की बात आती है। भूखे के पास न तो स्वाद के लिए जिह्वा होती है और न ही अभिव्यक्

बच्चों की क़िताबें और The Giving Tree

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क़िताबें हमेशा ही मोहक होती हैं। उनमें बच्चों की क़िताबें की बात ही क्या! रंग-बिरंगी चित्रकारी शब्दों से कहीं अधिक बोलते हैं। शब्दों की पहचान नहीं रखने वाले बच्चे इन चित्रों को अपनी कहानी में डालते हैं। उनकी अपनी बुनी एक कहानी बन जाती है। ये क़िताबें गागर में सागर होती हैं। इनका मुख्य उद्देश्य नैतिक मूल्यों को आकर्षक ढंग से बच्चों को परोसना रहता है। बच्चों से अधिक लाभ इन पुस्तकों का बड़ों को मिलता है। वो भी अपनी नैतिकता को दुरुस्त कर सकते हैं। बच्चा जो सीख रहा है, अभिभावक को पहले से ही आता है। यदि भूल गया है, तो नैतिक मूल्यों पुनरावृत्ति का काम ये पुस्तकें बख़ूबी करती हैं। बुकस्टोर में “The Giving Tree” पर आज नज़र पड़ी। यह क़िताब अपने बच्चों को ज़रूर-से-ज़रूर पढ़िये-पढ़ाइएगा। Give and Take किसी रिश्ते से अछूता नहीं बचा है। ऐसे दौर में, यह पुस्तक ‘सर्वस्व निछावर कर देने’ की भावना पे बल देती है। दूसरी तरफ़, इसमें मानव के दुःखों की जड़ उसकी असीम, अतृप्त लालसा को दिखाया गया है। बच्चा अगर सुखी रहने का मंत्र माता-पिता, अभिभावक के गोद में सीख ले, इससे महत्त्वपूर्ण सीख भला और क्या हो सकती है! 

मशीनें संवेदनशीलता सीख रही हैं, पर मानव?

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 लाखों साल पहले धरती का जन्म हुआ। उसपे जीवन जन्मा। उन जीवों में से एक था मनुष्य। मनुष्य ने अपनी बुद्धिमत्ता से वातावरण से अनुकूलन स्थापित किया। कभी जानवरों की तरह रहने वाले मनुष्य ने समाज नामक संस्थान की खोज की। साथ रहकर उसने अपनी सुरक्षा बढ़ाई और एक साथ मिलकर बाधाओं को पटखनी दी। दुसरे जीव समाज की शक्ति को आत्मसात नहीं कर सके। समाज, संगठन, एकजुटता ने मानव की जीवित रहने की क्षमता को बढ़ाया। समाज का गठन संवेदना की नींव पर हुआ। संवेदना एक जीव के द्वारा अनुभव किये जा रहे भाव का दूसरे जीव पर होने वाला असर है। दुसरे पर यह असर जितना अधिक होता है, वह उतना ही अधिक संवेदनशील होता है।  इसी संवेदना की शक्ति की बदौलत मानव अन्य प्राणियों को पछाड़ते धरती पर अपना एकछत्र आधिपत्य स्थापित किया। डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धांत बाद में दिया। मनुष्य इसका प्रयोग पहले से ही करता आ रहा है। हज़ारों बरस पहले से ही मानव ने अपने आपको लगातार निखारा है। निखार के इस क्रम में मानव ने अपने आपको उस शिखर पर पहुँचा दिया, जहाँ वो अपने जीवित रहने के लिए पूर्णतया आत्मनिर्भर हो चुका है। 'पूर्णतया' कहने मे

आऊँगा मैं अयोध्या, भारत में यदि रामराज्य है( कविता)

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 जय श्री राम, अभी मर्यादा पुरुषोत्तम, रघुकुल शिरोमणि, दशरथ नंदन, सियावर श्री राम चन्द्र जी अयोध्या जी में आ गए हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हर्ष और उल्लास से झूम रहा है। ऐसे में मैंने भारत की सड़कों, गली-मोहल्लों को राम के आने का उत्सव मनाते देखा। उत्सव का यह बहुत बड़ा कारण भी है। मैं प्रयागराज से बनारस जा रहा था। हर किलोमीटर पर पाण्डाल, भण्डारे और DJ. उनपे नाचते-झूमते लोगों को देखकर मुझे बहुत साल पहले सरस्वती पूजा के एक जुलूस की घटना याद आ गई। उसमें भी ऐसे ही DJ बज रहा था। सड़क एकदम जाम करके झूमते-झामते कारवाँ आगे बढ़ रहा था। उनके पीछे भी गाड़ियाँ थीं, वीणावादिनी के बहरे भक्तों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था। मैं उनसे एक किनारे होने के लिए कहा। तब पता चला कि ये पुजारी तो नशे में धुत हैं। सरस्वती से इनका कोई वास्ता नहीं था। ये साल में एक बार चंदा इकट्ठा करते हैं। बलभर पीते हैं और नाचते-गाते हैं, फिर एक साल के लिए सरस्वती माँ का विसर्जन कर आते हैं। पता नहीं क्यों उस दिन राम के आने के उत्सव में झूमते लोगों में भी मुझे सरस्वती जी के वैसे ही नक़ली, पाखण्डी उपासक लगे। यह मेरे अवलोकन की भूल भी हो

क़लम की विटामिन

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जब लिखाई शुरू हुई थी, उस समय केवल भावनाएँ थीं। जैसे लिखने का ल भी न जानने वाले को कलम थमा देना ! भाषा ज्ञान न के बराबर था। जैसे, जो बात मन में आती, कागज़ पे उतरती जाती। व्याकरण, वर्तनी छटपटा कर कहीं कोसो दूर रह जातीं।  आप लेखनी के विटामिन रहे हैं। एक दिन भैया से बात हुई। उन्होंने व्याकरण और वर्तनी में सुधार करने का सुझाव दिया। व्याकरण मैंने पढ़ लिया। वर्तनी को लेकर भी सजग हो गया।  लेकिन अपने (लिखे) में कमी ढूढ़ पाना मुश्क़िल होता है। अपनी कहानी सदैव सही लगती है। इसका हल भैया में ही मिला। सुधार के लिए मैं हर बार भैया से गुहार करने लगा। शायद ही ऐसी कोई कहानी या लेख हो, जिसका परिमार्जन उन्होंने ने न किया हो। 'हुण्डी' कहानी की समीक्षा में भैया की लिखी कविता से भाव-विभोर हो गया। ख़ैर, ऐसा उन्होंने विटामिन भरने के लिए लिखा है, उनको मालूम है कि सुधार की गुंजाइश हमेशा रहती है और रहेगी। कविता का दूसरा पहलू यह भी लगा कि भैया मेरे लिखे से पक गए हों और जी छुड़ाना चाह रहे हों।  फिर मैंने अपनी पटरी से उतरी सोच को वापस पटरी पर ले आया। नादान क़लम इस विटामिन के लिए आभारी है।    -काशी की क़लम   साभार: श