प्रेमी पथ (कविता)



मंज़िल, दूर से लगती बड़ी मुश्क़िल है,

नज़दीक से पाया, ये तो नरम दिल है।

मंज़िल से पहले शंकाएँ मिल जाती हैं,

लेने धैर्य-परीक्षा मज़िलें बल खाती हैं।

सोचके बाधाओं की, पग न बढ़ा जाता है,

लगता है मज़िल-मार्ग टेढ़ा-मेढ़ा जाता है। 

मज़िल भावी भविष्य, कोरा सपना है,

पथ प्रकाशपुंज ही तो केवल अपना है। 

मंज़िल की चाह में हम राहों से बेवफ़ा हुए,

प्रेमी तो पथ हैं, न दफ़ा हुए न खफ़ा हुए।

मज़िलें छलावा, कोरे काग़ज़, बेमाइने हैं,

रास्ते तो रौशनी, कहानी औ’ आईने हैं।

-काशी की क़लम

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

गुलाल भवन की धरोहर : श्री नरेंद्र बहादुर सिंह जी, सामाजिक विज्ञाता

जीवन कैसे जिया जाए? (कविता)

ताशकंद उत्तरगाथा : डॉ. नीरजा माधव I साक्ष्यों का सूक्ष्म विश्लेषण करके नक़ाबपोश हत्यारों को चिन्हित करती कृति।