'प्रभात' की खोज: भाग ४-गुरु का मौलिक मार्ग

भाग-१ 'माँ का मन' पढ़ने के लिए  CLICK करें।  

भाग २- बदलाव, बेहतरी का? पढ़ने के लिए  CLICK करें।

भाग ३- गांधी जी की प्रेरणा! पढ़ने के लिए  CLICK करें।

क्रमशः भाग ४:

  निर्धारित समय पर पी॰एन॰ सर और राहुल के पिता स्कूल में मिले। राहुल के पिता ने पी॰एन॰ सर के चरण स्पर्श किए, जो कि सर को भी थोड़ा असहज लगा। असहज इसलिए क्योंकि दूसरे अभिभावक ऐसा नहीं करते थे। पिता का शर्मिंदगी से मुँह ऐसा लटका था, जैसे परीक्षा उन्हीं ने दी हो। पिता जी,

“गुरु जी, माफ़ कर दीजिए…अभी और मेहनत करेगा लड़का। बड़ा होनहार है। हिंदी से आया है…. बस थोड़ा टाइम लग रहा है।”
पी॰एन॰ सर, सिर हिलाकर उनकी क्षमा याचना को टाले और पूछे, “आपने हिंदी में ही आगे क्यों नहीं पढ़ने दिया?”
पिता जी, “गुरु जी, हिंदी में पढ़कर अच्छी नौक़री कहाँ लग रही है।”
सर, “लेकिन अभी भी वो पढ़ तो हिंदी में ही रहा है…।”
पिता जी अचंभित! चेहरे ने सवाल किया- ये क्या बात हुई?
पी॰एन॰ सर जी ने पूरी बातें विस्तार से बताईं-कैसे राहुल अंग्रेज़ी क्लास-हिंदी किताब-अंग्रेज़ी कॉन्सेप्ट के तीन पाटों के बीच पिसता जा रहा है। कैसे वो क्लास में नज़रे चुराता-फ़िरता है। अंग्रेज़ी न बोल पाने की वजह से दूसरे बच्चे उसे अलग-थलग किए रहते हैं। जैसे वो किसी दूसरे ग्रह से आया एलियन हो। 
पिता जी के लिए ये सारी बातें चौंकाने वाली थीं। उन्होंने तो बेहतरी की तलाश में भेजा था, पर यहाँ तो राहुल ही खोता नज़र आ रहा था।
पी॰एन॰ सर, आगे एक अध्यापक के तौर पे नहीं, एक अभिभावक के अवतार में राहुल के पिता जी से बोले, 
"भाई साहब! शिक्षा बस परीक्षा और डिग्रीयों का खेल नहीं है। या केवल नौकरी पाने का ज़रिया नहीं। इसमें बच्चा कुशलता सीखता है। वो अपने आप को जानने की कोशिश करता है...। वो शिक्षा के मंदिर में एक अच्छा नागरिक बनकर लोकतंत्र का अच्छा पुजारी बनता है। अपनी संस्कृति को अपनी अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का माध्यम बनता है..."
पिता जी, गुरु जी की बातों को बीच में ही रोकते हए, " गुरु जी, हम नहीं चाहते हैं कि हमारा बेटा हमारे गल्ले पे बैठे। इसके लिए उसको आपके स्कूल में पढ़ना ही पड़ेगा। यहाँ से निकले बच्चे बड़ा अच्छा कर रहे हैं।"
पी॰एन॰ सर, भौंह सिकोड़ते हुए, "अच्छा कर रहे हैं?... आप भी क्या बात करते हैं। शिक्षा का उद्देश्य केवल नौक़री पाना नहीं है। हाँ,  शिक्षा के उद्देश्यों में रोज़ी-रोटी सबसे अहम ज़रूर है…। लोग ग़रीब होंगे, तो देश ग़रीब होगा। बिना धन का देश अपने आपको समृद्ध और सुरक्षित नहीं रख सकता। देश को पैसा मिलता है टैक्स (कर) से। अब कर देने के लायक़ होने के लिए लोगों की उतनी आमदनी होनी चाहिए। अब मानिए कि सारे लोग ऐसी नौक़री करें कि उनकी सालाना आय ढाई लाख से भी कम हो। तो सरकार के हाथों में  क्या कर  मिलेगा? बिजली, सड़क, पानी...ये सब कैसे जुटाएगी कंगाल सरकार। इसीलिए अच्छी शिक्षा बहुत ज़रूरी है, जहाँ पर लोग बड़े-बड़े काम करें और अधिक-से-अधिक कमाएँ। "
   राहुल के पिता जी सुनते रहे....चुपचाप! आँखें फाड़कर!! समझने की कोशिश तो बहुत किए कि आख़िर गुरु जी कहना क्या चाहते हैं। बेटे की नौक़री का उनके घर के सामने की सड़क से क्या रिश्ता था? उनके लड़के के कंधे पर ये सब भार क्यों रहेगा। ये सब तो उन नेता जी की ज़िम्मेदारी है, जो वोट माँगने आते हैं। घनचक्कर में फँसे पिता जी को एक बात का तो भरोसा था कि गुरु जी उनके बेटे की भलाई की ही बात बता रहे हैं। नहीं तो कोई मास्टर इतनी तल्लीनता से अपना पसीना क्यों व्यर्थ करता।
सर मुस्कुराते हुए बोले, "देखिए मैं आपको पकाना नहीं चाहता हूँ, अब मैं सीधे बोलता हूँ, जब पैसा ही कमाना है, तो अंग्रेज़ी में ही पढ़ना ज़रूरी है क्या?"
इससे पहले इन जैसे ओहदे का आदमी इतना क़रीब बैठकर यह सवाल पहले कभी नहीं पूछा था। इससे पहले कि वो हकलाकर कोई ज़वाब मन में गढ़ते, गुरु जी ने सवालों की झड़ी  लगा दी, " आप तो हिंदुस्तानी हैं, हिंदी आपकी मातृभाषा होगी, मम्मी  जी अंग्रेज़न होंगी.... या फिर उस देश की, जहाँ की मातृभाषा अंग्रेज़ी हो?"
राहुल के पिता जी को लगा कि अब गुरु जी खिल्ली उड़ाने पर उतर आए हैं। वो मुण्डी हिलाकर इशारा किए कि माता भी हिंदी वाली ही हैं।
पी॰एन॰ सर, "देखिए भाषा अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) का जरिया है। अभिव्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही सबसे नैसर्गिक (नेचुरल)  रूप में प्रवाहित होती है। जो चीज़ प्राकृतिक है, वही टिकाऊ। बाक़ी बनावटी, बरबस चीज़ें तो बस काम चलाऊ हैं। आप सोचिए...अगर राहुल की मातृभाषा अंग्रेज़ी होती, तो वो उसमें पढ़ाई-लिखाई करता, आगे बढ़ता...वो जो भी करता, उसमें एक तरह की मौलिकता (ओरिजिनैलिटी) रहती, ...अपनापन रहता। उसकी भावनाएँ, उसके विचार, उसकी सोच.... सब कुछ अंग्रेज़ी में होते, इसलिए वो उनकी अभिव्यक्ति भी अंग्रेज़ी में आसानी से कर सकता था। अब आप इस समय की स्थिति देखिए। छः महीने पहले अपनी मातृभाषा में पहचान रखने वाला लड़का आज अंग्रेज़ी के स्कूल में खुद को भूलता जा रहा है। अब उसको कोई मौलिक विचार नहीं आते। कुछ सोचने से पहले ही उसकी अंग्रेज़ी आड़े आ जाती है, वहीं पे उसका साहस टूट जाता है। और आगे वो पूरे जीवन अपने असली रूझान को जान नहीं पाएगा…”
थोड़ी देर इधर-उधर देखने के बाद पी॰एन॰ सर बोले, “उसमें भी राहुल के साथ एक विचित्र बात और है!"
'विचित्र' शब्द सुनते ही पिता जी के कान खड़े हो गए। अच्छे-ख़ासे,  होनहार, क़द-काठी से सुडौल लड़के में छः महीने में गुरु जी कोई ऐब तो नहीं ढूंढ लिये! शायद नए गुरु जी की नज़रों में राहुल के भीतर कुछ अलग दीखा हो। परीक्षा के परिणाम और अब इस 'विचित्रता' वाली बात की दोहरी लज्जा से पिता, शर्म में हिलोरे खा रहे स्वर से पूछे, "गुरु जी, कहीं ग़लत सोहबत में आकर बत्तमीज़ी तो नहीं कर दिया है?" 
सर, "नहीं…नहीं! वो बात नहीं है। शोध में इस बात की पुष्टि हुई है कि जो बच्चे अपनी प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में करते हैं, वे आगे चलकर बहुत अच्छा करते हैं। क्योंकि उनकी नींव मज़बूत होती है। अब देखिए राहुल ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हिंदी में की है, और अच्छे-से कर रहा था । मातृभाषा पे अच्छी पकड़ होने से वो सारे विषयों, जैसे गणित, विज्ञान, इतिहास में भी अच्छा कर रहा था। अब एकाएक यहाँ अंग्रेज़ी में आकर वो उस नींव पे दूसरी इमारत खड़ा कर रहा है। ये तो हिंदुस्तानी नींव पर ब्रिटिश रूप-रेखा (आर्किटेक्चर) वाली बिल्डिंग वाली बात हुई। आप ज़रा सोचिए, क्या इमारत बेढब नहीं लगेगी? किसी फटे कपड़े में लगी चकती जैसी नहीं दिखेगी? ताजमहल के ऊपर ब्रिटिश रूप-रेखा (आर्किटेक्चर) की बिल्डिंग आपको अच्छी लगेगी?"
अध्यापकों का काम बोलने का होता है। लोग भ्रमवश समझते हैं कि बोलना बहुत आसान है, पर इतनी ऊर्जा लगती है कि पूछिए ही नहीं। आप एक घण्टे लगातार किसी को कुछ समझाने के लिए बोलकर देखिए। दिमाग़ी और ध्वनि ऊर्जा के क्षय से जो थकान होती है, वो अध्यापक ही महसूस कर सकते हैं। अध्यापक पूरे जीवन यह काम पूरी शिद्दत के साथ करते हैं। अत्यधिक बोलने की वजह से तो कुछ अध्यापकों को गले की सर्जरी तक करवानी पड़ जाती है। पी॰एन॰ सर मेज पर रखी पानी की बोतल से अपने गले को गीला किए। थोड़ी देर सुस्ताने के बाद पिता जी से उन्होंने बहुत गंभीरता से पूछा, "जानते हैं, हमारा देश आज भी ग़रीब क्यों है?" ज़वाब में था पिता का शून्य और समर्पण। इसपर पी॰एन॰ सर बोले, "हमारी सोच अभी भी अंगेज़ी हुकूमत की ग़ुलाम है! हम अभी भी कारखानों में काम करने और बाबू बनने के लिए स्कूल जाते हैं। जिस दिन हम अपनी मातृभाषा में सोचना शुरु कर देंगे, विकास की असल क्रांति आ जाएगी। यहाँ पढ़कर लोग अपनी समस्याओं के समाधान अपने आप ढूँढेंगे, क्योंकि अपनी समस्याओं को हमसे बेहतर और कौन जान सकता है। यही नहीं, हम दूसरे देशों की भी मदद कर पाएँगे।"
पिता जी इतना सुनने का धैर्य लेकर नहीं आए थे, फिर भी उनको गुरु जी में भगवान श्री कृष्ण दीख रहे थे। उन्होंने बड़े समर्पण भाव से हाथ जोड़कर बोला, "तो गुरु जी, आप ही आगे कुछ रास्ता बनाइए।"
   उस दिन मिलने का समय केवल राहुल के पापा के नाम नहीं था। उनके पीछे भी लाइन लगी थी। अगले बच्चे के पिता जी देरी से पैदा हुई बेचैनी को रोक न सके और सर के पास आ धपके। उनको जिस समय पे बुलाया गया था, उससे आधे घण्टे की देरी पहले ही हो चुकी थी। उनकी वेष-भूषा के साथ-साथ तपाक भी ब्रिटिश था। आते ही उन्होंने पी॰एन॰ सर को अपनी आँखों से ही क्रोध जताया। आख़िर समय की क़द्र तो होनी चाहिए। इससे पहले वे पी॰एन॰ सर को कुछ उल्टा-सीधा कहते, राहुल के पिता ने उनके सामने हाथ जोड़कर बोला, "भाई साहब!  बस पाँच मिनट ...मेरे भविष्य का सवाल है।" अभिभावक महोदय खीजे, एक सागर-सी गहरी साँस लिये, और जाकर क्लास के बाहर रखे सोफ़े पर बैठ गए।
   पी॰एन॰ सर अपनी एकाग्रता के लिए जूझते दीखे। जैसे-तैसे उनकी मुस्कान पटरी पर लौटी। अब वे अपनी बातों को जल्दी से समेटने का प्रयास करते हुए, " जब नौक़री ही करना है, तो क्यों नहीं वो अपनी मूल भाषा में शिक्षा ले। क्या पता वो अगला अब्दुल क़लाम बनकर असंभव काम करे, या फिर टैगोर बनकर समाज को सही दिशा दे। अपनी मातृभाषा में शिक्षा लेने वाले देश तरक़्क़ी कर रहे हैं...चीन, जापान, कोरिया, फ़्रांस..., ख़ुद इंग्लैंड और अमेरिका को ही ले लीजिये। जो देश अपनी मातृभाषा में शिक्षा नहीं ले रहे, वे उन देशों की सेवा कर रहे हैं.... और करते रहेंगे।"
घर की मुर्गी साग बराबर। राहुल की मम्मी ने स्कूल बदलने से पहले ममता के हवाले से ही सही, यही बात कही थी। उन्होंने  मातृभाषा का महत्त्व बँधी आवाज़ में कहने की कोशिश की थी। 'राहुल का मन इस स्कूल में लगा है, तो केवल अंग्रेज़ी के लिए ही स्कूल क्यों बदलना?' गुरु जी के कृष्णावतार ने पिता की आँखें खोल दीं। उन्होंने सर जी से बोला, "गुरु जी! कुछ महीने महीने और रह गए हैं, इस स्कूल में पढ़ लेने दीजिये, फिर उसको पुराने वाले में भेज दूँगा।"
सर, "मैं तो कहूँगा कि बचे हुए समय भी पुराने वाले में ही पढ़ाइए। हिंदी में वो सारी चीज़ें पढ़ता आ रहा है, ऐसे में उसका अधिक नुक़सान नहीं होगा।"
इतने में बड़ी देरी से अपनी बारी का इंतज़ार करने वाले अभिभावक अंदर आए और फायर हो गए। आधे घण्टे, और दस मिनट की देरी !!! इसलिए वे आग बबूले भी थे, और गरज भी रहे थे। मैनर, वैल्यू ऑफ़ टाइम...बड़बड़ा रहे थे। सर जी ने उनको आदरपूर्वक बैठने का आग्रह किया। फिर वे उठे और राहुल के पिता जी को बाहर तक छोड़ने गए। उन्होंने मुस्कुराते हुए एक गूढ़ ज्ञान की बात भी बोल डाली, "देखिए, अपने यहाँ बढ़ रहे वृद्धाश्रमों के कारणों की आपने झलक देख ली। अभी वाले महाशय अंग्रेज़ी भाषा तो भाषा, अंग्रेज़ी संस्कृति भी ओढ़ लिये हैं। तो आगे चलकर ऐसे ही अभिभावकों के बच्चे जब वृद्धाश्रम में उनके लिए जगह आरक्षित करते हैं, उस समय इनको एक प्रश्न का ज़वाब ढूँढने से भी नहीं मिलता-'आख़िर हमारी परवरिश में ऐसी क्या कमी रह गई?' अरे जब पेड़ चेरी ब्लॉसम का लगाएँगे, तो उसमें फूल गुड़हल के थोड़े ही न लग जाएँगे! देखिए भाई साहब, मातृभाषा को संस्कृति से भी जोड़कर देखिए। पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कृति की विरासत संभालने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है।"
इतना कहकर उन्होंने राहुल के पिता को विदा किया। पिता ने गुरु जी के चरण कमलों को स्पर्शकर उनका धन्यवाद ज्ञापन किया। अपनी साइकिल से घर वापस लौट आए। 
*****
राहुल का भविष्य क्या रहेगा? क्या कभी पी.एन. सर को उसकी ख़बर मिल पाएगी? जानने के लिए पढ़ें अंतिम भाग, शीघ्र!
'प्रभात' की खोज: भाग ४ 


टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मशीनें संवेदनशीलता सीख रही हैं, पर मानव?

हुण्डी (कहानी)

कला समाज की आत्मा है, जीवन्त समाज के लिए आत्मा का होना आवश्यक है।