'प्रभात' की खोज: भाग १-माँ का मन 

 किसी चीज़ की महत्ता महज परिस्थितयों की दासी होती है। नहीं तो ग़ज़लों में चुभने वाले ग़ुलाब के काँटे, भला रेगिस्तान में नागफ़नी की पत्तियाँ होकर जान कैसे बचाते? सैकड़ों साल पहले एलुमिनियम को पूछ सोने से भी अधिक थी। जो एलुमिनियम के बर्तन राजाओं की शान में इतराते थे, आज सड़कों पर हाथ फैलाते दीख जाते हैं। जिन नज़रों को देखकर कभी नशा चढ़ा करता है , समय बीतने पर उन्हीं को देख नशा उतर भी जाता है। वैसे, इश्क़ के इज़हार में रौशनी की बड़ी भूमिका है। ब्रम्हाण्ड के सबसे बड़े प्रकाश के कारक सूर्य देव जी हैं। पर पता नहीं क्यों इश्क़ कभी सूरज की रौशनी में नहीं पनपता। मानो, जैसे उजाले से छत्तिस का अकड़ा हो। इश्क़ के रिश्ते होते हैं अंधेरे और उजाले के हाशिये पर। चाँदनी रात, कैंडल लाइट आदि के मद्धम उजाले में ही यह महफ़ूज़ रहता है। शायद प्यार का परदे में पनपना प्राकृतिक हो! मगर क्या ये इश्क़ लालटेन में भी हो सकता है? क्यों नहीं? ह पर एक दूसरे क़िस्म का! किसी का उसके सपनों से इश्क़!! ऐसे क़िस्से हर क़िस्म की रौशनी में जन्म लेते हैं।

  लालटेन! आज के इन्वर्टर के दौर में लालटेन की बिसात क्या है? राहुल के पापा को इन्वेर्टर की वफ़ादारी पे कोई शक़ न था। साथ ही उनको बिजली पे ख़ास भरोसा भी नहीं हो सका। लम्बे समय तक बिजली गुल रहने पर कौन-सा इन्वर्टर राहुल की पढ़ाई के काम आ सकता था? अपनी पहुँच से बाहर होते हुए भी उन्होंने इन्वर्टर का इंतज़ाम कर रखा था। साथ ही अपनी इस्तेमाल की हुई लालटेन से राहुल के सपनों का बीमा भी करवाया था। 
  कमरे में लालटेन मद्धम-मद्धम जल रही थी। उसके प्रकाश में राहुल अपने सपने सहेज रहा था। आज तो बहुत ख़ुशी का दिन था। आठवीं कक्षा का परिणाम आया था और पूरे स्कूल में वो अव्वल आया था। हर विषय में पूरे नंबर थे, बस एक अंग्रेज़ी को छोड़कर! ऐसा नहीं था कि अंग्रेज़ी में किसी और के राहुल से अधिक अंक थे। वो सबमें सर्वोत्तम था। बस सब विषयों की दौड़ में अंग्रेज़ी सबसे पीछे रह गई। स्कूल हिंदी मीडीयम का था। सारी पढ़ाई हिंदी में होती थी, और अंग्रेज़ी भी छात्र पूरे जी जान से पढ़ते थे। 'राम गए', 'राम सीता और लक्ष्मण के साथ वन को गए',  'सीता ने खाना पकाया', सीता ने स्वादिष्ट खाना पकाया' इत्यादि के अंग्रेज़ी अनुवाद तो सरपट हो जाते थे। पर इसके आगे सब कुछ बाधा दौड़ होती थी। अंग्रेज़ी में निबंध, अनुवाद की एक अनूठी एक कला होती थी। हिंदी के विचारों को व्याकरण और शब्दावली के सहारे फोर लेन (Four Line)  में चुनकर उतार देना आख़िर किस कला से कम है! अंग्रेज़ी का निबंध लेखन किसी हल्की-फुल्की आँधी के आ जाने से कम नहीं होता था।आंधियों से बच-बचाकर निपटा जा सकता था। बिजली तो तब कड़क उठती थी, जब बारी अंग्रेज़ी में बातचीत की आती थी। हालत ऐसी, मानो जीभ ऐंठ गई हो! दिमाग़ हिंदी में विचारकरके उसको सामानांतर अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की पूरी कसरत करता था। पर इतने में रिदम (rhythm) दम तोड़ देता। भाव तो बवण्डर में उड़-सा जाता था! अन्य विषयों में डिक्टेंशन  पाने वाले भी बोलने में कभी थर्ड डिवीज़न जितना  नहीं पा पाते थे।  इन सब बाधाओं के बीच भी राहुल को उस दिन परिवार के साथ ख़ुशियाँ मना लेने में कोई नुक़सान न था। कुछ दिन विद्या माता को आराम दे देता, तो माता जी सो नहीं जातीं। जिन लोगों की मंज़िल बड़ी होती है, वे पड़ाव की तालियों पे नहीं ठहरते।तालियों को सिर आँखों पे रखते ज़रूर हैं, पर उनसे जल्दी ही दूर हो जाते हैं। मंजिल के कान के परदों पर बुरा असर जो पड़ता है। 
   दूसरे कमरे में राहुल की मम्मी, राहुल के पापा से,  "सुनिए जी,  उसका मन उस स्कूल में लगा हुआ है... क्यों न वो आगे भी उसी में पढ़े?" राहुल के पापा भोजन खाते समय कम ही बोलते थे। खाते वक़्त बोलने से पाचन अच्छा नहीं होता। वो शांत रहकर खाने पर ध्यान लगाए रहे। 
"बस एक ही विषय में तो कम नंबर पाया है…बेचारा!… बाक़ी में तो अच्छा ले आया है।"
ज़वाब में राहुल के पापा की चुप्पी थी। पर इस विषय की गंभीरता को देखते हुए वे अपने भोजन करने की चाल को बढ़ा दिए। उनको यह भी पता था कि खाने को अच्छे से चबाकर खाना चाहिए। पर वे क्या करते इस गंभीर विषय पे एक दिन का अनपच दांव पे लगाया जा सकता था।आख़िर सबके भविष्य का जो सवाल था। इतने में मम्मी अपने बेटे को दूसरे स्कूल न भेजने के लिए अपनी दलीलें देती रहीं, 
"क्यों जी, वो क्या कहते हैं.... जो मास्टर साहब लोग अलग से पढ़ाते हैं,... उसको लगवा देते हैं। एक अंग्रेज़ी के लिए क्यों बच्चे को परेशान करना?"
पिता ने अपना हाथ धोते हुए, "अंग्रेज़ी में उसको ट्यूशन कहते हैं। हिंदी में किसी ने मुझे बताया नहीं।"
व्यंग की आहट से मम्मी आहत हो गईं। उनको पता था कि चुप्पी साधने की बारी अब उनकी थी।  
राहुल के पापा, "अंग्रेज़ी में आगे पढ़ेगा, तो अच्छी नौक़री-चाकरी कर लेगा। नहीं तो अपने बाप के जैसा तेल-साबुन बेचेगा।नमक़-रोटी जुटाने में ही तंग रहेगा।" लगातार बोलते रहना अधिक समझदारी का परिचय नहीं होता। सुनने वाला ही यह तय करता है कि बोलने वाला कितना समझदार है। बातें उसको बाँध के रख पाती हैं क्या। करती हैं क्या, बीच-बीच में एक 
 मैं दुकान पे अपने आँख-कान मूँद के नहीं रहता..., वो शर्मा जी का बेटा अमेरिका की कंपनी में अच्छी पेमेंट उठा रहा है। चौराहे के बाएँ वाला घर याद तो है न... सिंह साहब की बेटी की पढ़ाई अभी पूरी भी नहीं हुई कि नौक़री लग गई है। सब-के-सब उस अंग्रेज़ी वाले स्कूल से ही हैं।"
माँ तो दिन-रात तंग रहकर भी बच्चे की ख़ुशी की मन्नतें करती है। उसे किसी भी सूरत में बच्चे को तंग देखना कैसे गवारा हो सकता है। राहुल की मम्मी को घर की माली हालत पता थी। अच्छी-ख़ासी कोई बँधी तनख़्वाह तो थी नहीं। घर का पूरा भार किराने की दुकान पे था। राहुल के बाबा की विरासत में मिली थी वो दुकान। जब सोच बेहतरी की हो, तो भला मम्मी उन नेक हाथों को कैसे रोक सकती हैं। मम्मी अधिक पढ़ी-लिखी न थीं। इसके बावजूद भी अपने बेटे की पढ़ाई में बहुत दिलचस्पी रखती थीं। राहुल की भोर के चार बजे का अलार्म मम्मी ही तो थीं।  ऐसी अलार्म, जो राहुल को जगाकर ख़ुद भी उसके साथ जगती रहतीं। बेटे का हौसला बढ़ाने का यह उनका तरीक़ा था। क़रीब से बेटे को जानने का परिणाम ही था कि मम्मी को एक विषय की अंग्रेज़ी की पढ़ाई और अंग्रेज़ी में पूरी पढ़ाई के बीच का फ़र्क पता था। अगर राहुल ऐसे स्कूल में जाता तो आने वाले संघर्ष की आहट भी मम्मी को थी। पिता के शांत होते ज्वार-भाटों को भाँपकर हिचकिचाते हुए,
"ए जी, अंग्रेज़ी मीडियम का भार तो नहीं न पड़ेगा...?"
पापा, "अरे कैसा भार? ... तेज़ है.... लगनी भी है... कर लेगा।"
मम्मी, "फ़ीस?... उसकी तो फ़ीस भी अधिक होगी न... उसका क्या?"
पापा, "तुम चिंता मत करो, मैं कुछ इंतज़ाम कर लूँगा।"
थोड़ी देर पहले मम्मी सहमी हुई थीं। पर पैसे के जुगाड़ वाली बात से मम्मी को शक़ हुआ कि दुकान में कोई अलादीन का चिराग़ मिल गया है। वरना पतिदेव इस ढलती उम्र में आमदनी बढ़ाने की कैसे सोच सकते हैं?
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'प्रभात' की खोज: भाग १


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