'प्रभात' की खोज: भाग २- बदलाव, बेहतरी का?

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क्रमशः भाग-२ ...

निर्माण का काम भगवान ही कर सकते हैं। माता-पिता बच्चों के भविष्य के विश्वकर्मा होते हैं।  भैतिकवादी किसी भी समाज में जब भी कभी यह ओहदा साक्ष्य के कठघरे में खड़ा होगा, तब निर्माण का यह सार्वभौमिक सिद्धांत कवच बनेगा। राहुल की अभी उम्र कच्ची थी, इसलिए उससे अंग्रेज़ी वाले स्कूल की राय नहीं पूछी गई। उसको पापा ने बताया कि अब वो नवीं से राज इंग्लिश स्कूल में पढ़ने जाएगा। उसकी राय नहीं ली गई, मगर उसको स्कूल बदली के कारणों की उत्सुकता तो ज़रूर थी। मम्मी ने कौतुहल की इस प्यास को शांत किया।

  दिमाग़ का तेज़ होना और उस तेज़ दिमाग़ को धारदार बनाने के लिए मेहनत का पत्थर होना, ये दो ऐसी गंगा-जमुना हैं, जिनका संगम किसी अदृश्य सरस्वती में ही हो सकता है। जो इन सरस्वती की खोज कर ले, वो संसार का अगला आइंस्टाइन बन जाए। राहुल में उन्हीं सरस्वती नदी का वास था। प्रवेश परीक्षा के लिए फॉर्म भरा गया। पापा के निर्णय के प्रति समर्पित भाव से राहुल ने कमर तोड़ तैयारी की। प्रवेश परीक्षा अंग्रेज़ी में होनी थी। उसने आठवीं का सारा पाठ्यक्रम अंग्रेज़ी की पुस्तकों में पढ़ डाला। मेहनत का फल तो मीठा ही होता है, और साथ में माँ-बाप की दुआएँ उस मिठास की मिश्री थी। नतीजा, राहुल को सुनहरे भविष्य की चाबी के रूप में राज इंग्लिश स्कूल का आई.डी. कार्ड  मिल गया। 
   राज इंग्लिश स्कूल जाने का पहला दिन । राहुल एकदम बन-ठन के तैयार। जब राहुल ने शीशे में अपना चेहरा देखा, तो भौचक्क रह गया। बिना किसी ड्रेस कोड के स्कूल जाने वाला ब्लेज़र में था। कॉलर की बटन बंद करने पर घुटन महसूस करने वाले के गले में जेंटलबॉय की कसी हुई टाई थी। कमर कसकर पढ़ाई करना तो वो जनता था, पर यहाँ पढ़ाई करने के लिए वास्तव में कमर कसना पड़ता था, बेल्ट से। इससे पहले उसने कभी भी कमीज़ को पतलून के भीतर नहीं की थी। पैर की हवाई चप्पल आज हवा-हवाई हो गई थी। उनकी जगह ब्लैक शूज़ ने ले ली थी, जिसपे रोज़ चेरी ब्लॉसम पॉलीश की चमक चढ़ानी थी। अपने आपको इतना बदला देखकर वो घबरा गया! थोड़ी देर में होश संभाला। बेहतरी के लिए इस बदलाव को माना। फिर शुभ काम की शुरुआत करने से पहले हमेशा की तरह मम्मी ने दही-गुड़ कराया। मम्मी-पापा के चरणों को स्पर्शकर घर से बाहर क़दम रखा।
   गेट पर लिखा था RAJ ENGLISH SCHOOL। जगह-जगह दीवारों पर लिखा था- 'GENERATE ONLY ENGLISH WAVES. (केवल अंग्रेज़ी तरंगें ही उत्पन्न करें)'। पहले से ही असहज महसूस कर रहे राहुल के लिए यह कथन और पसीना छुड़ाने लगा। क्लास के सब बच्चे एक-दूसरे के लिए नए नहीं थे। अधिकतर बच्चे राज इंग्लिश स्कूल के ही थे, जो आठवीं पास करके आए थे। पाँच बच्चे दूसरे स्कूलों से भी आए थे, पर अंगेज़ी मीडियम वाले। हिंदी से अंग्रेज़ी में तिरछी छलांग लगाने वाला राहुल इक़लौता था। क्लासटीचर महोदय मिस्टर प्रभात नारायण जी आए। प्रेम से बच्चे उन्हें पी॰एन॰ सर के नाम से पुकारते थे।  राहुल दन-से खड़ा हो गया। उसके स्कूल में तो ऐसा ही होता था।  गुरु जी के आने पर उनको सम्मानित करने का तरीक़ा था। उसने अपने आजू-बाजू नज़र फेरी, पर केवल वही खड़ा था। बाक़ी सब बैठे-के-बैठे। पूरा माहौल ठहाके से भर गया। सारे बच्चे राहुल की ओर इशारा करके हँसी उड़ाने लगे। मानो बगुलों के बीच में कौआ अपने व्यवहार के रंग से ही पहचान में आ गया हो। अब राहुल कौआ था, या बगुलों में हंस, ये तो वक़्त ही बताता। उस स्कूल में टीचर को सम्मान नहीं, बस सैलरी मिलती थी। सैलरी, मेहनताना, जिसके लिए वो पढ़ाते थे। ख़ैर... माहौल शांत हुआ। क्लासटीचर महोदय ने अपना परिचय दिया। उसके बाद एक अंग्रेज़ी में जोशीली स्पीच भी दी। फिर उन्होंने बारी-बारी सबका परिचय पूछा। स्वाभाविक था... अंग्रेज़ी में! सबने फ़र्राटेदार इंट्रो दिया। राहुल को मम्मी के साथ-साथ नानी भी याद आ गईं। उसका अनूदित (TRANSLATED) परिचय हास्य-व्यंग की महफ़िल सजा गया। आज का हँसी के पात्रों का हीरो वही बना। और  मज़ाक़ बनने की क़सर जो बची रह गई थी, वो टिफ़िन करते समय पूरी हो गई। राहुल को खाना खाने का मैनर भी होता है, उसको  पता नहीं था। 
स्कूल का समय ख़त्म हुआ। वापस आते समय राहुल को स्कूल की दीवारों पर लिखी एक और बात दिखी जिसने उसके हौसले के कुऍं में से एक बाल्टी पानी और निकाल लिया-'A GOOD START IS HALF DONE (एक अच्छी शुरुआत का अर्थ मज़िल आधी पा जाना है।)'
 बड़ों में मज़ाक बनने की क्षमता जितनी होती है, उससे कई गुना कम क्षमता बच्चों में होती है। अगर अभिभावक बच्चों को सही मार्गदर्शन न करें, तो वे आए दिन अपने जिगरी दोस्तों से ही मुँह फुला लें। उनसे झड़प कर लें। वहीं हाल राहुल का भी था। इतना बुरा पहला दिन इससे पहले कभी न बीता था। घर पे मम्मी राहुल का जिस उल्लास से इंतज़ार कर रहीं थीं, वो राहुल के चेहरे से ग़ायब था। राहुल ने बनावटी चेहरे से सब कुछ छुपाने की कोशिश तो ज़रूर की, पर 'माँ सब जानतीं हैं'!  बुरी शुरुआत का असर कुछ ऐसा हुआ कि बीच में बैठने वाला राहुल महीने भर में सरकते-सरकते एकदम पीछे जा बैठने लगा। उसको मैथ्स तो जैसे-तैसे पल्ले पड़ जाती थी। परन्तु साइंससोशल साइंस, इत्यादि विषयों की हवा तक न लगती थी। अंग्रेज़ी का हिंदी अनुवाद करने में वो इतना उलझा रहता कि मूल बातें सिर के ऊपर से निकल जातीं। कभी नियमों की तह खोदने वाला लड़का अब उनकी सतह छूने से भी कतराने लगा। अपने कक्षा में नए-नए विचार रखने वाला अब क्लास में कोई आईडिया (idea) नहीं दे पाता था। मैथ्स में आती हुई चीज़ों को भी वो बतलाने में हिचकिचाता। क्लास में परफॉरमेंस रिटेल (Retail, खुदरी) की नहीं, होलसेल (wholesale, थोक) वाली होती है।  वहाँ उसका बोलबाला रहता है, जो सब विषयों में अच्छा रहे। केवल मैथ्स के सवाल ब्लैकबोर्ड (blackboard) पे हल करने से राहुल रामानुजम नहीं बन सकता था। और फिर उसको लोगों के समझाने में बोलना भी पड़ता...। हँसी का पात्र बनने से बचने के लिए अक़्सर जानते हुए भी राहुल कभी हाथ खड़े नहीं करता।

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