गुलाल भवन की धरोहर : श्री नरेंद्र बहादुर सिंह जी, सामाजिक विज्ञाता

ज़माना पल-पल बदल रहा है। इस बदलते ज़माने की रफ़्तार को पकड़ने की आदमी भरपूर कोशिश कर रहा है । बदलाव ज़रूरी भी है। मगर तभी तक, जब तक कि सकारात्मक हो । मेरी जबसे समझने-बूझने की उम्र हुई, गाँव के एक परिवार से मैं हमेशा प्रेरित होता रहा। मैंने कभी उनको देखा नहीं, लेकिन उस परिवार के स्वर्गीय श्री मोतीचंद सिंह की उदारता, कर्मठता और उद्यमशीलता की कहानियाँ सुनते हुए बड़ा हुआ (उम्र में)। आज यदि किसी के पास धन है, तो वो अपना दायरा सीमित करना चाहता है, ताकि किसी को देना न पड़ जाए। आप महापुरुष ने स्वयं को तो सीमित किया लेकिन आस-पास के लोगों, सगे-सम्बन्धियों के लिए अपना हृदय विशाल समुंदर कर दिया । आपके हवेलीनुमा घर जैसा गाँव में तो क्या, पूरे क्षेत्र में आज भी वैसा घर नहीं बन पाया। घर की बालू-सरिया-ईंट भले ही पैसे से आती होगी , परन्तु ये घर को शरीर मात्र दे सकते हैं। घर बनाने में हुए परिश्रम, तप, परित्याग और समर्पण उसको प्राण देते हैं। ये सब घर की आत्मा होते हैं। प्राण बिना शरीर का अस्तित्व कहाँ! घर को बनाने में हुई परिकल्पना सदा उस घर में वास करती है। जैसे स्वार्थ की परिकल्पना में बनाया हुआ घर कभी दूसरे को छाँव नहीं दे सकता। संकुचित मानसिकता द्वारा बनाया घर कितना ही विशाल क्यों न हो, रहने वालों को हमेशा छोटा ही लगेगा। शांत मन से बने घर में शांति का वास स्वतः होता है।

इस परिवार की रहीसी को मैंने क़रीब से अनुभव किया। रहीसी पैसे से नहीं आती, विचारों से आती है। दूसरों की विशुद्ध निःस्वार्थ कैसे सहायता कैसे की जाती है, यह देखने को मिला है। मेरे अभिन्न मित्र नीरज  सिंह के पिता श्री नरेंद्र बहादुर सिंह मेरे भी पिता तुल्य हैं। उनके सानिध्य का सौभाग्य मुझे बचपन से ही मिला है। गाँव में होने पे हर शाम एक-दो घण्टे कैसे गुज़र जाते थे, इसका आभास नहीं हुआ। अगर कुछ बनना है, तो सानिध्य ऊँचा होना चाहिए । मैंने बड़े-बड़े लोगों को मुश्क़िल समय में सिद्धांतों से समझौता करते देखा है। परन्तु इनके मूल्य और मानक परिस्थिति के साथ कभी नहीं बदलते। जो सिद्धांत किसी अपरिचित लिए है, वही अपने पुत्र तक के लिए लागू होते हैं। किसी भी सामाजिक समस्या का विश्लेषण और समाधान इनकी ख़ासियत है। यही कारण है कि पंचायतों के पूज्य रहे। पंचायतों का विघटन हो चुका है, पर सभी लोगों के प्रथम परामर्शदाता आज भी आप ही हैं । विवादों में इनके द्वारा किए गए निर्णय पर सभी पक्ष सहमत होते हैं। इन्होंने न्यायाधीश की पढ़ाई तो नहीं की, लेकिन पूर्व जन्म में अवश्य किसी सामाजिक न्यायालय के न्यायाधीश रहे होंगे। व्यक्तिगत रूप से इन्होंने मुझे अपने पुत्र से अभी अधिक स्नेह दिया है। (क्षमा करना नीरज!)। जीवन की धूप सदा मुझपे मेहरबान रही है। धूप से उबरने मैं इनकी छाँव में जाया करता हूँ। इन धूपों से कोई शिक़ायत नहीं है, बल्कि इन्होंने निखारा ही है। आपसे मिले मार्गदर्शन, पुत्रवत स्नेह के लिए यह जीवन आपका सदैव ऋणी रहेगा और उऋण होने की मेरे पास कोई विधि नहीं हो सकती है।



(बायें से क्रमशः- श्री जितेन्द्र बहादुर सिंह जी, श्री नरेंद्र बहादुर सिंह जी, श्री राजाराम सिंह जी)

ईश्वरीय कृपा से संभव हुए गुलाल भवन के गृह प्रवेश में आपके श्री चरण पड़ने का मैंने निवेदन किया। मुंबई की महानगरी से काशी नगरी तक की यात्रा की कठिनाइयों की परवाह किए बिना, आपने आशीर्वाद देने का मन बना लिया। माता श्री, जिनको चलने-फिरने में भी कठिनाइयाँ होती हैं, उन्होंने भी हिम्मत जुटाई घर को आशीर्वाद देने के लिए । आपका आना मेरे लिए एक उपलब्धि है, क्योंकि आप सब-कुछ के साक्षी रहे हैं, सब-कुछ के। आप कितना आगे जाते हैं, यह निर्भर करता है आपके पीछे कैसे लोग हैं और आप वहाँ टिके रह पाते हैं, यह निर्भर करता है कि आपके पीछे के लोग हमेशा आपके साथ हों । पूरे परिवार को गृह प्रवेश में सम्मिलित कराने के लिए सखा नीरज को धन्यवाद करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। आप श्रवण कुमार सरीख़ हैं। पिता जी और माता जी के गुलाल भवन पर पड़े चरण हमें आपके मूल्यों का अनुसरण करने लिए सदैव प्रेरित करते रहेंगे। 

-काशी की कलम 

टिप्पणियाँ

  1. अतिसुन्दर, जिस स्नेह से घर बना वह स्वयं में अपनी पवित्रता के कारण और भव्य हो गया । जय हो 🙏

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  2. गुलाब भवन को,और उसमें आशीर्वाद देने आए महानुभावों का बहुत-बहुत धन्यवाद✅

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