'प्रभात' की खोज: भाग ३- गांधी जी की प्रेरणा

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क्रमशः भाग-३ 

  घड़ी को एक हीन भावना (inferiority complex)  होती है। वो कितना हूँ चलती है, किंतु वो कभी आगे नहीं बढ़ती। उसी गोल घेरे में चक्कर खाती रहती है। ये उसका महज भ्रम है, असल में जर्मन मान्यता के अनुसार समय सीधी रेखा में चलता है। जो राज इंग्लिश स्कूल में भी चलता रहा। उस स्कूल में राहुल के लगभग तीन महीने बीत चुके थे। हमेशा खिलखिलाते रहने वाले बच्चे का मुरझाया चेहरा देखकर मम्मी चिंतित रहने लगीं। चाँद-तारों, ग्रहों-नक्षत्रों की तहक़ीकात करने वाला राहुल अब टिमटिमाता जुगनू देखने में भी रुचि नहीं दिखाता था। भोर में मम्मी के सिर सहलाने मात्र से दन से उठकर बैठ जाने वाले लड़के को झोर-झोरकर जगाना पड़ता था। अब यह झोरना झाड़ने में बदल गया। अब राहुल की नींद बस डाँट से ही टूटती। देखते-देखते छमाही इम्तेहान सिर पे आ गए। दिन-पर-दिन राहुल का आत्मविश्वास घटता हुआ नज़र आ रहा था। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ। किताबों में खोया रहने वाला राहुल अब अपनी ही क़िताब खोज रहा था।  

   एक दिन राहुल सूट-बूट कसकर स्कूल के लिए तैयार था। उसका यह रूप देख मम्मी मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं, जैसे बेटा कोई उद्योगपति बन गया हो। बस एक फ़र्क था कि मम्मी जैसी मुस्कान राहुल के चेहरे से नदारद थी। उदासी मौन से कुछ कहना चाह रही थी। मम्मी ने उस दिन बेटे को टोका और बोला,
“मेरे लाल, कहाँ खोए-खोए-से रहते हो? तुम्हारा यह गिरा हुआ चेहरा इस ड्रेस पर शोभा नहीं देता।”
राहुल, "नहीं माँ, मैं इस कपड़े में बड़ा अजीब फ़ील (महसूस) करता हूँ। शुरु के दिनों में तो ये ड्रेस बड़ी अच्छी लगती थी, पर पता नहीं क्यूँ अब इससे ऊब गया हूँ।"
मम्मी, "बेटा कपड़े की उपयोगिता बस तन ढँकने भर की है। ये ढँकता है, हमें इसके भार को ढोने में ऊर्जा ख़र्च नहीं करनी चाहिए। लोग तो देखा-देखी से कपड़े में मायने निकालने लगे हैं। कि सूट-बूट पहनो तो सभ्य, धोती-कुर्ता पहनो तो असभ्य। पता है बेटा,...  जब गांधी जी इंग्लैण्ड बैरिस्टर की पढ़ाई करने गए थे, तो किसी अपने देश वाले ने ही उनके कपड़ों की खिल्ली उड़ाई, उनको सभ्य बनने के लिए जेंटलमैन वाले कपड़े सुझाए। तब गांधी जी ने सूट-बूट-टाई... सब ख़रीद ली। पार्टियों में जाने के अलग क़िस्म के कपड़े बनवाए। धारा प्रवाह अंग्रेज़ी सीखी। फ़्रांस की भाषा भी सीखी। जेंटलमैन बनने के लिए अंग्रेज़ी बाजे बजाना भी सीखे। फिर ये सब कर करते हुए उन्होंने एकदिन अपने को शीशे में देखा। फिर उनको लगा कि वो नक़ल की दौड़ में अपना असलीपन पीछे छोड़ते जा रहे हैं, भूलते जा रहे हैं। तब से उन्होंने पहनावे को कभी अहमियत नहीं दी। आज गांधी जी अपने कपड़ों से नहीं, अपने व्यवहारों और विचारों के लिए जाने जाते हैं…।
थोड़ी देर बाद मम्मी को लगा कि उन्होंने बेटे को पका दिया। अपने उपदेशों को रोकते हुए, 
“ अरे, मैं ये क्या बक़-बक़ कर गई, ये सब तुझे तो पता ही होगा…”
राहुल, “ मम्मी, आप कहती हो कि आप ठीक से स्कूल नहीं जा पाईं…फिर गांधी जी के बारे में इतनी बातें कहाँ से जानती हो?”
मम्मी, “ बेटा! गांधी जी में जिनकी रुचि रहती है, उनके लिए स्कूल ज़रूरी नहीं होते। बेटा… गांधी जी महान पैदा नहीं हुए थे, वे तो बहुत ही मामूली थे। बचपन में अंधेरे से डरना, चोरी करना..., सब किए थे वो…पर उन्होंने अपने आपको साधा…और आज अमर हैं!”
   मम्मी की इन बातों ने राहुल का हौसला बढ़ाया। अब वो ड्रेस, जूते-मोजे मैनर आदि को ताख पे रख दिया। राहुल बनकर पढ़ने पर ध्यान लगाना शुरू किया। कितना हूँ जोश भरता, पर क्लास  की एकाएक बढ़ी हुई अंग्रेज़ी के प्रोटीन को उसकी समझ की किडनी पूरी तरह सोख नहीं सकती थी। हिम्मते मर्दा, मद्दते ख़ुदा। गांधी जी के जोश का नतीज़ा यह हुआ कि वो अंग्रेज़ी के सारे पाठ्यक्रम को हिंदी की किताबों से समझता था। फिर उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद करके समझता। अंग्रेज़ी की पढ़ाई और कॉन्सेप्ट (अवधारणा) के दो किनारों के बीच का पुल अनुवाद था। अनुवाद उसका ब्रह्मास्त्र था, जिसको चलाने के लिए कमर तोड़ मेहनत का भुजबल भी उसके पास था। मगर अनुवादों के इस चक्कर में राहुल अपना कुछ खोता जा रहा था। वो था उसका सीखने की जगह पर केवल पास होने पर फ़ोकस। समस्या से जूझने के बजाय उससे बचने के उपाय पे बल। गहराई की जगह वो शॉर्टकट लेने लगा था। सीधा रास्ता चलने का समय भी तो होना चाहिए। अब एक ही चीज़ को क्लास में अच्छे से न समझ पाना! फिर उसी को हिंदी की किताब से समझना!! और अंत में उसका अनुवाद करके अंग्रेज़ी में!!! एक काम के लिए तेहरकम्मा!!!! हाल ये हुआ कि अब  राहुल नए आइडिया की बात ही नहीं करता। मानो उसने अपने छलांग लगाने वाले दिमाग़ को रेंगने के लिए छोड़ दिया हो। चरित्र और कौशल की जननी शिक्षा नम्बर पाने का साधन बनती जा रही थी।
   समय बीता। छमाही की परीक्षा दबे पाँव आई, पर परिणाम शोर मचा रहा था। इस बार क्लास में राहुल का कोई स्थान न था। आलम ये था कि अंग्रेज़ी में तो लाल स्याही लगने से बस रह भर गई! अब राहुल अपने पिता को क्या मुँह दिखता। पर सच से मुँह मोड़ा भी नहीं जा सकता था। पिता की नाराज़गी स्वाभाविक थी। थोड़ा-बहुत तो ठीक था, पर वो अव्वल आने वाले राहुल से ये उम्मीद नहीं किए थे। राज इंग्लिश स्कूल उनकी जेब से परे था। फिर भी अपने बेटे के चमकीले भविष्य के लिए हिम्मत जुटाई। वो रोज़ शाम अपनी किराने की दुकान बंद करके लोमैटो (LOMATO) के लिए खाने की डिलीवरी करते थे। लोमैटो के माध्यम से लोग घर बैठे खाना ऑर्डर कर सकते थे।  डिलीवरी बॉय , अरे नहीं, डिलीवरी मैन, की वेष-भूषा में तो उनके पड़ोसी तक उनको न पहचान पाए थे। कइयों बार तो सड़क पर खड़ी राह जोह रही राहुल की मम्मी के सामने से भी ब्रूम-ब्रूम करते गुज़र जाते थे। सिर पे हेलमेट और डिलीवरी मैन  की पोशाक में अगर मोटरबाइक वाला आवाज़ न निकाले तो अपने पति को भी पहचानना मुश्क़िल हो जाता है। उनको इतनी मेहनत करके भी राज इंग्लिश स्कूल का सपना टूटता हुआ नज़र आ रहा था। इस सपने में बेटे का भविष्य भी बिखरता हुआ दीख रहा था। इसलिए पिता को अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन ठीक से न कर पाने का डर भी था। बेटे पर वो खीज तो रहे थे, पर खीज से समस्या की जड़ थोड़े ही नहीं खोद सकते थे। दुकान के एक नए ग्राहक से अच्छा व्यवहार बनाने में उनको काफ़ी मेहनत करनी पड़ती थी। सालों लग जाते। इसलिए बदलाव में लगने वाले समय का अंदाज़ा था उनको। फिर गंगा के तैराक को अंग्रेज़ी के समुद्र में स्थाई होने में समय तो लगेगा ही। यह सोचकर राहुल के पापा ने अपनी मेहनत का बोझ राहुल के दिमाग़ पर नहीं डाला। वे इसका करण जानने राहुल के क्लासटीचर महोदय से मिलने का मन बनाए गए। मिलने का बुलावा स्कूल ने रिपोर्ट कार्ड के साथ भेजा ही था।
   राहुल के क्लासटीचर श्री पी॰एन॰ सर राहुल गतिविधियों पर पहले दिन से ही नज़र बनाए थे। उसकी क्लास में बढ़ती जा रही असहभागिता उनकी चिंता का कारण थी। राहुल के बिना बताए ही सर जी को पता था कि वो किन परिस्थितियों में हिंदी की नाव छोड़ अंग्रेज़ी की नाव पर सवार हो आया था। कभी-कभार वो उससे व्यक्तिगत रूप से भी क्लास के बाहर मिल लिया करते थे। जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। पी॰एन॰ सर भी इस मीडीयम के दर्द से गुज़र चुके थे। इसके घातक परिणाम से भी वो भली भाँति परिचित थे। इन परिणामों को वो चाहते तो राहुल के पिता को पहले ही बुलाकर बता सकते थे। मगर स्कूल मैनज्मेंट  इस प्रकार के अति व्यक्तिगत परामर्श की अनुमति नहीं देता था, क्योंकि कभी-कभी इससे स्कूल के वित्तीय हितों को घाटा हो जाता था। स्कूल से निकलकर बच्चे कंपनियों में काम करेंगे। वहाँ पर व्यवसायिकता ( प्रोफेशनलिज़म) वाला व्यवहार ही चलता है। राज इंग्लिश स्कूल के वातावरण में इसकी नींव रखी जाती थी। सबको भेड़ की तरह पढ़ाया जाता था। अपनी क्लास लीजिए, और घर चलते बनिए। उसमें पी॰एन॰ सर जैसे जी जान से पढ़ाने और भविष्य को बनाने को समर्पित लोग छटपटाकर रह जाते। एक दूसरा हिचक का कारण भी था। सर की बात को राहुल के अभिभावक अन्यथा भी ले सकते थे। बच्चे के भविष्य का निर्धारण माता-पिता करते हैं, और गुरु इसका निर्माण। पर हमारे यहाँ गुरु को यह श्रेय बस कथनी भर है, दुर्भाग्यवश करनी में नहीं है। बातचीत करने के इन तमाम अवरोधों को अध्यापक-अभिभावक मीटिंग ने दूर कर दी।
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पी.एन. सर एक टीचर के रूप में मिलेंगे या गुरुदेव के अवतार में? जानने के लिए पढ़ें 
'प्रभात' की खोज: भाग-३ 


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