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बादल ज़रूरी हैं
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बस मैं हूँ, नीचे। आकाश है, ऊपर। एकदम नीला। नील गगन। बादलों के बिना। धूल-धुओं से परे। दाग़ से दूर। काफ़ी देर तक शून्य होकर मैं उसको को ताकता रहा। निहारता रहा। फ़िर थोड़ी निरसता-सी लगी। तभी, बादलों का एक झुंड उमड़ता हुआ आया। लगा कि ये ठहरेंगे। सुनेंगे मुझे। इनको भी ताकूँगा। समझूँगा। कुछ सूरज को छिपाते, तो कुछ उसको झाँकने देते। कुछ किसी के इंतज़ार में ठहरे-से, तो कुछ होड़ में दौड़े-से। कुछ कपास की कला थे, तो कुछ दही के दाँव थे। फ़िर नए-नए बादलों को देखने में मन लगा रहा। कुछ मंडली के मेल थे, तो कुछ बैराग बिलगाव थे। कुछ एकांत में धुनि रमाए, तो कुछ साथ में खिचड़ी पकाए। सूरज कुछ को चमकाकर नाग-मणि बना दे, तो कुछ को नाग, तो कुछ को नाग पाश। लेकिन फिर सारे बादल लग रहा था, गोल-चक्कर पर घूम रहे थे। समरसता निरसता। फ़िर मैं उठके बैठा। पता चला, आकाश-कुएँ में मैं-मेंढक था। पेड़ भी थे अग़ल-बग़ल। झूम रहे थे। नाच रहे थे। जो दुबले थे, उनके लिए हवा तूफ़ान-सी। मानों, अभी जड़ छोड़ धरा धर लें। जो मज़बूत थे, तूफ़ान को तो...
श्री अरविंद सिंह सर को नमन
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जो कनइल को भी कमल बना दें पत्थर पर भी दूब जमवाँ दें। डूबते हुओं को भी उतिरवा दें , वो गुरु अरविंद हैं। जो निराशा में भी प्राण डाल दें , अचलों को भी धावक बना दें , दिशाओं को भी दिशा दिखा दें , वो गुरु अरविंद हैं। महानों का निर्माण करते हैं। शून्यता से निर्वाण देते हैं। फिर भी स्वयं शून्य बतलाते हैं। हीरे ख़ुद को हीरा कब कहलाते हैं ? जो भी माटी इनके चाक पे आ जाती है , माटी स्वयं को मानव बनता पाती है। गाँव से कोई फावड़ा - कुदाल जब आता है , उन पारस - पैरों ...
आत्मनिर्भर भारत और हिंदी
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मंच पर विराजमान सभी माताओं-बहनों और भाइयों को नवीन का नमन स्वीकार हो। आत्मनिर्भर भारत और हिंदी, ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हिंदी और हिंदी सभ्यता की मज़बूत नीव पर खड़ा भारत ही आत्मनिर्भर हो सकता है। और एक आत्मनिर्भर भारत में ही हिंदी अपना अस्तित्व क़ायम रख सकती है, और फल-फूल सकती है। तो सबसे पहले आते हैं आत्मनिर्भर भारत की ईमारत पर चढ़ने की सीढ़ी पर। आत्मनिर्भरता: बहुत सरल भाषा में अगर इसका मतलब समझना हो, तो ऐसा देश जो आर्थिक, सामाजिक रूप से स्वावलंबी हो। जिसकी भुजाओं में अपने सीमाओं की, अपने हितों की रक्षा करने का बल हो। जिस देश के लोग स्वयं तकनीकी रूप से इतने समर्थ हों कि देश की हर समस्या का समाधान निकाल सकें। देश की हर ज़रूरत का सटीक उपाय उस देश को जानने वाला ही निकाल सकता है। और यह जानकारी उस माटी के लाल से अधिक जैविक रूप से कोई नहीं रख सकता। मैंने जैविक इसलिए कहा क्योंकि किताबों में डूबकर ली गई जानकारी से पानी पी-पीकर लिया गया अनुभव अधिक प्रभावशाली होता है। पूरी अर्थव्यवस्था इसी सिद्धांत पर टिकी होती है, ऐसा उत्पाद बनाया जाए, ऐसी सेव...
रीढ़ की हड्डी
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इमारतें बहुत खड़ी किये , लेकिन कभी खड़े न हो सके, किसी के लिए, सच के लिए। मिठास की लत उनको कुछ यूँ लगी, कि कभी कुछ कह न सके, चाहे खटास खा लिये, चाहे मुँह की खा लिये। गुलाबों से आशिक़ी इस क़दर हुई, कि सूखे फूलों की माला सजाए रहे । चाहे ताज़े गेंदें के फूलों पे रहे खड़े। चाहे गुड़हल के फूल पड़े-पड़े सड़े। तूफ़ान पागल ने एक दिन बताया। अपना कुछ था ही नहीं उनके पास, लाज़ बचाने के लिए, आज़माने के लिए। चिता जला जाए जिसको, उसका कोई चरित्र ही न था, ज़माने को गाने के लिए, सबको गुनगुनाने के लिए। केंचुए माटी में भी निशाँ न बना सके, क्योंकि उनके पास रीढ़ की हड्डी न थी, स्मृति-शिला पे नाम गोदवाने के लिए, समय-समर में अमर होने के लिए।