रीढ़ की हड्डी
इमारतें बहुत खड़ी किये ,
लेकिन कभी खड़े न हो सके,
किसी के लिए,
सच के लिए।
मिठास की लत उनको कुछ यूँ लगी,
कि कभी कुछ कह न सके,
चाहे खटास खा लिये,
चाहे मुँह की खा लिये।
गुलाबों से आशिक़ी इस क़दर हुई,
कि सूखे फूलों की माला सजाए रहे ।
चाहे ताज़े गेंदें के फूलों पे रहे खड़े।
चाहे गुड़हल के फूल पड़े-पड़े सड़े।
तूफ़ान पागल ने एक दिन बताया।
अपना कुछ था ही नहीं उनके पास,
लाज़ बचाने के लिए,
आज़माने के लिए।
चिता जला जाए जिसको,
उसका कोई चरित्र ही न था,
ज़माने को गाने के लिए,
सबको गुनगुनाने के लिए।
केंचुए माटी में भी निशाँ न बना सके,
क्योंकि उनके पास रीढ़ की हड्डी न थी,
स्मृति-शिला पे नाम गोदवाने के लिए,
समय-समर में अमर होने के लिए।
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