बादल ज़रूरी हैं

 बस मैं हूँ, नीचे।

आकाश है, ऊपर। एकदम नीला। नील गगन। बादलों के बिना। धूल-धुओं से परे। दाग़ से दूर। काफ़ी देर तक शून्य होकर मैं उसको को ताकता रहा। निहारता रहा। 

Kashi-Krit


 फ़िर थोड़ी निरसता-सी लगी। 

तभी, बादलों का एक झुंड उमड़ता हुआ आया।

लगा कि ये ठहरेंगे। सुनेंगे मुझे।

इनको भी ताकूँगा। समझूँगा। 

कुछ सूरज को छिपाते, तो कुछ उसको झाँकने देते। 

कुछ किसी के इंतज़ार में ठहरे-से, तो कुछ होड़ में दौड़े-से। 

कुछ कपास की कला थे, तो कुछ दही के दाँव थे। 

फ़िर नए-नए बादलों को देखने में मन लगा रहा।

कुछ मंडली के मेल थे, तो कुछ बैराग बिलगाव थे।

कुछ एकांत में धुनि रमाए, तो कुछ साथ में खिचड़ी पकाए। 

सूरज कुछ को चमकाकर नाग-मणि बना दे, तो कुछ को नाग, तो कुछ को नाग पाश। 

लेकिन फिर सारे बादल लग रहा था, गोल-चक्कर पर घूम रहे थे।

समरसता निरसता।

फ़िर मैं उठके बैठा।

पता चला, आकाश-कुएँ में मैं-मेंढक था। 



पेड़ भी थे अग़ल-बग़ल।

झूम रहे थे।

नाच रहे थे।

जो दुबले थे, उनके लिए हवा तूफ़ान-सी।

मानों, अभी जड़ छोड़ धरा धर लें।

जो मज़बूत थे, तूफ़ान को तोड़ रहे थे।

मुस्कुराते हुए।

अभ्यस्त दिखे। मौज़ में कर रहे थे।

ये सब। फ़िर ऊपर देखा।

आसमान फ़िर नीला था।

बादलों से रहित।

निरसता ओढ़े।

लगा, बादलों का होना ही नीले गगन को रोमांचक बनाता है।


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