आत्मनिर्भर भारत और हिंदी

मंच पर विराजमान सभी माताओं-बहनों और भाइयों को नवीन का नमन स्वीकार हो। आत्मनिर्भर भारत और हिंदी, ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हिंदी और हिंदी सभ्यता की मज़बूत नीव पर खड़ा भारत ही आत्मनिर्भर हो सकता है। और एक आत्मनिर्भर भारत में ही हिंदी अपना अस्तित्व क़ायम रख सकती है, और फल-फूल सकती है।
तो सबसे पहले आते हैं आत्मनिर्भर भारत की ईमारत पर चढ़ने की सीढ़ी पर। आत्मनिर्भरता: बहुत सरल भाषा में अगर इसका मतलब समझना हो, तो ऐसा देश जो आर्थिक, सामाजिक रूप से स्वावलंबी हो।  जिसकी भुजाओं में अपने सीमाओं की, अपने हितों की रक्षा करने का बल हो। जिस देश के लोग स्वयं तकनीकी रूप से इतने समर्थ हों कि देश की हर समस्या का समाधान निकाल सकें। देश की हर ज़रूरत का सटीक उपाय उस देश को जानने वाला ही निकाल सकता है। और यह जानकारी उस माटी के लाल से अधिक जैविक रूप से कोई नहीं रख सकता। मैंने जैविक इसलिए कहा क्योंकि किताबों में डूबकर ली गई जानकारी से पानी पी-पीकर लिया गया अनुभव अधिक प्रभावशाली होता है। पूरी अर्थव्यवस्था इसी सिद्धांत पर टिकी होती है,  ऐसा उत्पाद बनाया जाए, ऐसी सेवा दी जाय, जो कि वहाँ के उपभोक्ताओं की ज़रूरतों को पूरी करती हो। इसके लिए वहाँ के निवासियों की रगों से अवगत होना पड़ता है। उनके दुःख-दर्द को समझना पड़ता है। अब elon मस्क, जो टेस्ला नामक इलेक्ट्रिक कार कम्पनी के ceo हैं, उनसे  अगर कोई पूछेगा कि भारत की यातायात समस्याओं का उपाय बताइए, तो वे बोलेंगे कि मेरी फ़लाँ कार का प्लांट लगवाइए। उनकी कारें कम से कम २० लाख से शुरु होती हैं। भारत की भीड़ को ये महँगी कारें ढो सकेंगी? नहीं। यहाँ का समाधान तो रतन टाटा जैसे लोग देंगे, जो मोटरसाइकल पर बारिश में भीगते हुए परिवार को छतरी वाली गाड़ी देने का सपना देखते हैं। भारत को nano की सौग़ात देते हैं। तो किसी भी समस्या का सटीक उपाय वहाँ के लोगों से बेहतर और कोई नहीं कर सकता। माइक्रसॉफ़्ट के वर्तमान CEO श्री सत्य Nadella ने अपनी आत्मकथा HIT Refresh में भी इसी बात पर बल दिया है। उन्होंने कहा कि सारी सरकारें चाहती हैं कि फ़लाँ अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी उनके देश में आए, व्यवसाय करे, रोज़गार दे। यह वहाँ की समस्याओं का अस्थाई ईलाज है। अगर बेरोज़गारी के चिर स्थाई उपाय ढूँढने हैं, तो स्थानीय लोगों को सक्षम बनाना चाहिए। ताकि वे स्थानीय समस्याओं के निदान के उद्देश्य से नए व्यवसाय शुरु करें, लोगों को रोज़गार दें। ऐसे उत्पाद, ऐसी सेवायें, जो अपने देश में बने, बिकें ताकि देश का पैसा देश में रहे, और यह पैसा अपने हर वित्तीय चक्र में भारत को और अधिक मज़बूत बनाता रहे। product of local, for Local, by local वाले मॉडल की ज़रूरत है।
    अब बात कि सक्षम कैसे बनाया जाए, और इसमें हिंदी की क्या भूमिका है? अगर कोई हिंदी को एक भाषा के रूप में समझने का प्रयास करेगा, तो समझना आसान नहीं होगा। अब कोई आदमी अमेरिका में पला-बढ़ा हो, उसने हिंदी एक भाषा के तौर पर सीखी हो, तो क्या वो आदमी भारत को आत्मनिर्भर बना सकता है? मरे हिसाब से नहीं, क्योंकि वो हिंदी भाषा को जानेगा, हिंदुस्तान की संस्कृति को नहीं। इसीलिए अपनी भाषा और हिंदुस्तान की मूल संस्कृति में सना हुआ भारतीय ही माँ भारती को अपने पैरों पर खड़ा कर सकता है। एक जन आंदोलन की ज़रूरत होगी, जिसमें सब लोग यही धुनी रमाए होंगे कि भारत को आत्मनिर्भर बनाना है। इसके लिए हमें जड़ों से काम करने की ज़रूरत होगी। कम-से-कम एक पीढ़ी को शुरू से शुरु करना पड़ेगा। इसके लिए इस संस्कृति को, इस भाषा को देश के बच्चों की रगों में शिक्षा के माध्यम से प्रवाहित करने की आवश्यकता है। जन-जन को एक समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तेज़ी से बदलते ज़माने की माँग है। इसके लिए उन विद्यालओं की जरूरत होगी, जहाँ से निकला हुआ बच्चा स्वयं आत्मनिर्भर होगा । उसकी जड़ें भारत की मूल संस्कृति की गहराई में गड़ी होंगी, साथ ही वो मंगल को छूने की चाह रखेगा। उसके हृदय में अपनी भाषा और संस्कृति के लिए सम्मान होगा। देश को आगे ले जाने की ललक होगी। तभी वह अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के बारे में सोच सकेगा। इससे पहले कि देश के बारे में सोचे, उसका स्वावलम्बी होना ज़रूरी होगा। नहीं तो वो रोटी जुटाने में ही व्यस्त रह जाएगा। आजकल समाज में जो अंग्रेज़ी के पीछे का पागलपन है, वो हम सबको पता है। अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों का बोलबाला इतना है कि हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले विद्यार्थी अपने देश में ही एक हीनभावना से ग्रसित हैं। मैं अंग्रेजी का विरोधी नहीं हूँ, लेकिन अंग्रेज़ी के साथ थोपी जाने वाली सभ्यता का पक्षधर भी नहीं हूँ।  ऐसी सभ्यता जो हमारी संस्कृति में हमारे विश्वास को कमज़ोर करती हो, हमें मानसिक ग़ुलामी से अधिक कुछ भी नहीं दे सकती।  स्वामी विवेकानंद जी ने अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों का इसीलिए विरोध किया था, क्योंकि वहाँ यह पढ़ाया जा रहा था- तुम असभ्य हो; मैले कुचले हो। आओ अंग्रेज़ी की गंगा में गोता लगाकर पवित्र हो जाओ। बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। चीन, जापान, दक्षिण कोरिया ऐसे देश हैं, जिन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति का सम्मान करते हुए विश्व में सम्मान पाया है।  हिंदी में कहते हैं 'माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। 'यह मूल भाव हमारी संस्कृति का है। इसका हम किसी और भाषा में अनुवाद करेंगे तो यह एक सार्थक वाक्य तो बनेगा, लेकिन भावविहीन। Mother and Motherland are even superior to heaven. जाकर किसी पश्चिमी देश में बोलिए, फिर देखिये। बहुत सारे लोग बोलेंगे कि बाक़वास बंद करो और हमें स्वर्ग ही दे दो। अतः अगर देश को वाक़ई में आत्मनिर्भर बनाना है, तो हिंदी-हिंदुस्तान की शिक्षा को जन-जन तक पहुँचाने का मैं आग्रह करना चाहूँगा।
    अब इसका दूसरा पहलू, आत्मनिर्भर भारत हिंदी और हमारी संस्कृति के फलने-फूलने के लिए कैसे सहायक होगा? जो लायक रहेगा, लोग उसी की सुनेंगे। एक स्वावलबी देश ही अपनी भाषा और संस्कृति का परचम फहरा सकता है। आज के इस वैश्विक दौर में, आप जर्मनी में जाइए, जर्मन सीखनी पड़ेगी; जापान में जाइए, कोरिया में जाइए, फ्रांस में जाइए। वहाँ बसने और काम करने के लिए उनकी भाषा सीखनी पड़ेगी। यही नहीं, इन देशों की कम्पनियाँ जहाँ जाती हैं, अपनी भाषा और संस्कृति का बस्ता साथ लिए जाती हैं। ताकतवर देश की भाषा स्वयं एक रोज़गार का अवसर प्रदान करती है। भारत में बहुत सारे विदेशी भाषाओं के संस्थान बहुत सारा पैसा बना रहे हैं। क्योंकि जिनको उस देश के साथ व्यवहार करना है, उनको भाषा सीखनी पड़ेगी। वही रास्ता है। एक तरफ जहाँ तेजी से वैश्वीकरण करण हो रहा है, वहीं उससे भी अधिक तेजी से दीवारे बनाई जा रही हैं। ऐसे में वसुधैव कुटुम्बकं का दीपक लेकर आत्मनिर्भर भारत ही तम के गर्त में डूबते विश्व को राह दिखा सकता है।
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आत्मनिर्भर भारत और हिंदी, प्रथम पुरस्कार, हिंदी साहित्य अकादमी,मुंबई/ Self-dependent India and Hindi, Winner at Hindi Sahitya Academy, Mumbai










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