वेबपाश: उपवास- इंटरनेट फ़ास्टिंग (भाग २/ अंतिम भाग )

भाग १ पढ़ें -वेबपाश: वो डरावना सपना 

भाग २:

बैंगलोर। दो बच्चे। अलका। अमर। तड़की सुबह

कुकुढू-कू....अलार्म बजा। अमर ने आहिस्ते से उसे बन्द कर बिस्तर को bye-bye किया। ठहरी हुई सुबह हुई। वैसे, हलचल वाली भी होती है। अलका को आश्चर्य हुआ कि आज अमर एक बार में कैसे उठ गया ! No Snooze!!  बाथरूम में आज अमर के साथ मोबाइल टूथपेस्ट के झाग नहीं चाट रहा था। नाश्ता कर लिया। Still no mobile! अलका के आश्चर्य का पैमाना तब छलका जब तीन-चार घण्टे बाद भी उसने मोबाइल को हाथ तक नहीं लगाया। अमर drawing रूम में सोफ़े पे लेटा था। आज तो सूरज पश्चिम से ही उगा था। अमर के सीने पे उसकी पुरानी माशूका थी! उपन्यास!! बड़े दिनों बाद वो ‘गुनाहों का देवता’ फिर पढ़ रहा था। कुछ सालों पहले किसी कम्पनी का इंटर्नेट सस्ता बनकर आया ।  उसकी सस्ताई ने क़ीमती समय को रद्दी बना दिया। किताब, खेल-कूद, हँसी-मज़ाक़, लूडो, ताश…सब बिखर गए। हर बात की शुरुआत अब मोबाइल से ही होती। ‘अरे तुम्हारे उस दोस्त ने ऐसा किया’;  ‘उसने ऐसा कॉमेंट किया’; ‘उसने लाइक नहीं किया’; ‘status में ये देखा’;  ‘मेरे B’Day पे status फलाने ने नहीं लगाया। Tweet, FB, Insta, Gmail इत्यादि…इन्हीं से ज़िंदगी शुरू, इन्हीं पे ख़त्म।

अलका को लगा कि अमर कल ज़रूर कोई काण्ड करके आया है, इसीलिए मोबाइल से दूर भाग रहा है। उसने अमर से व्यंग किया, 

“अमर ! आज तुम्हारे किसी FB दोस्त का BDay नहीं है क्या ? वो तुम्हारी wish की wait (प्रतीक्षा) कर रहे होंगे । यार, सुबह से कान तरस गए हैं। और देखो न…घर एकदम उदास है, WhatsaApp की एक भी घण्टी नहीं बजी। माना कि आज weekend (साप्ताहिक छुट्टी) है, पर तुम्हारे  चाहने वाले इतनी देर तो नहीं सोते !… फ़ोन तो ठीक है न?”

अमर, “ नहीं यार…बस ऐसे ही। तुम इतना उदास क्यों हो रही हो dear (प्रिये),... तुम्हारे WhatsApp पे तो बराबर notifications (अधिसूचनाएँ) आ रहे हैं.. सन्नाटा किधर है !”

अलका के चेहरे का सवालिया निशान मिटा नहीं। उसने पूछा, “ एकाएक तुम्हारे सब दोस्त तुमको भूल क्यों गए? कल कुछ हुआ क्या ?”

अमर, “ अरे नहीं यार…असली दोस्तों को सोशल मीडिया की ज़रूरत नहीं... वैसे मैंने अपने फ़ोन का इंटर्नेट बंद कर रखा है।”

अलका, “ …Internet बंद कर रखा है? But Why? what happened hubby … All is well?”

Internet बंद करने की बात सुनकर अलका ऐसे चौंकी, मानो अमर ने internet की दुनिया का आठवाँ अजूबा ढूँढ़ लिया हो ! 

अमर ने दिलासा देते हुए बोला, “ कुछ ख़ास नहीं है…. फिर कभी बताऊँगा।”

Internet बंद करना अलका को सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज जाने वाली बात लगी। फ़ोन से सुबह और रात करने वाला अमर एकाएक सन्यासी कब से हो गया ! अलका को अमर के फ़ोनीय चरित्र पे दाग़ की शंका हुई।  शक़ के तूफ़ानी घोड़े दौड़ने लगे। उसने सन्यासी अमर को उपन्यासी दुनिया में अकेले छोड़ दिया।  बेडरूम में जाकर उसने अमर की FB, Insta, Twitter सारे profiles खंगाल डाला। मगर बीते कल की कोई हरक़त न मिली। उसने समझा कि इन हरक़तों के निशान तो मिटाये भी जा सकते हैं। बहुत हरक़ती एकाएक चुप बैठ जाए, तो शक़ और भी गहरा हो जाता है। अलका ने अमर के दोस्तों को फ़ोन किया। घुमा-फिराकर सम्भावित कारणों को टोहना चाहा। कहीं कल ऑफ़िस वाले Pink Slip (नौक़री से बर्ख़ास्त करना)  दे दिए हों। शायद तभी तो वो बच्चों के साथ कल शाम को इतना मन लगा के खेल रहा था। जैसे उसके सिर से कोई बोझ उतर गया हो ! अमर के सिर का बोझ उतरना, यानी अलका के सिर पे बोझ चढ़ना। ज़िंदगी को बोझिल बनाने पे ऐसा ही होता है। इस बोझ के असंतुलित होने के डर तले आदमी जीता है। भगवान सबको बुद्ध का आत्मज्ञान करवाएँ-जैसे जीवन आए, वैसे जिया जाए। दुःख को रोके नहीं, सुख को खोजे नहीं। बस वक़्त की धार में बहता चला जाए। मगर अमर के सहकर्मियों से कोई विचित्र बात अलका के हाथ नहीं लगी। जैसे पति को दबोचने का मौक़ा अलका के हाथों फिसल गया हो। सीधे-सीधे अमर से ही पूछा जाए, ऐसी मंशा के साथ वो drawing रूम में आई। अमर वहाँ नहीं दिखा। जैसे आज अमर अमर नहीं तिलिस्म हो गया था ! बच्चों के बेडरूम से कुछ आवाज़ें आ रही थीं,  अमर बच्चों के रूम में था। अमर का बेटा, 

“ Dad, please leaves us alone,I have to finish homeworks.” 

अमर बच्चों के रूम में बिन बुलाए मेहमान की ख़ातिरदारी उठा रहा था। घर अपना, बच्चे अपने।  बावजूद इसके फ़ीलिंग (अनुभव) अजीब थी। उनकी privacy (निजता) में Dad की दख़ल बच्चों को बिलकुल रास नहीं आ रही थी। दोनों बच्चे अपने tablets में बिज़ी थे। अमर इस दूरी का कारण सोचने लगा। वो और अलका आपाधापी में इतने व्यस्त होते गए कि कभी बच्चों को उचित समय नहीं दे पाए । नतीजन, बच्चों के पास Mom-Dad के facetime से कहीं अधिक tablet का sacreentime था। अपने बीते पलों की समीक्षा एक जागृत आत्मा ही कर सकती है। इसी समीक्षा के साबुन से भविष्य निखरता है। अमर की आत्मा भी उस दिन लौ बनी थी। बच्चों के जीवन में उतरने के लिए समय और नए सिरे की ज़रूरत थी। किसी का जीवन रेलवे का प्लैटफ़ॉर्म नहीं है, जिसमें प्लैटफ़ॉर्म-टिकट ख़रीदकर जब मर्ज़ी आ-जा सकते हैं। दूसरे के दिल की ट्रेन अपने हाथों से बनाए प्लैटफ़ॉर्म से ही पकड़ी जा सकती है। एक महत्वपूर्ण बात और…यह प्लैटफ़ॉर्म रेडिमेड नहीं बिकता ! इसलिए अमर ने बच्चों को फ़िलहाल दुकेला छोड़ दिया।  वो रूम के बाहर drawing रूम में ‘गुनाहों का देवता’  के पास आ गया। अलका वहीं बैठी अपने फ़ोन में गोते खा रही थी। अमर भी सोफ़े पे बग़ल में आकर बैठ गया। अमर के आने की आहट अलका को नहीं हुई।  ख़ैर, घण्टे भर में Lunch का समय भी आ ही गया। टी॰वी॰ पे चुनाव की चर्चा चल रही थी। कौन बनेगा मुख्यमंत्री? पत्रकारिता के नाम पे चिल्लमचिल मची थी !  कोलाहल ही कंटेंट (विषयवस्तु) था। ख़बर लंगड़ी होती जा रही है, इसलिए अब ख़बर ठीक से चल भी नहीं पाती। अमर ने खाते वक़्त टी॰वी॰ की ओर अलका का ध्यान खींचते हुए बोला,

“ये बरसाती मेंढक की टर्टर वाली ख़बरें हैं। पहले चुनाव प्रचार छः महीने, साल भर होते थे। आजकल प्रचारों की नौक़री परमानेंट (स्थाई) हो गई है। चुनाव हो न हो, प्रचार हमेशा सोशल मीडिया पे चलते रहते हैं। पुराने ज़माने में बूथ कैप्चरिंग होती थी। वहाँ वोट कैप्चर (ज़ब्त) किए जाते थे, इस ज़माने में वोटर कैप्चर होते हैं। सोशल मीडिया पे ये कैप्चर करने वाले लोग झुण्ड बनाकर रहते हैं। ये लोगों का ब्रेन वाश (सोच परिवर्तन) करते हैं।  इसमें बूथ कैप्चरिंग से समय तो अधिक लगता है, मगर असर लम्बे समय तक रहता है। एक बार दिमाग़ में भ्रम को फ़िट कर दो, फिर वो निकाले नहीं निकलता। ऐसा दिमाग़, चुनाव में वहीं बटन दबाएगा, जिसकी कंडिशनिंग (प्रानुकूलन)  की गई होगी। ग़लत सूचना प्रसारण इन प्रचारकों का काम रहता है। ये ग़लत को इतना फैलाते हैं… इतना फैलाते हैं…”

“कि फैलकर वो सच बन जाता है।”  अलका ने साम्भर-चावल नारियल की चटनी के साथ खाते हुए वाक्य को पूरा कर दिया !

अमर, “ नहीं ! एकदम नहीं !! झूठ फैलाने वाले को लगता है कि वो success (सफल) पा लिया है, मगर झूठ को पता होता है…कि चाहे वो कितना हूँ फैले, फैलकर कभी सच नहीं बन सकता…”

अलका चौंकी, “ क्या बात है अमर ! ‘गुनाहों का देवता’ तो प्रेम कहानी है न..., तुम ये सब कहाँ से जान गए…?”

अमर, “हाहा…आँखें खोलोगी तो तुम भी जान जाओगी !”

खाना हो गया। अमर बड़ा रिलैक्स (राहत) महसूस कर रहा था। किताब पढ़ने से उसको पहले भी नींद अच्छी आया करती थी। रोज़ रात में क़िताब पढ़ते-पढ़ते वो गहरी नींद की बाहों में खो जाया करता था। पढ़ना योग की तरह होता है। जो दिमाग़ को केंद्र बिंदु दे  दे, वह योग का साधन है। दोपहर के भोजन और पढ़ने के दोहरे प्रभाव से अमर के खर्राटे शुरू हो गए। वो सोफ़े पे। मुँदी आँख। अधखुला मुख। ‘गुनाहों का देवता’  सीने पे।

दो घण्टे बाद अमर की आँख खुली। सिर बहुत हल्क़ा था। गर्दन में थोड़ी जकड़न थी। शायद सोफ़े पे ऊट-पटांग सोने से आई हो। या फिर मोबाइल देखने वाली position (मुद्रा) को गर्दन मिस (याद) कर रही हो ! फ़ोन से दूरी की वजह से उसकी आँखों की अकड़न ढीली हो गई थी। टाइपिंग न करने से हाथ की उंगलियाँ भी राहत में थीं। केहुनी भी काफ़ी खुल गई थी। फ़ोन को ढोने से सबसे अधिक जमाव केहुनी का ही रहता है। अमर को फ़ोन की कोई ज़रूरत न पड़ी। और न ही किसी और को अमर की फ़िक्र हुई। जबकि अमर ने फ़ोन का केवल इंटर्नेट बंद किया था, सामान्य कॉलें आ-जा सकती थीं।

रात हो चली। सोने का समय हो रहा था। हर मैसेज का तुरंत ज़वाब देने वाले अमर के मन में Whatsapp की उपयोगिता पे सवाल थे। पूरे दिन सोशल मीडिया में उलझे रहने वाले की सुधि किसी ने नहीं ली। यह बात उसको कचोट भी रही थी। इसका मतलब कि वो दिन भर सोशल मीडिया पे Time Pass (समय काटना) करता रहता है ! इसी क़सक के साथ वो सोने जा ही रहा था,... कि उसका फ़ोन बजा, "क्या बेटा, कॉल नहीं किए। तुम आज ऑनलाइन भी नहीं आए ! सब ठीक तो है न ?" अमर की मम्मी के फ़ोन ने कुछ पल पहले उपजी क़सक को कमज़ोर किया। फिर वो 'गुनाहों के देवता' के साथ घोड़ा बेचकर सो गया। अलका को यक़ीन नहीं हुआ कि अमर ने बिना इंटरनेट के दिन बिता दिया। अमर का  whatsapp में 'Last Seen' पिछले दिन का ही दिखा रहा था। इसका अर्थ था कि अमर ने शनिवार भर व्रत किया। इंटरनेट का व्रत ! यह तो अलका का आकलन था, असलियत के लिए सुबह तक धीरज की ज़रूरत थी।

  जीवन की एक और सुनहरी सुबह। अमर अपनी कल की दिनचर्या को दुहराता हुआ। लेकिन आज उसके Whatsapp पे धड़ाधड़ messages (संदेश) आए जा रहे थे। अमर के भीतर उनको रिप्लाई करने की पहले वाली अकुलाहट नदारद थी। नाश्ते की मेज पे अलका, 

"अमर, आज इंटरनेट यूज़ कर रहे हो क्या ? सुबह से नॉन स्टॉप फ़ोन बजे जा रहा है। लगता है कि कल का भी कोटा पूरा हो रहा है।"

अमर, "हाँ यार, मेड-इन-काशी' वाले ने 'इंटरनेट फास्टिंग' करने को कहा था !"

अलका, "काशी वाला बाबा भी बन गया है क्या ?...व्रत तो सुना था, लेकिन इंटरनेट का व्रत ...!!"

अमर, " हाँ, जैसे तुम अपने व्रतों का साइंटिफिक (वैज्ञानिक) कारण बताती हो,…मेटाबोलिज्म, पाचन तंत्र को आराम वग़ैरह...'इंटरनेट फ़ास्टिंग' भी वैसा ही है।"

"अब बाबा जी बन ही गए हो, तो प्रकाश डालते जाओ ! वैसे भी तुम्हारी शिक़ायत रहती है कि बोलने का मौक़ा नहीं मिलता। समझ लो आज मौक़ा ही मौक़ा है।" अलका ने तंज कसा। 

अमर, "हम इंटरनेट इन्फॉर्मेशन (सूचना) से इतने ओवरलोड (अति भारी) हो गए हैं कि दिमाग़ में भसड़ हो गई है। अब ये सही से चलता रहे, इसके लिए इसे भी आराम चाहिए। इंटरनेट का व्रत नए ज़माने में अनुकूलन का तरीक़ा है।" 

अलका, "अच्छा…अगर कोई एमर्जेन्सी कॉल करनी हो…तो ?"

अमर, "इंटरनेट के सहारे होने वाली कोई भी कॉल आपात में इस्तेमाल के लिए नहीं होती ! ये तो पता ही होगा ! यहाँ पर्पज़ (उद्देश्य) दिमाग़ को आराम देने का है, कुछ इंटरनेट की एमर्जेन्सी है तो लैपटॉप पे किया जा सकता है। और नहीं तो मोबाइल पे भी।  इतना हार्ड एंड फ़ास्ट नहीं है।  We have to use common sense.। ख़ुद को साधना है, सज़ा नहीं काटनी।”

अलका, "’आपात’, एकाएक इतनी हिंदी ! तुमको मेड-इन-काशी वाला वाक़ई में बिगाड़ रहा है। मैं तो नहीं रह पाऊँगी इंटरनेट के बिना।"

अमर, "गांधी जी के हिसाब से उनका जीवन ही उनका सन्देश था। चूंकि मैंने कल फ़ास्ट (व्रत) किया है, इसलिए मेरा बोलना बनता है। आदमी की इच्छा-शक्ति से पहाड़ के भी दो फाट हो गए थे। याद हैं, दशरथ माँझी ! दिमाग़ को बस साधने की ज़रूरत है, फिर ये घड़ी-घड़ी फ़ोन नहीं पूछता।"

फिर अमर को ध्यान आया कि क्यों नहीं वो मेड-इन-काशी वाला वह वीडियो ही चला दे, साथ में कुछ अच्छी चीज़ देखी जाए। उस वीडियो को दोनों ने साथ में देखा। कार्यक्रम के अंत में दस सवाल थे। अमर ने अलका को ईमानदारी से बताने के लिए बोला,  

  1. आप सुबह उठते ही सोशल मीडिया चेक करती (देखती) हैं? अलका, “हाँ। ये तो उठने के साथ की रस्म है !”
  2. आप एक घण्टे भी फ़ोन से दूर नहीं रह सकतीं? अलका, “हाँ।”
  3. देखने के लिए कुछ भी न हो, तो भी बेवजह घड़ी-घड़ी फ़ोन उठा लेती हैं? अलका, “ हाँ।”
  4. सोशल मीडिया पे लोगों के लाइक गिनती हैं? अलका, झिझककर,"हाँ।"
  5. Like कम होने पर दुःखी होती हैं? अलका, शर्माकर, “हाँ।”
  6. आप अपने से अधिक अपने डिजिटल अवतार को पसंद करती हो? अलका, “पता नहीं क्यूँ, पर हाँ।”
  7. आपको वास्तविकता में मिलने-जुलने वालों की तुलना में internet वाले लोग अधिक पसंद करते हैं? अलका, “हाँ, They are huge fan of me.”
  8. क्या आप चलते-चलते भी मोबाइल देखती हैं? अलका, “हाँ।”
  9. आपको ऑनलाइन लोग वास्तविक लोगों से अधिक अच्छे लगते हैं? अलका, “हाँ।”  अलका इस मशीनी बदलाव की अनचाही ओर को तलाश ही कर रही थी कि अमर ने अगला सवाल चला दिया। और बोला कि सोच-सम्भल के उत्तर देना। बहुत ही महत्वपूर्ण है... 
  10. आप एक दिन के लिए अपने मोबाइल का internet बंद रख सकती हैं? अलका, ज़ोर से, “नहीं बाबा, एकदम नहीं NO !”

कार्यक्रम के अंत में दिखाया कि अगर ऊपर के पाँच या उससे अधिक प्रश्नों के ज़वाब में ‘हाँ’ है और साथ ही अंतिम सवाल पे ‘नहीं’ है, तो आपको गम्भीर समस्या है। आप कठपुतली बन चुके हैं। आपको मनोरोग विशेषज्ञ से मिलने की ज़रूरत है। आपकी अपने पर पकड़ कमज़ोर होती जा रही है। वही चिकित्सक इस सोशल मीडिया की अफ़ीम से नशा-मुक्ति दिला सकते हैं। अगर ऐसा करने से बचना है, तो अंतिम प्रश्न को जीना पड़ेगा। वही प्रायश्चित होगा। मतलब एक दिन की इंटर्नेट फ़ास्टिंग रखकर ख़ुद को आज़माना पड़ेगा। 

“ क्या बक़वास कर रहा है ये ! मनोरोगी बता रहा है !! अरे, मैं अपने समय का अच्छा इस्तेमाल करती हूँ। मेरी कितनी अच्छी सोसाइटी है। मार्केटिंग कनेक्शंस (जुड़ाव) से ही चलती है। ये इंटरनेट के बिना कैसे सम्भव है ! I have to be on the top of the things, without internet how can I do this (मुझे सब चीज़ों की जानकारी रखनी पड़ती है, इंटरनेट के बिना मैं ये सब कैसे कर सकती हूँ ! ” गुस्से से लाल अलका ने चैनल की तीखी निंदा की, सुर्ख़ मिर्च जैसी तीखी! साथ में उसने अपना बचाव भी किया। 

“ ऐसे भी क्या कनेक्शन Dear कि पल भर की दूरी से कट जाए ! जैसे पल की दूरी छूरी हो गई हो !!" अमर ने कसकर तंज कसा, और चैलेंज (चुनौती) किया,  "अगर डॉक्टर के पास नहीं जाना है, तो कल रखो फ़ास्ट ! और लो अपने आत्म संयम की अग्नि परीक्षा। भरोसा रखो,  experience से बता रहा हूँ, अच्छा लगेगा।  तुम हो, ऐसा बहुत सालों बाद लगेगा। ये फ़ास्ट दिमाग़ को तेज़ और आत्म-संयम को मज़बूत करेगा।”

अलका सोचने पे मज़बूर हो गई। खुशनुमा माहौल गम्भीरता का लबादा ओढ़ लिया। उसको एक दिन की  इंटर्नेट फ़ास्टिंग, पागलों के डॉक्टर के पास जाने से आसान लगी। यदि पड़ोसियों को भनक भी लगी कि वो मनोरोग डॉक्टर के यहाँ होकर आई है, तो वे उसे पागल ठहरा देंगे।  अलका ने अगले दिन ही ये व्रत करने का निश्चय किया। कहते हैं संकल्प से सिद्धि। ठान लिया,तो हो लिया। अलका ऑफ़िस गई। मगर उसने देखा कि उसको मोबाइल के इंटर्नेट की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी। संयोगवश, उस शाम को कोई ऑफ़िस की कॉल भी नहीं थी। जो होगा, अगले दिन देखा जाएगा, ये सोचकर उसने मोबाइल में ऑफ़िस का ईमेल भी नहीं चेक किया। ओहदा कितना हूँ ऊँचा हो, नौक़री नौक़री ही होती है। नौक़री जीने का साधन है, पर परिवार जीने का कारण है। जब कारण न रहेगा, तो साधन रहकर भी क्या करेगा। ऑफ़िस से आने के बाद उसने भी पूरा समय बच्चों के साथ गुज़ारना चाहा। लेकिन बहुत सफल नहीं हो पाई। बचा-खुचा समय अमर के साथ गप-शप में चला गया। आज dinner में खाने का स्वाद लेने वाले दो लोग थे-अलका और अमर। मेड का बनाया खाना भी बुरा नहीं था। उसने मन से बनाया होगा। मेड अपने काम में वफ़ादार थी। 

  अच्छी चीज़ किसे अच्छी नहीं लगती। घर में इंटर्नेट फ़ास्टिंग अब अक़्सर होने लगी। रिवाज़ बन गया। बिलकुल अलका के साप्ताहिक व्रतों की तरह। दोनों, साथ-साथ। समय बीतने पे दोनों नौ-नौ दिन वाला भी कर ले जाते थे। अपार्टमेंट में लोग पिछड़ा मानने लगे। लेकिन व्रत चखने पे उनको भी चस्का लगता गया। ज़माना दिखावे की दुनिया से ऊबते जा रहे थे। सबको अहसास हुआ कि दुनिया आज भी वर्चुअल (virtual) की नहीं, असल की ही है। जीवन साम्भर-राइस है, और इंटरनेट चटनी! वर्चुअल की माया सतही समाज बनाती है। यहाँ तथाकथित दोस्तों की तादात अनगिनत है, पर कंधे गिनती के भी नहीं। यहाँ हर कोई अपनी तस्वीर से नाखुश है। तस्वीर में मिलावट है। आदमी की तासीर में गिरावट है। अपने ख़िलाफ़ छुपी कड़वाहट है। यहाँ इमोटिकॉन उड़ेले तो जाते हैं, पर emotions झलकते तक नहीं। सोशल मीडिया के इस विशाल समंदर में पसराव तो है, पर यह हमारी सोच को संकीर्ण नदी बनाता जा रहा है। इस नदी में उदारता का अकाल है। इस अकाल में संकीर्ण सोच को बूँद-बूँद सींचा जाता है। किसी के ख़िलाफ़ कड़वा बोलने में दस दफ़े सोचने वाला, आज चुटकी में डंक मार देता है।इसका विष संक्रामक है। आदमी इस विष का संवाहक भी है और संहारक भी। अच्छे के लिए तो विज्ञान ने परमाणु बम इजात किया, लेकिन इस्तेमाल विनाश की धमकी में हो रहा है। सोशल मीडिया का भी यही हाल है। जब तक यह जोड़ता है, तभी तक ठीक है। बाक़ी समाज का लोकतंत्र है। उसको ही चुनना है-असल या वर्चुअल; उपभोक्ता या उत्पाद; शहंशाह या ग़ुलाम ?

-काशी की क़लम 

🙏

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 🙏क्या आप इंटरनेट फ़ास्टिंग  कर सकते हैं ? यदि हाँ, तो कृपया अनुभव साझा करें 🙏

टिप्पणियाँ

  1. "हाँ यार, मेड-इन-काशी' वाले ने 'इंटरनेट फास्टिंग' करने को कहा था !"...

    ... एक अनुभवी और मझे हुए लेखक की नसीहत पर अमल करना तो बनता है. समसामयिक Corona की night curfew अथवा weekend curfew जैसे प्रयोजन इंसान को वेबपास 🕸 के मकड़जाल से मुक्ति दिलाने में सहायता देने योग्य उपाय हैं. जिन्हें अमल में लाया जा सकता है.

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