वेबपाश: वो डरावना सपना ! (भाग १। कुल २ भाग)

 भारत की सूचना तकनीकी की राजधानी बेंगलुरु। ख़ूबसूरत Garden City। पढ़ा-लिखा। आदमी हो, तो बेंगलुरु के मौसम-सा: एकरस-सुहावन-मनलुभावन। पहली बार अमर जब वहाँ गया था, तो बस वाले कंडक्टर की अंग्रेज़ी पे दंग रह गया था, क्योंकि उसकी अंग्रेज़ी तंग रह थी।   अमर मोबाइल की नींद ही आँखें खोलता, मोबाइल की नींद ही सोता है। बीच में दिन भर कम्प्यूटर पे कोडिंग करता। कोडिंग करना कोई यान्त्रिक (मकैनिकल) काम नहीं है, इसमें दिमाग़ के घोड़े को लग़ातर तर्क़ के पथ पर भगाना पड़ता है। ये घोड़ा शाम तक हाँफने लगता है। घर में पत्नी अलका और दो बच्चे हैं। शाम को दफ़्तर से आने के बाद, परिवार के साथ समय बिताना तो अब जैसे इतिहास बन चुका है। अलका भी अमर का परिवार चलाने में ख़ूब साथ देती। वो अब हाउस वाइफ़ (गृहणी) की चौख़ट लाँघ चुकी है। वो बहुराष्ट्रीय कम्पनी (एम॰एन॰सी॰) में मार्केटिंग के ऊँचे ओहदे पे क़ाबिज़ है। बेटा पाँचवी और बेटी तीसरी में एक अंतर्राष्ट्रीय स्कूल भविष्य सँवार रहे हैं। बच्चों को अच्छा पढ़ाने के लिए माँ-बाप एक-दूसरे के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर काम कर रहे हैं। बच्चे कब बड़े हुए, एलबम खोलने पे ये सवाल मानो हर तस्वीर करती हो ! हिंदी भाषी माता-पिता के बच्चे कन्नड़ में भी बात-चीत करने लगे हैं। दरअसल, वे हिंदी-अंग्रेज़ी भी बेंगलुरु वासी की तरह ही बोलते हैं। इसकी वजह जानने की फुर्सत मम्मी-पापा को कभी मिली नहीं। बच्चे जब तक समझने लायक़ नहीं हुए, बेबी सिटर ( baby sitter-आया) को ही अपनी माँ समझते रहे। जन्म देने वाले माँ-बाप को बच्चों पे अपने आपको थोपना पड़ा। माँ-बाप का रिश्ता पैदाइशी से कहीं अधिक सफ़र में जुड़ाव का होता है। इस जुड़ाव को कमाने में उम्र पसीना छोड़ती है, जज़्बात खपते हैं और अपनी पसंद आहुत होती है। यह कोई संवैधानिक ओहदा नहीं कि जिसे नोट देकर या वोट पाकर क़ाबिज़ किया जा सके। इसलिए बच्चों की देखभाल के लिए बेबी सिटर को वेतन मात्र देने वाले माँ-बाप की पदवी भी संविधान की तरह काग़ज़ी होती जा रही है। फिर दूर सफ़र में एक सवाल उठ खड़ा होता है-कमी कहाँ रह गई?

  विद्यालय। मेहरबानी बच्चों के अधिकार और यातनाओं के विरुद्ध लड़ाई लड़ने वालों की। पुराने ज़माने के भारी-भरकम बस्ते की जगह टैब्लेट ( tablet ) ने ले ली है। किताबों और पन्नों की दुनियाँ तो इतिहास का हिस्सा बन चुकी है। इस नई परम्परा का भविष्य को ख़तरा भी है ! टैब्लेट में क़ैद इतिहास को, संस्कृति को, वजूद इत्यादि को अपने मन माफ़िक छेड़ने का ख़तरा अनायास ही उपजता है। पुराने दौर में इतिहास को ढहाने के लिए किताबों, पुस्तकालयों, अभिलेखों को खोजना, जलाना, फाड़ना पड़ता था। फिर दरबारी इतिहासकार वेतन लेकर इतिहास लिखते थे। ये सारे काम असम्भव तो नहीं, पर आसान भी नहीं थे।  अब के कम्प्यूटर में महफ़ूज़ पन्नों तक पहुँचने के लिए एक नापाक हैकिंग (hacking) की सेंध ही काफ़ी होगी !

   ख़ैर, अमर के परिवार में अभी भी अपनी परम्पराओं के कुछ अंश बाक़ी हैं। डाइनिंग टेबल (खाना खाने की मेज) पे शाम को सभी एक साथ खाना खाते हैं। A family that eats together, stays together. जो परिवार साथ में खाना खाता है, हमेशा साथ रहता है। एक साथ खाना खाने के कई फ़ायदे हैं। सबका दिन कैसा रहा ? किसी सदस्य का खोया-खोया खाना खाना, मतलब कि दिमाग़ में कोई गहरी घुसपैठ हुई है। अगर कोई किसी से नज़रे चुरा रहा है, मतलब कुछ अनबन हुई है। इस दरार को खाई बनने से पहले ही भरने की ज़रूरत है। कौन किसपे तंज कस रहा है ? तंज किसी को रंज तो नहीं न कर रहा है ! सास-बहू की कुर्सियों की क़रीबी, उनके सम्बंधों की क़रीबी होती है। साथ में खाते वक़्त सबके चेहरे दूसरों के लिए एक खुली छायाचित्र वाली किताब जैसे होते हैं, जिसमें सबके उस दिन की छाप छपी होती है।  बस ज़रूरत होती है एक पारखी नज़र की। अमर के घर में भी सब एक साथ मेज पे बैठते हैं। लेकिन उनकी नज़रों में एक-दूसरे के चेहरों के बजाय अपने-अपने स्मार्ट्फ़ोन होते हैं। बच्चों के भी! खाते समय कोई समाचार देख रहा होता है; कोई फ़ेकबुक-इंस्टाग्राम (FakeBook-Instagram); बच्चे ‘पेप्पा पिग’ और ‘मिकी माउस’ की दुनिया की सैर कर रहे होते हैं। खाने में नमक का मिजाज़ किसी को पता नहीं। खाना, जिसके लिए सब जद्दोजहद है, उसका ऐसा तिरस्कार ! यह तो दसों हज़ारों साल पहले खेती की खोज करने वाले अपने पूर्वजों का निरादर है ! बेसुधी का आलम यूँ कि खाने का स्वाद तक न तो कोई ले पाता है और न ही दे पाता है ! स्वाद खाने का नहीं होता, खाना बनाने वाले के प्यार का होता है। खाने वाले के बनाने वाले के प्रति प्यार का भी होता है। स्वाद से भी ऊपर, सबसे ऊपर है भूख की अकुलाहट। भूख की जीभ नहीं होती, बस होती है आँत की दहकती भट्टी ! भूख इस भट्टी में कुछ डालकर अपने लिए शरीर को चलायमान रखना चाहती है। भूख को हम स्वार्थी कह सकते हैं। अमर के यहाँ स्वाद सुनने वाली या वाला भी तो नहीं रहती है। मेड (Maid), रसोई में उसी की नौक़री है। वो रात में रुकती नहीं है, उसका भी अपना परिवार है, जो साथ में खाने पे जोहता है, और भरपूर स्वाद भी लेता-देता है।

  क्या करें, आजकल खाने बाद सोना भी तो पड़ता है ! ये स्मार्टफ़ोन बेडरूम में भी ख़ूब साथ देते हैं। बच्चे, दादी-नानी से कहानियाँ नहीं, अब गेम और पसंदीदे कार्टून देखते हुए सोते हैं।  अलका, बड़ी कम्पनी के ऊँचे ओहदे पे होने के कारण आँख मुँद जाने तक बार-बार ईमेल बॉक्स पे पहरा देती है।  अमर, सोने से ठीक पहले दिनचर्या की आख़िरी मंज़िल पे था, मेड-इन-काशी  पे कार्यक्रम ‘क़िस्से ज़िंदगी के’ देखना। आज के कार्यक्रम में:

“एक बार शेर और आदमी में घमासान हुआ ! बताइए कौन जीता? शेर… ? वो तो अपने कटारी जैसे दातों और पैने नाखूनों से आदमी को चीर-फाड़ डाला होगा ! जी नहीं ! ये दौर पुराना नहीं था। ये आज का दौर है, जब धरती से ऊबा हुआ आदमी दूसरे ग्रहों पे जीवन खोज रहा है। शेर आदमी के हाथ में बंदूक़ देख दूर से ही उलटे पाँव हो लिया। वही, नौ दो ग्यारह!  उसने मरने बाद अपने परिवार वालों के शरीर के साथ होने वाले हश्र को देखा था। अब शेर आदमी से नहीं उलझता ! अपने पर्यावरण के साथ ताल-मेल बैठाने में सभी जीवों की जमात में आदमी अव्वल रहा है। आदमी के दूसरी प्रजातियों पे राज कर पाने की क़ाबिलियतों में सबसे अहम भूमिका रही है- अपने को निरंतर निखारते रहने की। नई-नई युक्तियों से अपने को जीवित और सुरक्षित रखने की। दूसरे जंतुओं की तुलना में सूचना का स्पष्ट आदान-प्रदान भी आदमी की धरती पे राज करने का उपयोगी यंत्र है। सूचना का आदान-प्रदान, पहले चित्रों के माध्यम से शुरू हुआ। फिर डाक आई, चिट्ठियाँ लेकर। फिर ग्राहम बेल आए, टेलिफ़ोन की बेल लेकर। अफ़सोस,  ये चल नहीं सकता था। मगर ज़माना चलता रहा। चलने वाला टेलिफ़ोन आया-मोबाइल फ़ोन। और जब यह अधिक चालाक हुआ तो जन्म लिया स्मार्टफ़ोन ने। इसने तो सूचना के आदान-प्रदान और प्रसार में क्रांति ही ला दी। internet और Phone का विवाह हुआ और smartphone पैदा हुआ। ये लोगों के जीवन में bullet train थी …फिर अच्छे मंशे से social media आया। लोगों को जोड़ने। फिर इस नई सोशल मीडिया की society ने असल society को cannibalize (अपने ही प्रजाति का भक्षण) करना शुरु कर दिया। धीरे-धीरे दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बनते गए। इंटर्नेट पे क्रीम पाउडर अधिक था, लोगों का झुकाव Virtual society में बढ़ने लगा। हर नई चीज़ का शुरुआती दौर आकर्षण का होता है। फिर अनुकूलन का होता है। अगर चीज़ में दम नहीं है, तो उसका अंत ऊबन से होता है। देखिए…”

फ़ोन में यू ट्यूब पे कार्यक्रम चलता रहा… पर अमर की बैटरी ख़त्म हो गई। आँख लग गई।  खर्राटों ने अलका की रात में चलने वाली कॉल में दम कर दिया। आदमी मेहनत करे, न करे परन्तु वैश्वीकरण ने सबका रात-दिन एक कर ही दिया है। 


सुबह हुई। एक अजीब-सी सुबह ! फ़ोन में अलार्म की घण्टी सुनते ही SNOOZE बटन दबाकर, बिस्तर में कछुए की तरह दुबक जाने वाले अमर के हाथ काँप रहे थे ! हाथ न हो, जैसे मोबाइल का वायब्रेशन मॉड हो !! कम्पन करते हाथ फ़ोन के पास पहुँचते, पीछे हटते, फिर पहुँचने की कोशिश करते और बिना छुए ही लौट आते ! लगातार घण्टी के बजने से अलका भी उठी। अलका, बड़बड़ाते हुए, “क्या यार, चैन से सोने भी नहीं देते… बंद कर दो प्लीज़…” अमर सुन्न होकर बैठा रहा !  जैसे उसने रात में कोई भयावह सपना देखा हो, और जगने के बाद भी वास्तविक और सपने की दुनिया के बीच त्रिशंकु बना हो। मानो, अमर फ़र्क़ करने की क्षमता को खो चुका हो। आख़िर में अलका को ही अलार्म बंद करना पड़ा।

 दिन चला। बच्चे स्कूल चले। अब अलका-अमर को ऑफ़िस चलना था। घर से ऑफ़िस निकलने तक अलका ने देखा कि अमर कुछ अजीब व्यवहार कर रहा है। फ़ोन से उनकी वो दूरी ! आख़िर ऐसी क्या थी मजबूरी? WhatsApp के उन संदेशों का क्या, जिनको अलार्म के बंद करने के साथ ही वो पढ़ा करता था। Facebook का वो डाकिया। उसके जन्मदिन नोटिफ़िकेशन, FB फ़्रेंड को सबसे पहली शुभकामना अमर की ही होती थी, मगर कभी उन दोस्तों के साथ वो बात तक नहीं करता था। कितने तो ऐसे थे, जिनको वो जनता तक नहीं था। उनके बारे में बताने के लिए दोस्त-के-दोस्त-के-दोस्त का परिचय बताता था।  Twitter के फ़र्ज़ी ट्रेण्ड, Instagram की फ़िल्टर वाली तस्वीरें…ये सब भी अमर का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। घर से निकलते समय अमर ने मोबाइल को जेब में भर लिया। मोबाइल को देखा तो एकदम नहीं ! 

ऑफ़िस पहुँचकर भी अमर खोया-खोया था। मोबाइल ही नहीं, वो तो अपना कम्प्यूटर इस्तेमाल करने से भी झिझक रहा था। वो अपने रात के सपने की धुंधली तस्वीरों को याद करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। लेकिन उसने कोशिश नहीं छोड़ी। सपने की धुंध में उसने झाँका। वो सपना उसकी आँखों के सामने चलचित्र की भाँति चलने लगा और अमर उसी में डूब गया। अदब से शुरु होने वाला , वो भयावह सपना…

  सुबह का वक़्त। उसके घर बहुत सारे मेहमान आए हुए हैं! बिन बुलाए!! वो उनको ठीक-से पहचान भी नहीं रहा था। लेकिन वो सारे लोग अमर को अच्छी तरह पहचान रहे थे। सारे लोग दरवाज़े के खुलते ही सीधे घर में घुस गए। ‘अतिथि देवो भवः’ का संस्कार अमर को सपने में भी भुलाया नहीं गया। सभी आगंतुकों का सेवा-सत्कार करते हुए उसने चाय-पानी कराया। घण्टे बीतने पर खाना भी खिलाया। बहुत देर तक इंतज़ार करने पे भी वे लोग अपनी तशरीफ़ टिकाकर बैठे रहे। जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे! उनके इस व्यवहार पे अमर को एक कहावत याद आ रही थी, ‘घर आया हुआ अगर तीन घण्टे से कम रहे तो मेहमान, नहीं तो बेइमान!’  (असल कहावत तीन दिन की है)। देखते-देखते शाम का समय हो गया और मेहमानों ने शाम की भी चाय उठा ही ली। बिना मन के बनाया गया रात का खाना भी उन्होंने खा ही लिया। झख मारकर अंत में अमर ने उनसे जाने के लिए आदरपूर्वक, घुमाकर बोला, “ अब हमारे सोने का समय हो रहा है…आपके घरवाले भी इंतज़ार कर रहे होंगे। तो…”

   इस पर उनमें से एक ने कहा, “ अरे हम तो यहीं रहते हैं, तुम्हारे साथ !”

मेहमान नवाज़ी करने वाले अमर को यह बेहूदगी क़तई पसंद नहीं आई। उसने पूछा कि ये क्या मज़ाक़ है? जान न पहचान, मैं तेरा मेहमान! अमर ने प्लॉट पे क़ब्ज़ा करने वाले लोगों के बारे में तो सुना था, पर ये तो घऔर पूरे परिवार पे क़ब्ज़ा था। कल को वो कहते कि अलका उनकी पत्नी है। ये नए ज़माने के क़ब्ज़ेदार लग रहे थे। ये सब सोचकर अमर आक्रांत हो गया। भड़क उठा। ज्वाला-सा धधक उठा। आँख में अंगारे। ज़बान से ज्वालामुखी जन्मने लगा। अमर ने हूंकार भरा, “इज़्ज़त से निकलिए। नहीं तो…”

इतने में सूट-बूट कसे हुए जेंटलमेन मेहमान काँप उठे। वो एक-दूसरे के पास आकर आपस में गुफ़्तगू करने लगे। फिर एक ने बोला, “आपका मोबाइल हमने देखा है। आप कौन-कौन-सा ऐप (App) इस्तेमाल करते हैं… कितना, कब, कैसे करते हैं, सब हमें पता है…”

अमर, “ मेरा मोबाइल तो मेरे पास है, ये क्या फ़ालतू फेंके जा रहे हैं !”

दूसरे सज्जन, “ अमर! आपने अपने जीवन की किताब ख़ुद खोलकर हमें सौंप दी है। आपके मोबाइल में क्या है, हमें सब पता है। प्राइवसी अग्रीमेंट… पढ़ा ही होगा!”

अमर, झल्लाकर, “ कैसा अग्रीमेंट? मैंने तो अपने घर का भी अग्रीमेंट ठीक-से नहीं पढ़ा। ये सब बक़वास नहीं सुनूँगा। निकलिये यहाँ से…”

गोरे रंग, ताड़-से लम्बे क़द वाले, राखी रंग की टीशर्ट और नीली जींस पहने एक सज्जन, “इनके मोबाइल में सबसे अधिक App मेरी company के हैं। कुल मिलाकर स्क्रीन टाइम भी मेरा ही अधिक है…इसलिए  शरीर को दिशा देने वाले ब्रेन (दिमाग़) पे सबसे पहला हक़ मेरा है…”

एक और दुबले-पतले, छरहरे क़द-काठी के महाशय, मुस्कुराते हुए, “चाहे भले ही आपका स्क्रीन टाइम अधिक हो, मगर कुछ भी ढूढ़ने के लिए ये मेरा ही इस्तेमाल करते हैं, इसलिए क्वालिटी (गुणवत्ता) और वैल्यू (महत्ता) के हिसाब से इनके दिमाग़ पे पहला अधिकार मेरा है।” 

अमर, “ रूकिए! ये क्या अधिकार-अधिकार लगा रख्खा है? मैं किसी की प्रॉपर्टी नहीं हूँ ! स्मार्ट्फ़ोन से मैंने ऐसा क्या गुनाह किया है? मैं इंटर्नेट इस्तेमाल करता हूँ। इससे मेरा जीवन आसान हुआ है। घर बैठे मैं बहुत सारे काम चुटकी में निपटा सकता हूँ। अख़बार न मँगवाकर मैंने ऐप पे न्यूज़ पढ़ना शुरू किया, इन्वायरॉन्मेंट (पर्यावरण) रक्षक हूँ मैं, You Know Go Green? बैंगलोर में रहकर भी काशी में अपने माता-पिता को विडीओ कॉल पे देख सकता हूँ। इसमें क्या गुनाह है? जब मर्ज़ी दुनिया का समाचार ले सकता हूँ। अपने इन्वेस्टमेंट को मुनाफ़ा दिला सकता हूँ। इंटर्नेट और स्मार्टफ़ोन ने दुनिया को एक global village बना दिया है। एक की दूसरे से दूसरे के बीच अब बस एक क्लिक का फ़ासला है। इसके ज़रिये मैं कमज़ोर लोगों की आर्थिक-सामाजिक मदद कर सकता हूँ।…और कितने फ़ायदे गिनाऊँ…कि ये फ़ोइस्तेमाल करके मैंने कोई गुनाह नहीं किया। मैंने दुनिया और समाज का भला ही किया है।” 

एक पल के लिए सारे मेहमान सहम गए ! वो बात तो ठीक कर रहा था। तब फिर ये छीना-झपटी क्यूँ? उन्होंने एक-दूसरे का चेहरा देखा और फिर बोलने लगे, ये मेरा कम देखता है, मेरा अधिक देखे। ये हमारे आपसी प्रतिद्वंद की लड़ाई है। हमें और देखो… नहीं हमारा देखो…”

अमर, “अरे! मुझे जिसकी ज़रूरत रहेगी, उसी चीज़ को न देखूँगा। Rights to Privacy & choice.”

एक ने किसी सामान बेचने वाले मेहमान की ओर इशारा करते हुए बोला, “ यहाँ कुछ लोग तुम्हारे बेडरूम की का भी हिसाब रखते हैं ! भाई, सब खोल दोगे और privacy की बात करोगे? this is paradox.( ये विरोधाभास है)”

सब हँसने लगे,  ठहाके लगा लगाकर। उनमें से एक आवाज़ आई, “जानी ! हम तुम्हारे क्लिक-क्लिक की ख़बर रखते हैं।”

एक मेहमान ने बोला…, नहीं-नहीं!! भाषण ही दे डाला, “भाई ! इसमें आपकी ग़लती नहीं है। सबसे पहले आप आते तो अच्छे इरादे से हो। काम की चीज़ों के लिए। फिर हम तुम्हारे स्वाद का अंदाज़ा लगाते हैं।  और तुमको परोसने लगते हैं। और अधिक परोसने लगते हैं।  इसमें अब हम अपनी तरफ़ से भी कुछ-कुछ मिलाकर परोसते हैं। फिर एक समय ऐसा आता है, जब हमें तुम्हारे स्वाद का अच्छा-ख़ासा अंदाज़ा हो जाता है। ये वो समय होता है, जब तुम हमारे परोसे हुए में और अपनी असल पसंद में फ़र्क़ करना भूल जाते हो। उसका अगला चरण होता है, हम अपने मनमाना झोंकने लगते हैं…”

दूसरे खिसियाए हुए महोदय, “… अरे इतना समझाने की क्या ज़रूरत है ? Keep it simpler buddy… पहले हम भाँपते हैं, फिर नापते हैं, फिर चाँपते हैं। तुम उपभोक्ता (customer) से शुरु किए थे, लेकिन अब हमारे उत्पाद (product) बन गए हो! नहीं तो तुम बताओ कि दिनभर तुमको ऐसा क्या ज़रूरी काम रहता है, जो चार-चार घण्टा FB देखते हो? अगर देखना ही है तो मेरा भी थोड़ा देखा करो।”

फिर एक आवाज़ आई दूर से, “ आपसी प्रतिस्पर्धा से हम कम्पनियों को घाटा हो रहा है। इसलिए हमनें अपने शीत युद्धों को बंद करते हुए, हाथ मिला लिया है। इस Cut Throat (गला-काट) प्रतियोगता से हम तंग आ चुके हैं। अब हम बाज़ारों में शांति चाहते हैं। इसीलिए चाहते हैं कि हम तुम उपभोक्ता-उत्पादों को आपस में बाँट लेंगे, ताकि तुम सब App के साथ उचित न्याय कर सको।” 

फिर एक दूसरी आवाज़, “तुम अपनी मर्ज़ी से फ़ोन नहीं उठाते। हम तुम्हारे हाथों को अपने पास बुलाते हैं। हम शहंशाह हैं, तुम्हारे हाथ हमारे ग़ुलाम ! दम है तो एक दिन क्या, एक घण्टे भी इन हाथों को रोक के दिखाओ !”

सब दिग्गज मेहमानों में हलचल मच गई, “अरे! ये शेरो-शायरी वाले भी कब App बना डाले !”

एक नौजवान बोले, “आप लोगों ने अच्छा समझाया है, मैं छोटा हूँ, लेकिन गम्भीर चोट कर सकता हूँ। बवाल मचाने वाली एक-दो लाइनर वाला हूँ, मुझे इनकी उंगलियों से ही संतोष है।”

दूसरे सम्भ्रांत महाशय, “मैं नौक़री करने वालों की जान हूँ, मुझे इनके हाथ दे दो!”

एक ने बोला, “खाना ऑर्डर करते वक़्त मैं इनके काम आता हूँ। इनके पेट से ही मेरा पेट चलता है। मुझे पेट चाहिए।”

अमर सहमा, “ अरे मैं कोई जानवर हूँ क्या …कि मेरे अंगों का बँटवारा कर रहे हैं !”

एक साझा आवाज़ गूँजने लगी, जैसे सभी एक सूत्र में कोई गाना गा रहे हों ! “बिरादरों ! बहस करने में ही समय व्यर्थ न करो। ये ऐसे नहीं मानेगा। चलो अपना-अपना अंग झपट लो।” 

लोगों ने अपने-अपने मनचाहे अंगों को पकड़ना शुरू कर दिया।

तीन-चार लोग “ ये ब्रेन मेरा..”

दो लोग आपस में, “छोड़ो, ये कान मेरे हिस्से के हैं।”

पेट पे भी कई लोग लद गए। फिर तो जैसे मेहमानों में मार हो गई। हंगामा खड़ा हो गया। ग़दर मच गई। अंगों के बँटवारे पे आम सहमति नहीं बन पा रही थी। अंत में कईयों ने सिर पकड़ा, कईयों ने हाथ और कईयों ने हाथ की उंगलियाँ… कईयों ने पेट, तो कईयों ने पीठ.. 

अमर ने देखा कि उसे नोचने वालों में कुछ ही विदेशी हैं, अधिकतर भारतीय हैं। फटता क्या न करता ! उसने भारतीय लोगों को अपने देशवासी होने का वास्ता दिया, लेकिन व्यवसाय का एक ही वास्ता होता है-पैसा बनाओ और पैसा बढ़ाओ। पीड़ा सपने में हो, तो भी दिमाग़ पूरा महसूस करता है। अमर,” अरे यारों! जब customer ही नहीं रहेगा, तो business क्या करोगे?” 

ये सब दलीलें कोई कहाँ सुनता। खींचा-तानी अपने चरम पर। अमर को लगा कि उसके अंग उससे जुदा हो रहे हैं। हाथ टूटने वाला है। खिंचाव से बाल सारे चर-चर करके उखड़े जा रहे हैं। सिर धड़ से किसी भी वक़्त विदा ले सकता है। …और तभी एक घण्टी सुनाई दी। अमर जाग रहा था या सो रहा था या जागने जा रहा था। उसकी साँस घुट रही थी। वो अलका, अलका चिघारना चाह रहा था, मगर उसकी आवाज़ ग़ायब थी। अलका उसके इशारे भी नहीं समझ पा रही है। घण्टी बजती रही.. और अलका ने बोला, “अरे यार सोने भी नहीं देते हो चैन से।” एकाएक अलका ने बोल कैसे दिया? क्योंकि सपने में अमर था, अलका नहीं ! घण्टी शांत हो गई। अमर सपने के पालने में अभी भी झूल रहा था। स्तब्ध!! अपने बालों, हाथों, सिर, गालों की सलामती को पुख़्ता करते हुए… वो अपने पूरे शरीर को देखा और फिर अहसास हुआ कि जो रात भर बीता, सपना था। बुरा सपना। 

और तभी पीछे से टीम के सहकर्मी आ गए और बोले,

“Great focus man, that too without tea! कोडिंग की धज्जियाँ उड़ा दोगे क्या यार? इतना क्या डूब गए सुबह-सुबह ! चलो चाय पीते हैं।”

अंग्रेज़ी और हिंदी के मिश्रण से अमर को अहसास हुआ कि वो इस समय अपने घर नहीं, बल्कि ऑफ़िस में था। यहाँ पे उसको होश सम्भालना होगा। सम्भलकर रहना होगा। ख़ैर,  वो अपने सहकर्मियों के साथ चाय पीने चला गया। मगर उसका दिमाग़ इस सपने की मीनिंग पे अटका रहा। हर सपना कुछ-न-कुछ कहना चाहता है। सपना हमारे दिमाग़ की गहरी सतहों में सुषुप्त हलचलों की जागृति होती है। सपने में तार्किकता का अभाव लाज़मी है। उसमें आदमी बिना पंख उड़ता है; अपने मन की बात प्रधानमंत्री से मिलकर करता है;  ख़ुद भी प्रधानमंत्री बन जाता है; अपनी मनचाही चीज़ को बिना प्रयास पा लेता है…सपने में तर्क़ नामक कोई बुनियाद नहीं होती। सपना मनमाना होता है।

सपने ! बेतुके आ सकते हैं, लेकिन अमर की सैलरी तो तुकों से ही आती थी। कोडिंग की जटिल पहेलियों को सुलझाने में यही तार्किक शस्त्र इस्तेमाल होता था। अमर अपनी इस मेधा शक्ति के बलबूते इस सपने के दूर के मतलबों को टटोलने में जुड़ गया। सबसे पहले वो सपने में देखी हुई दास्तानों का अपने फ़ोन से मिलान करता है। थोड़ा-बहुत गूगल किया। वे मेहमान, कौन लोग थे? उसके फ़ोन में कितने Aap हैं, Apps का उन मेहमानों से क्या रिश्ता था? थोड़े तार जोड़ने पे पता चला कि वो सारे के सारे बिन बुलाए मेहमान, दरअसल, उन App कम्पनियों के CEO थे। अपनी आदतों का पोस्ट मोर्टम करने पे उसको पता चलता है कि वो फ़ोन का इस्तेमाल नहीं, बल्कि फ़ोन उसका इस्तेमाल कर रहा है। इस इस्तेमाल का रिमोट उन कम्पनियों के हाथ में है। काम से फ़ोन का इस्तेमाल राई था, बेकाम वाला समय पहाड़।

  अमर ने सोचा कि वो कल रात में मेड-इन-काशी देखते-देखते सो गया था। सोने से पहले जो कार्यक्रम देख रहा था, शायद उसका सपने से उसका कोई वास्ता हो। शायद वो कार्यक्रम ही उसे सपने की तरह लगा हो ! कुछ-न-कुछ राज़ उस कार्यक्रम में ज़रूर होगा, ऐसा सोचकर वो उस कार्यक्रम को दोबारा देखना चाहता था। लेकिन मोबाइल में देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वो अनियंत्रित, अनिमंत्रित आगंतुक! उनसे डर सपनों के बाहर भी बरक़रार था। डरा हुआ आदमी अंधविश्वासी हो जाता है। अमर मोबाइल में नहीं, अपने कम्प्यूटर में ‘मेड-इन-काशी’ का वो अधूरा कार्यक्रम पूरा देखता है। फिर उसके बाद शाम को वो घर जाकर एक नया अवतार ले लेता है। बच्चों का homework करवाता है। उनके साथ समय बिताता है। खेलता है। उनको कहानियाँ सुनाता है। उसके चेहरे पे एक ठहराव दिखता है, वही जो रामायण में राम के चेहरे पे था। वो रात में मोबाइल देखते नहीं सोया। अगला दिन शनिवार यानी छुट्टी का था। शुक्रवार की रात अमूमन और देरी से सोने की रात होती थी। आदतों के उलट, अमर जल्दी ही सो गया। पति के रातों-रात नख-शिख के इन बदलावों से अलका सहम गई ! भूत-प्रेत के साये के बारे में तो उसने अपनी दादी से सुना था। पर क्या देवता का साया भी कोई चीज़ होती है? अमर में उसी देवता का अंश समा गया था !!

*उस कार्यक्रम में ऐसा क्या था, जो अमर की जीवनचर्या बदल देता है !

 जानने के लिए पढ़िए वेबपाश-भाग २*


टिप्पणियाँ

  1. यह वर्तमान समय का एक ज्वलंत विषय है जिसमें कि समाज के हर तबके के लोग एआई टेक्निक के सम्मोहन में फंसे हुए हैं। जिससे चाहते हुए भी लोग इससे बाहर नहीं आ पाते हैं। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने लोगों को जगाने का काम इस भाग में किया है। इससे आने वाले भागों में इसको और विस्तार से जानने का मौका मिलेगा। धन्यवाद

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