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आलू बन गया डोनट (DONUT) ! कैसे ?

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पृथ्वी। इसमें सागर हैं और हैं कुछ ज़मीन के टुकड़े। इस ज़मीन में बसी तमाम ज़िन्दगियों में से एक है आदमी की। ये वाली ज़िन्दगी ज़मीन की तरह है, जिसका लेखा-जोखा समंदर है। ज़मीन में जितना चढ़ाव है, उतना ही उतार।  पहाड़ की चढ़ाई और उतराई दोनों में ही मेहनत लगती है।  चढ़ने की तुलना में उतरने में ख़तरा अधिक होता है। उतरते समय वो चढ़ने का उत्साह भी नहीं रहता।  सावधानी न बरतने पे उतरना लुढ़कना बन जाता है। चढ़ाई-उतराई  के दो पाटों में क़ैद जो पल हैं, वो गवाह हैं हमारी आदमियत-आदिमानवत-जानवरत्व के। धरती, जिसने एक ओर ऊबड़-खाबड़ ज़मीन फैला रखा है, उसी धरती के गर्भ ने विशाल सागरों को भी समा रखा है। इन सागरों में ज्वार-भाटा के कुछ पल हैं, फिर भी ये अनवरत  समतल हैं। इन सागर रूपी गुरुओं को शायद धरती ने ज़मीन को राह दिखाने के लिए रखा है । ज़मीन के जोड़-घटाने का परिणाम सागर है। सागर शून्य में विलीन   है, एकरस है। इसीलिए सभी इमारतों, पर्वतों इत्यादि की ऊँचाई का आधार समुद्र-तल है। समुद्र में न तो ज्वार के समय आगे बढ़ने का दम्भ है और न ही भाटे के समय पीछे जाने का क्षोभ। क्योंकि सागर को पता  है इस बात का कि इस  बढ़ाव-घटाव के खेल में

कवि का मान और दरबारी कवि का हश्र

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सादर प्रणाम, आजकल बहुतेरे Motivational speakers, कवि, लेखक गण पुराने मझे हुए, सिद्ध कथा वाचकों के मन का सुकून छीन रहे हैं। इसी क्रम में हिंदी मंच के चमकते सितारे, हम सभी के प्यारे आदरणीय डॉ. कुमार विश्वास जी कुछ दिनों पहले राम कथा सुना रहे थे। आयोजन सरकार का था। स्वयं मुख्यमंत्री जी राम कथा का रस ले रहे थे। बीच कथा में मुख्यमंत्री जी को किन्हीं कारणों से जाना पड़ा। अन्य श्रोताओं का ध्यान रामकथा से हटकर, मुख्यमंत्री जी के जाने पे लग गया। कथा वाचक जी ने लोगों के मन में मचे उस वैचारिक भगदड़ को जैसे-तैसे क़ाबू किया।  काशी की क़लम ने कुछ हलचल की: -बीच में बिन बताए इस क़दर जाना राम-रामकथा तथा कथाकार का अनादर है। -कितना सुखद होता कि आदरणीय मंत्री जी कथाकार जी को अपने जाने की पूर्व सूचना भिजवाते। इससे मंत्री जी का मान और बढ़ता ही। कुछ आपात बात हुई होगी, जो ऐसे चले गए। यह कहकर मैं संतोष कर रहा हूँ, मंत्री जी की हिंदी और राम की आस्था में मेरी अगाध आस्था है। -यह अनादर जितना कथाकार का है, उतना ही हिंदी भाषा-साहित्य का भी है। -साहित्य समाज का दर्पण है, और समाज के झण्डाबरदार ही ऐसा रूख करें, तो दर्प

वेबपाश: उपवास- इंटरनेट फ़ास्टिंग (भाग २/ अंतिम भाग )

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भाग १ पढ़ें -वेबपाश: वो डरावना सपना   भाग २: बैंगलोर।  दो बच्चे।  अलका।  अमर।   तड़की सुबह कुकुढू-कू....अलार्म बजा। अमर ने आहिस्ते से उसे बन्द कर बिस्तर को bye-bye किया। ठहरी हुई सुबह हुई। वैसे, हलचल वाली भी होती है। अलका को आश्चर्य हुआ कि आज  अमर  एक बार में कैसे उठ गया ! No Snooze!!   बाथरूम में आज अमर के साथ मोबाइल टूथपेस्ट के झाग नहीं चाट रहा था। नाश्ता कर लिया। Still no mobile! अलका के आश्चर्य का पैमाना तब छलका जब तीन-चार घण्टे बाद भी उसने मोबाइल को हाथ तक नहीं लगाया। अमर drawing रूम में सोफ़े पे लेटा था। आज तो सूरज पश्चिम से ही उगा था। अमर के सीने पे उसकी पुरानी माशूका थी! उपन्यास!! बड़े दिनों बाद वो ‘गुनाहों का देवता’ फिर पढ़ रहा था। कुछ सालों पहले किसी कम्पनी का इंटर्नेट सस्ता बनकर आया ।  उसकी सस्ताई ने क़ीमती समय को रद्दी बना दिया। किताब, खेल-कूद, हँसी-मज़ाक़, लूडो, ताश…सब बिखर गए। हर बात की शुरुआत अब मोबाइल से ही होती। ‘अरे तुम्हारे उस दोस्त ने ऐसा किया’;  ‘उसने ऐसा कॉमेंट किया’; ‘उसने लाइक नहीं किया’; ‘status में ये देखा’;  ‘मेरे B’Day पे status फलाने ने नहीं लगाया। Tweet, FB

वेबपाश: वो डरावना सपना ! (भाग १। कुल २ भाग)

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 भारत की सूचना तकनीकी की राजधानी बेंगलुरु। ख़ूबसूरत Garden City। पढ़ा-लिखा। आदमी हो, तो बेंगलुरु के मौसम-सा: एकरस-सुहावन-मनलुभावन। पहली बार अमर जब वहाँ गया था, तो बस वाले कंडक्टर की अंग्रेज़ी पे दंग रह गया था, क्योंकि उसकी अंग्रेज़ी तंग रह थी।   अमर मोबाइल की नींद ही आँखें खोलता, मोबाइल की नींद ही सोता है। बीच में दिन भर कम्प्यूटर पे कोडिंग करता। कोडिंग करना कोई यान्त्रिक ( मकैनिकल ) काम नहीं है, इसमें दिमाग़ के घोड़े को लग़ातर तर्क़ के पथ पर भगाना पड़ता है। ये घोड़ा शाम तक हाँफने लगता है। घर में पत्नी अलका और दो बच्चे हैं। शाम को दफ़्तर से आने के बाद, परिवार के साथ समय बिताना तो अब जैसे इतिहास बन चुका है। अलका भी अमर का परिवार चलाने में ख़ूब साथ देती। वो अब हाउस वाइफ़ (गृहणी) की चौख़ट लाँघ चुकी है। वो बहुराष्ट्रीय कम्पनी (एम॰एन॰सी॰) में मार्केटिंग के ऊँचे ओहदे पे क़ाबिज़ है। बेटा पाँचवी और बेटी तीसरी में एक अंतर्राष्ट्रीय स्कूल भविष्य सँवार रहे हैं। बच्चों को अच्छा पढ़ाने के लिए माँ-बाप एक-दूसरे के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर काम कर रहे हैं। बच्चे कब बड़े हुए, एलबम खोलने पे ये सवाल मानो हर

Man’s Search For Meaning (जीवन के अर्थ की तलाश में मनुष्य) । हर परिस्थिति में सम्मानपूर्वक जीवन जीने का प्रेरणास्पद संस्मरण !

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ये किताब मेरे दो पढ़ाकू मित्रों ने अलग-अलग समयों पे सुझाई थी। इससे पहले कि तीसरे किन्हीं मित्र की कृपा होती, पढ़कर मैंने भी गंगा नहा ली।  क़िताब के कवर पे जिस श्वेत-श्याम क्षितिज और गैस के इग्ज़ॉस्ट पाइप को दिखाया गया है, वो नाज़ियों ( NAZI) के बर्बर अत्याचार का प्रतीक है। ये कवर नाज़ियों द्वारा यहूदियों के प्रति की गई अमानवीय क्रूरताओं का ट्रेलर है। कटीले तार पे बैठी ये रंगीन चिड़िया श्वेत-श्याम पते पर आशा की चिट्ठी है। ऐसी घोर निराशा में एक आशावादी, उसूलों वाली चिड़िया ही बच सकती है। क्योंकि इन कटीले तारों में निराशा, अवसाद और मौत की बिजली दौड़ा करती थी। यह किताब ऐसी ही मानव रूपी एक चिड़िया की दास्तान है। यह चिड़िया कोई और नहीं, लेखक महोदय ही हैं, जिनकी क़िस्मत मौत को चकमा दे देती है।   पुस्तक का आकार और इसकी दुबलाई ( १५४ पृष्ठ) को देखकर पाठक का उत्साह बढ़ेगा। शायद ख़याल भी आए कि पिछली बार इतनी पतली किताब आपके हाथ कब लगी थी ! पर यह तो गागर में सागर है। लगभग हर लाइन आपको ठहरने के लिए मजबूर करती है। खरगोश को कछुआ बना देती है। चिंतन को प्रेरित करती है। सेल्फ़-हेल्प की उपदेशात्मक किताबों

नब्ज़ मेरी मिल पाती नहीं, जो ये छुअन वक़्त पे आती नहीं।

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सादर प्रणाम, ‘सिर्फ़ तुम’ ! शायद आपने यह मूवी देखी हो। उसका स्वेटर आपको याद होगा। हाथ के बुने स्वेटर के ख़ात्मे के साथ रिश्तों का परिवार भी ख़त्म हो गया।  इस  रेडीमेड की चाह ने जितना रिश्तों को ठण्डा किया है, उतना शायद उत्तरी ध्रुव न कर पाया हो। क्रेज़ इतना बढ़ा कि हाथ के स्वेटर, टोपी, दस्ताने बुनने वाली दास्तान ग़ायब हो गई। आज ख़ुश तो बहुत हूँ…मेरे पास हाथ का बुना हुआ स्वेटर है…  मुद्दतों बाद मुझे एक ऐसा नसीब हुआ। यह स्वेटर काशी से मेरी गुरु-माता जी ने भेजा है। मेरी ख़ुशी सातवें आसमान पे है।  जब पारा -२० डिग्री सेल्सीयस हो, तो स्वेटर से कहीं अधिक प्रेम गर्मी करता है, और प्रेम में वह गर्मी है, जो किसी सर्दी को अपना बना ले।  आपको भी हाथ का बुना मिले और  ऐसा बुनने वाला मिले। ऐसी दुआ के साथ कुछ शब्दों की गर्माहट.. मौसम की थकी ज़िंदगानी में सफ़ेद चूनर ओढ़ी वीरानी में। पारा जब थर-थर करता है, थककर शून्य को वरता है।  जब हवा देती बर्फ़ के थपेड़े है, पल-पल हाथ कान को हेरे है। सर्दी से अधिक सर्दी का शब्द सताता है, शरीर बिना कमानी का बनता छाता है। दवा से पहले दुआ है, दुआ से ही सब हुआ है। चाहत की