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आभार अमर उजाला- #हिंदीहैंहम

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      अमर उजाला का समूचे भारत के संस्करण में काशी की क़लम को स्थान देना एक झुलमुलाते दीये को तारा बनाने जैसा है। कलम विह्वल और विनत है! इतने बड़े मंच पर कुछ कहने का अवसर देने के लिए अमर उजाला परिवार, विशेषतः अग्रज डॉ. अरुण सिंह जी तथा श्री विजय 'भारत' जी का आभारी हूँ, जिन्होंने हिंदी को लेकर यह उत्सव आयोजित किया है। आपका #हिंदीहैंहम अभियान सुदूर बैठे भारतीय पंछियों को भी इस महायज्ञ के कुण्डों पे समरस स्थान दे रहा है। आपकी इस 'दूर' दृष्टता को नमन। कल के कार्यक्रम के संचालक सुश्री पल्लवी जी को ढेरों साधुवाद, जिन्होंने बड़े ही समसामयिक, अंगार भरे सवाल पूछे और चर्चा को एकदम जीवंत बनाए रखा। हिंदी की मशालें जलाए विदेशों में सेनानियों के विचार और उनके प्रयास अविस्मरणीय रहेंगे।     जिनकी कृपा  के बिना यह क़लम डोल नहीं सकती, अर्द्द्हंगिनी, नारीशक्ति गीता को उनके हिंदी प्रेम और अपनी संस्कृति को विदेश में भी बनाए रखने के लिए मेरा दिलभर आभार और ... । क़लम के पीछे बहुत और भी हैं, और मैं सबसे पीछे।  अपने आगे सभी के आशीर्वाद, सहयोग, मार्गदर्शन हेतु मैं विनत हूँ, आगे झोली फैलाए हूँ।  

प्रधानमंत्री जी को खुला ख़त-हमें आपकी चिंता है।

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माननीय जननायक, जनहृदय सम्राट, भारत माँ के प्रधान सेवक, जन-जन की जान, अंत्योदय के प्रणेता आदरणीय ओजस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी,  आपके चरण-कमलों में आपके एक नगण्य शुभचिंतक का नमन स्वीकार हो।  इस महामारी के दौर में जैसे-तैसे बचते-बचाते आपकी कुशलता की मंगल कामना करता हूँ। लोग कहते हैं आप हैं, तो देश है। और मैं यह जनता हूँ कि देश से ही मैं भी हूँ। अर्थात मेरी कुशलता के तार आपके बने रहने से जुड़े हैं। इसलिए आपका स्वास्थ्य मेरे लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए महत्वपूर्ण है। वैसे मैं अपने आपको इस महामारी में स्वस्थ रखने के लिए भगीरथ यत्न किए जा रहा हूँ। और आपसे भी साष्टाङ्ग निवेदन करता हूँ कि आप भी अपना ध्यान रखकर हमपर महती आयुष-कृपा करें।  बात १५ अगस्त २०२१ की है। विगत वर्षों से आपके लाल क़िले का ओजपूर्ण भाषण मैंने देखना कभी छोड़ा नहीं है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. बाजपेयी जी के बाद आप ही लाल क़िले से खिलते हैं। अपने बच्चों को भी सुनवाता हूँ। मेरी बड़ी बेटी आपको जानते-जानते १० साल की हो चली हैं। उसपर भी आपके 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ', कन्या समृद्धि वाले उपकार हैं। छोटी बेटी अभी

हिंदी हैं हम-आभार अमर उजाला

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 अमर उजाला, प्रयागराज और श्री अरुण भैया, श्री अनिल सर जी को मेरी हिंदी की छोटी-सी सेवा के लिए इतनी बड़ी जगह देने पर मेरा विनम्र प्रणाम। साथ ही एक अनुभूति भी साझा करना चाहूँगा।   सेवा तभी तक सेवा रहती है, जब तक सेवक स्वयं इस सेवा कार्य से अनभिज्ञ रहे। वह इसमें रमा हुआ हो और उसको तनिक भी आभास न हो कि वो सेवा कर रहा है। संज्ञान लेकर की गई सेवा ज़रूर किसी ज़िम्मेदारी का बोझ ढो रही होती है। निःस्वार्थ सेवा की यात्रा में जब कोई आपसे लेखा-जोखा पूछे, आप ठहरें, पीछे मुड़कर देखें और फिर आपको लगे कि अरे बिना जाने हम तो इतनी यात्रा तय कर गए। पता ही नहीं चले! यहाँ पर बिना जाने पर गौर करने की ज़रूरत है। असल सेवा वही है, जो दूर-दूर तक भी अपने किसी स्वार्थ से रिश्ता न रखी हो।   आपका यह प्रतिष्ठित पन्ना मेरे लिए बहुत अनमोल है।  यह कलम को प्रेरणा और हिंदी सेवा का बल देगा। आपके द्वारा दिए गए सेवा-संज्ञान को मैं भूलकर अपने प्रयासों में जुटने जा रहा हूँ।  सादर... SOURCE: https://epaper.amarujala.com/allahabad-city/20210819/10.html?format=img&ed_code=allahabad-city

사상병 प्रेम-रोग (कोरियन कविता)

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शुरू में प्यारा लगने वाला रोग, थोड़ा बिगड़ने पर झुँझलाने वाला रोग, और बढ़ने पर जटिल हो जाने वाला रोग, जब अपना पूरा रूप ले लेता है, अंदर सब कुछ जलाकर राख कर देने वाला रोग। फिर भी, इसके न होने से तो अच्छा शायद इसके हो जाने का स्वाद लेना है। ‘समय सब रोंगों का मरहम है’ को चरितार्थ करने वाला रोग। प्रेम-रोग। -원태연 (तेयॉन वॉन) अनुवाद: नवीन सिंह  गूँज दबते स्वरों की (कहानी संग्रह) ।  भारतीय ज्ञानपीठ AMAZON  I  FLIPKART

नब्ज़: गूँज दबते स्वरों की

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कुर्सी। जी! कुर्सी की जो महामारी, अब हमारी भी हो गई है, इसकी जड़ें हमारी नहीं हैं। इसका उद्गम और प्रसार पश्चिम में हुआ। कुर्सी का इतिहास मिस्र की सभ्यता से ताल्लुक़ रखता है। वहाँ पर कुर्सी की शुरुआत हुई समाज में ऊँचे ओहदे को दर्शाने के से। जो कुर्सी पे बैठता, वो ऊँचा होता। या जो ऊँचा होगा, वो कुर्सी पे विराजेगा। ऊँचा-नीचा साबित करने में बहुत हुड़दंग हुई, जो आज भी जारी है, और रहेगी। यह जंग शायद हमारी जाति के अंत का कारक भी बने। कुर्सी का संक्रमण हर जगह फैलता गया। ऊँचाई सबको अच्छी लगती है, या यूँ कहें कि निचाई लावारिस होती है। निचले पायदान का आदमी कभी भी अपने कारण की जिम्मा अपने पे नहीं मढ़ता है। कुर्सी मानसिक संकीर्णता से ग्रसित होती है। इसमें पशु प्रवृत्ति होती है- एक नाद में दो बैल बर्दाश्त नहीं! यह दो लोगों को एक साथ सह नहीं सकती। पर हाँ, अगर बच्चे हों, तो संभव है।  यदि दो लोग एक साथ बैठने का प्रयास करें, तो वह टिकाऊ नहीं होता। सब लोग कुर्सी पा नहीं सकते। आम लोगों की तादात हमेशा अधिक होती है। तब आम लोगों के बारे में सोचने का प्रयास हुआ,और बेंच ने जन्म लिया। खुला हुआ, बिना सीमा के, समा