आभार अमर उजाला- #हिंदीहैंहम






     अमर उजाला का समूचे भारत के संस्करण में काशी की क़लम को स्थान देना एक झुलमुलाते दीये को तारा बनाने जैसा है। कलम विह्वल और विनत है! इतने बड़े मंच पर कुछ कहने का अवसर देने के लिए अमर उजाला परिवार, विशेषतः अग्रज डॉ. अरुण सिंह जी तथा श्री विजय 'भारत' जी का आभारी हूँ, जिन्होंने हिंदी को लेकर यह उत्सव आयोजित किया है। आपका #हिंदीहैंहम अभियान सुदूर बैठे भारतीय पंछियों को भी इस महायज्ञ के कुण्डों पे समरस स्थान दे रहा है। आपकी इस 'दूर' दृष्टता को नमन।
कल के कार्यक्रम के संचालक सुश्री पल्लवी जी को ढेरों साधुवाद, जिन्होंने बड़े ही समसामयिक, अंगार भरे सवाल पूछे और चर्चा को एकदम जीवंत बनाए रखा। हिंदी की मशालें जलाए विदेशों में सेनानियों के विचार और उनके प्रयास अविस्मरणीय रहेंगे। 
   जिनकी कृपा  के बिना यह क़लम डोल नहीं सकती, अर्द्द्हंगिनी, नारीशक्ति गीता को उनके हिंदी प्रेम और अपनी संस्कृति को विदेश में भी बनाए रखने के लिए मेरा दिलभर आभार और ... । क़लम के पीछे बहुत और भी हैं, और मैं सबसे पीछे। 
अपने आगे सभी के आशीर्वाद, सहयोग, मार्गदर्शन हेतु मैं विनत हूँ, आगे झोली फैलाए हूँ।
     हिंदी हमारी डी॰एन॰ए॰ है।  इसकी पहचान व सम्मान का संकट अपने आपको इतिहास में मिटाने जैसा है। उधार की पहचान से कभी कोई संस्कृति धनवान नहीं कहलाती। नक़लीपन और दिखावे का लिबास ओढ़ेते-ओढ़ते ऐसी संस्कृति आत्मसम्मान, आत्मविश्वास को खोकर खोखली और ढह जाती है। ऊपर जाइए, किन्तु जड़ सहित ऊपर न जाइए, उखड़ जाएँगे। ये हिंदी संस्कृति की जड़ है, तो हम हैं।

कुछ काशी की क़लम से: 

हिंदी का मोल जो पूछें
तराज़ू की तोल जो पूछें,
जो पूछे अपने गणसूत्रों की पहचान हैं,
मानचित्र से मिट जाते ऐसे इंसान हैं।

अस्तित्व का मोल हो सकता कहाँ है?
अस्मिता की तोल हो सकता कहाँ है?
उधार से कोई धनवान बना कब है?
नक़लकर कोई महान जना कब है?

फल पेड़ से पार जा सकता नहीं है,
धार दरिया को पार पा सकता नहीं है,
चोटी पर्वत से ऊँची उठ सकती नहीं है,
लहर सागर की गहराई छू सकती नहीं है।

आपका 
-नवीन

कार्यक्रम का वीडियो लिंक 







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