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Lee Kun-Hee, Chairman Samsung’s Last Letter/ 이건희 삼성 회장님의 마지막 편지

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Late Lee Kun-Hee  (고 이건희) (09 Jan 1942~25 Oct 2020; 78 years) Ex. Chairman, SAMSUNG GROUP  Korea`s Richest/ World`s#75th Richest (Forbes 2020) Net Worth $17.3 B. Late Mr. Lee, the ex-Chaiman, Samsung group, was the youngest son of the Samsung group‘s founder. He was considered very thoughtful and a man with broad perspectives. There was a time when Made in Japan products had dominance in the world; Sony, Panasonic were on the top. He lead Samsung to the most favored household electronic brand in the world. He developed Korean businesses as one of the best in the world, contributing to what Korea stands today- one of the worlds most innovative countries. His efforts to project Korea as world’s number 1 lead to increase the per capita income of the Korean people. He struggled with ill health and surrendered after 6 years and 5 months of the fight. I thought his last letter has relevance for the  world which is rallying behind the materialistic success. Most of the times I tried to transl

बिना ख़ून, ख़ून कैसे?

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  लाडो ८ साल की थी। तब से उसके मामा को उसको अपने यहाँ दिल्ली में साथ रखना पड़ा था।  तक़रीबन १५ साल बाद बीत चुके थे। वे जिस बला से लाडो को छुपाकर रखना चाहते थे, मानो वो मनहूस परछाई स्वयं लाडो को पछियाते आ गई हो। क्या यह मात्र संयोग था, या फिर किसी अनिष्ट की आहट? जिन लोगों के कारण लाडो को अपना घोंसला छोड़ना पड़ा था,  उस दिन मामा को उन लोगों के अंकुर अपने विश्विद्यालय में दीख पड़े थे। आदमी गाँव छोड़कर शहर भागता है, एक नई पहचान की तलाश में। अक़सर,  लक्ष्य होता है कि वो कभी भी दोबारा उन कच्चे रास्तों की ओर न मुड़े। उन गलियों में न घूमे।  शायद शहर की कोई पहचान होती ही न हो। पहचान तो गाँव की होती है, जहाँ पर आदमी की कई पीढ़ियों के बही खाते लोगों की ज़बानी होते हैं। शहर में सबकी असली पहचान अपने तक ही सीमित होती है। फिर वो एक शहरी पहचान बनाता है, जो अक़्सर सच से परे, आडम्बरों से भरी होती है। अब किसी को कैसे पता चलेगा कि उसके पड़ोसी, जो कॉलोनी वाले मंदिर के सबसे बड़े दानी हैं, किसी ज़माने में गाँव के जघन्य अपराधी रहे थे।   ऐसी स्थिति में  अगर वहाँ भी उसको गाँव की यादों स्वरूप कोई स्मृति चिन्ह दिखता रहे, तो उस

नारी क्या तुम पूजा हो?

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कल तक जो साबुत थी। ज़रूरत   न   पड़ी   ताबूत   की। बेटी   से   बन   गई   जो   राख   थी। ढेर   नहीं ,  शक्ति   की   ख़ाक   थी। नव   मास   के   भ्रूण   से   बरी   हुई। गिद्धों   के   भय   से   पिंजरे   में   क़ैद   हुई। कभी   दहेज   के   दाह   में   दहती। कभी   बलात्कार   में   चित्कारती। नारी   की   पूजा   होती   थी   जहाँ   कभी। प्रसाद   उसी   का   चढ़   रहा   है   वहाँ   अभी।

पतझड़ के आसमाँ / Skies of Fall/ 가을 하늘

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