बिना ख़ून, ख़ून कैसे?

  लाडो ८ साल की थी। तब से उसके मामा को उसको अपने यहाँ दिल्ली में साथ रखना पड़ा था।  तक़रीबन १५ साल बाद बीत चुके थे। वे जिस बला से लाडो को छुपाकर रखना चाहते थे, मानो वो मनहूस परछाई स्वयं लाडो को पछियाते आ गई हो। क्या यह मात्र संयोग था, या फिर किसी अनिष्ट की आहट? जिन लोगों के कारण लाडो को अपना घोंसला छोड़ना पड़ा था,  उस दिन मामा को उन लोगों के अंकुर अपने विश्विद्यालय में दीख पड़े थे। आदमी गाँव छोड़कर शहर भागता है, एक नई पहचान की तलाश में। अक़सर, लक्ष्य होता है कि वो कभी भी दोबारा उन कच्चे रास्तों की ओर न मुड़े। उन गलियों में न घूमे। शायद शहर की कोई पहचान होती ही न हो। पहचान तो गाँव की होती है, जहाँ पर आदमी की कई पीढ़ियों के बही खाते लोगों की ज़बानी होते हैं। शहर में सबकी असली पहचान अपने तक ही सीमित होती है। फिर वो एक शहरी पहचान बनाता है, जो अक़्सर सच से परे, आडम्बरों से भरी होती है। अब किसी को कैसे पता चलेगा कि उसके पड़ोसी, जो कॉलोनी वाले मंदिर के सबसे बड़े दानी हैं, किसी ज़माने में गाँव के जघन्य अपराधी रहे थे।  ऐसी स्थिति में अगर वहाँ भी उसको गाँव की यादों स्वरूप कोई स्मृति चिन्ह दिखता रहे, तो उसकी पुरानी पहचान हरी-भरी हो उठती है। वह बीते समय की बेड़ियों में जकड़-सा जाता है। अगर स्मृतियाँ अच्छी हों, तो बात ही क्या। लेकिन अगर भयावह हों, तो  याद पटल पर उनके आने मात्र से ही मन की व्याकुलता स्वाभाविक है। मामा को लग रहा था कि लाडो अपनी पुरानी यादों को बिसरा चुकी होगी। लेकिन लाडो का उसी विश्विद्यालय में पढ़ना, और संभावित ख़तरों से अनजान बने रहना मुसीबत के नाम निमत्रण पत्र लिखकर रखने जैसा था। मामा ने काफ़ी अन्तर्द्वन्द के बाद लाडो से यह बात साझा करने का मन बनाया। 

"लाडो, आज तुम्हारे गाँव के कुछ लोग दिखे थे....यूनिवर्सिटी में।"

गाँव का नाम सुनते ही लाडो के सारे घाव हरे हो उठे। वही गाँव, जहाँ पर उसका अधूरा बचपन छूट गया था। जहाँ पर उसका एक घर हुआ करता था। उस गाँव की यादें सुनहरी नहीं थीं , कड़वाहट से सनी थीं। लाडो कुछ नहीं भूली थी। समय-समय पर मामी से मिलने वाले ताने फ़ोटो एलबम का काम करते थे। यदा-कदा मामी वो एलबम लाडो को दिखा दिया करतीं। बेबस और लाचार लाडो मामी जी की बातों का बुरा नहीं मानती थी। मामी जी की वज़ह से उसको उसके पुराने दिन याद रहते। अगर मामी कड़क और सौतेला व्यवहार न करतीं, तो क्या लाडो लाड-प्यार में बदले की उस आग को अपने सीने में इतने सालों तक सुलगाए रख पाती? वो मामी की कृतज्ञ थी। फूलों से लिपटकर त्वचा कोमल होती है, लेकिन अगर काँटों के साथ रहना पड़े, तो वही त्वचा कठोर बन जाती है। इतनी सख़्त कि काँटें उसको और चुभ न पाएँ। मामी की हर फटकार लाडो को इस हाल में डालने वाले लोगों से बदला लेने की उसकी इच्छा-शक्ति को प्रबल करती।  

 उसको मामा जी ने बोला,

"बेटा, अब उन लोगों से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। शायद वे तो तुम्हे भूल भी गए होंगे। लेकिन, संयोगवश भी तुम उन लोगों के पास न जाओ, इसीलिए मैं चाहता हूँ कि तुम एक बार उस लड़के को दूर से ही देख लो। मैंने पता किया है-नया दाख़िला है।"

सालों से दबी चिंगारी धधक उठी। हवा आंधी बन गई। अगले दिन ही लाडो ने उस लड़के को आतुरता से देखा। लाडो को लगा कि वो कहाँ उस मनहूस गाँव जाने की सोच रही थी। उस गाँव जाने का रास्ता तो ख़ुद ही चलकर उसके पास आ गया था । बस उसको चलना शुरु करने की देरी थी। लाडो अपने घनिष्ठ दोस्त इशांत के साथ मिलकर एक योजना रचती है। इशांत बायोकैमिकल विभाग में शोध कर रहा होता है। उनकी योजना के केंद्र में उन दोनों की कौशालीय महारथता थी। लाडो उस लड़के को नक़ली प्रेमजाल में फँसाती है। सौंदर्य का मोह ऋषियों की भी तपस्या भंग कर दे, फिर ये छोरा तो शहर की चकाचौंध देखकर हसीं सपने बुनने में लगा था। वो लाडो के प्रेम में अंधा हो जाता है। 

समय बीतता गया। नक़ली प्रेम पर असली की परत चढ़ती गई। एक तरफ़ से गहरा, दूसरी तरफ़ था गिद्ध का पहरा। लाडो ने अपने नक़ली प्रेमी से बोला कि उसको गाँव बहुत अच्छा लगता है। वो चाहती है कि वो शहर छोड़कर गाँव में बसे। शादी के बाद भी वो गाँव में ही रहना चाहेगी। लड़के को 'शादी' शब्द सुनते ही ऐसा लगा, जैसे लड़की ख़ुद उसको मन की बात बता रही हो, अप्रत्यक्ष रूप से। दोनों के नामों से शादी के कार्ड छपवाकर लड़के को घोड़ी चढ़ने का निमंत्रण दे रही हो। लड़का हवा का रूख़ टटोलने के लिए लड़की को इस दिवाली पर गाँव साथ जाने के लिए बोलता है। लाडो थोड़ी आना-कानी करने के बाद प्रस्ताव मान लेती है। आख़िरकर वो 'उन' लोगों से मिलने वाली जो होती है। अपने मामा को वो अबकी दिवाली अपनी महिला दोस्त के घर पर मनाने के लिए मना लेती है। मामी को सुकून था, वो इस बार दिवाली केवल 'अपने' परिवार के साथ जो मना सकेंगी। 

  लाडो, अपने तथाकथित प्रेमी के साथ उसके गाँव पहुँच गई। वहाँ पर उसने उन चेहरों की शिनाख़्त की, जिन्होंने उसके बचपन को खरोंचा था। रौंदा था। जलाया था। वो भी जिंदा। उस बड़े परिवार के वो चार लोग। वो चार राक्षस! लाडो की आँखों की सामने थे। दिवाली पर घर आया हुआ दूर का मेहमान भी अपने से भी अधिक सगा हो जाता है। फ़िर लाडो तो घर की बहू भी हो सकती थी। मिठाइयाँ, पकवान, गुझिया इत्यादि का अम्बार लगा था। रसोई में लाडो भी हाथ बटाती। १-२ दिन में ही वो लोगों के एकदम क़रीब हो गई। जैसे लोग उसको बरसों से जानते हों। जैसे वो अपना ही ख़ून हो। वास्तव में तो वो अपना ही ख़ून थी। बस वो लोग 'उस' ख़ून का ख़ून कर चुके थे। उसकी यादों की भी अंत्येष्टि कर चुके थे। वो घर में औरतों के साथ बैठकर खाना खाती। वो सब आदमियों के भोजन थाल में सजाकर ले जाती। एकदम बेटी जैसी। प्यार, इतना झटके का! किसी को लाडो के इरादों की भनक तक न हुई। दिवाली बीती। गोवर्धन पूजा बीती। अगले दिन लाडो ने, अपने अंधप्रेमी के साथ गाँव के बाहर स्थित काली माँ के दर्शन किया। हवन कुंड की राख से माथे पर तिलक लगाया। उस हवन कुंड की विभूति में एक अद्भुत अनुभूति थी। जैसे उसने किसी अपने को सिर लगा लिया हो। जैसे कोई अपना हाथ लाडो के ऊपर रख दिया हो। किसी ने अपने कोमल, ममता भरे हाथों से लाडो को लाड-प्यार दिया हो। लाडो की आँखें भर आईं। हृदय में एक ग़ुबार उठा, जिसको वो दबा गई। ट्रेन पकड़कर दोनों वापस यूनिवर्सिटी आ गए। 

दिवाली के बाद से लड़का बड़ा परेशान रहने लगा। अपनी प्रियतमा लाडो के पूछने पर उसने बताया,

"पिता जी और घर के तीनों चाचा लोगों को कुछ हो गया है। वो दिन-पर-दिन कमज़ोर होते जा रहे हैं। उनकी भूख भी मर गई है। गाँव के डॉक्टर कुछ बता नहीं पा रहे हैं। वो लोग तांत्रिक के यहाँ भी झाड़-फूँक करवा रहे हैं, लेकिन ओझैती से भूत भागते हैं, भूख तो नहीं आती है न।"

यह ख़बर सुनकर लाडो को मन-ही-मन बड़ी तसल्ली मिलती है। आख़िर उसके वैज्ञानिक दोस्त इशांत का नुस्ख़ा काम कर रहा था। उसने दिल्ली के AIIMS में सभी लोगों को दिखाने का प्रस्ताव रखा। प्रेमी ने अमल भी किया। लेकिन AIIMS की रिपोर्ट आशा न दे सकी। हस्पताल ने बताया कि इन लोगों की प्रतिरोधक क्षमता दिन-प्रतिदिन कमज़ोर होती जा रही है। एक ऐसी स्थिति आएगी, जब मामूली ज्वर भी प्राण घातक होगा। चिकित्सकों के अनुसार यह रोग अनुवांशिक भी हो सकता था। तो कुल मिलाकर मामला अब भगवान भरोसे हो चला था। घर के वो चारो मर्द सूखते जा रहे थे। उनका इतिहास अच्छा न था। बुरा इतिहास बुरे वख़्त में कई रूपों में आता है। लोगों को कहने का मौक़ा देता है। 

"जैसा किए थे, वैसा पा गए।"

"क़ानून से बच सकते हैं, ऊपर वाले के क़ानून से कौन बचाए?"

"उसकी आत्मा लौट आई है, तभी तो वही चारों सूख के लकड़ी हुए जा रहे हैं।"

"भगवान अभी भी हैं। "

इस तरह की बातें गाँव वालों के मुँह से फिसलती रहतीं। 

  मृत्यु कठिन नहीं होती, उसका इंतज़ार करना कलेजे को चीथने जैसा होता है। प्रताणित करता है। जब परिवार का कोई सदस्य तिल-तिल मर रहा हो, और अपने कुछ न कर पाएँ, तो उस स्थिति का नाम विवशता है। उस बुझते दिये को निरंतर देखते रहने जैसा है, जिसमें तेल सीमित है, ऊपर वाले के पास निहित है। भर नहीं सकते। माँग नहीं सकते , छीन नहीं सकते। धीरे-धीरे तेल ख़त्म होता जाता है। फिर बाती में सोखे हुए तेल से दिया कुछ क्षण और जलता है। अपनों का मन तो करता है कि वो तेल अगर मिल जाता, तो अभी दीपक में डालकर उसके प्रकाश को अखंड कर देते, लेकिन उस तेल को पेरने वाला तो ऊपर है। परिवार के लोग अंत समय में बाती को थोड़ी खिसकाकर ऊपर कर देते हैं। पल-दो पल दीपक और चलता है। फिर उसकी अंतिम यात्रा शुरू होती है। एक तेज-सा प्रकाश पुंज। दीपक अपनी अधिकतम, अंतिम प्रकाश को बिखेरकर धुँए में विलुप्त हो जाता है। बच जाती है कालिख़-बाती। सब धुआँ-धुआँ हो जाता है। अभी वो आदमी था, उसका नाम कब तक रहेगा? कल रहेगा? हाँ, शायद याद बन जाएगा। ऐसी लाचारी होनी के आगे समर्पण है। अपने आपको 'कर्ता' समझने वालों के लिए एक सबक़ है। अहम् को भस्म करने का हवन कुंड है।

  अब तो उन चारों ने भी मान लिया था कि उस रात किए गए कुकर्मों का फल काली माता दे रही हैं। वो सब नियति के आगे नतमस्तक थे। कुछ ही महीनों में एक-एक करके मृत्यु ने अपनी चादर उन चारों को ओढ़ा दी। पूरा गाँव ख़ौफ़ की गिरफ़्त में था। वो लौट आई! अगला नंबर किसका होगा!! अगली चिता किसकी सजेगी!!! इन सब मौतों में कोई पुलिस केस नहीं हुआ। किसी को रंच मात्र संदेह न था। प्रेतात्मा के अन्धविश्वाश ने सब लोगों के दिमाग़ पर काली पट्टी बाँध रखी थी। भय के वातावरण में पूरा गाँव था। जब चारों के मरने के बाद महीनों बीत गए, और वैसी बिमारी से कोई और ग्रसित न हुआ, तब गाँव वालों ने राहत की साँस ली। चलो अब उस औरत की आत्मा पापियों के ख़ून से तृप्त हो गई होगी। लोग इस मान्यता को आस्था बना बैठे। 

  लाडो को उस लड़के के परिवार के बारे में सुनकर बेहद दुःख हुआ। वो चारों लोग उसके पिता समान थे। लड़के के सामने लाडो ने घड़ियाली आँसू भी टपकाये। वाक़ई में वो चारों लोग लाडो के सगे थे। ख़ून का रिश्ता था। वो सब असल में लाडो के सगे चाचा थे। वो लड़का, जो लाडो के नाटकीय प्रेम में बँध गया था,  लाडो का चचेरा भाई था। घर जाकर वो फूट-फूटकर रोई। अपनी माँ की यादों में। माँ, जिसको वो रात लील गई थी। 

   लाडो अपने पिता की शक़्ल भी नहीं देख पाई थी। माँ के गर्भ में थी, जब उसके पिता की दुर्घटना में मौत हो गई। कोख़ में बेटी है, अगर लाडो के माँ को यह पता होता, लाडो शायद दुनियाँ में आ ही नहीं पाती। कुलक्षणी, करमजली, डायन इत्यादि शब्द घर वाले उसको सुनाते रहते। विधवा और कोख़ में लड़की, मतलब उस औरत का जीवन अधम। लोग ऐसी औरत को उस साँप की तरह समझते हैं, जिसके दाँत क़िस्मत ने तोड़ दिए हों, और उसका मुँह सिला गया हो। जिसकी मर्ज़ी कुछ भी कह-कर जाय। वह एकदम लाचार होती है। अब लड़का होता और कोई उसकी माँ को बुरा-भला कहता, तो वो अपनी माँ के साथ की गई बेईज्ज़ती को सूद समेत वसूलता। लेकिन लड़की से कौन डरे। उसको नकारा समझते हुए परिवार वालों ने उसको अपने से अलग कर दिया। वही परिवार वाले, जिनका भरण-पोषण करने वाले लाडो के पिता की ट्रक चलाते समय दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। सुबह का शाम हुई नहीं कि लोग मान लेते हैं कि अब सूरज ढल चुका है, और दिन बदल गया।  कुछ घंटे पहले को कौन याद करे? अपनी बेटी की पढ़ाई के लिए लाडो की माँ मज़दूरी करती। विधवा का सबसे बड़ा शत्रु उसका यौवन होता है। अगर वो किसी रास्ते चलते आदमी से दो टूक बात भी कर ले, तो भी उसके चरित्र पे शक़ होने लगता है। समाज विधवा को सफ़ेद साड़ी शायद इसीलिए पहनाता है ताकि उसमें दाग़ आसानी से लगाया जा सके। आसानी से उंगली उठाई जा सके। घर के बाहर तो मान नोचने के लिए सब गिद्ध थे ही, घर के अंदर भी कोई हंस न था। लाडो के चाचा भी कुकर्म करने के मौक़े तलाशते रहते थे। वे सब लाडो की माँ को अलग करने के बावज़ूद भी उसको हमेशा लोक-लज्जा के बंधन में बाँधे रखते थे। लाडो की माँ का एक मुँह बोला भाई था, जो लाडो की पढ़ाई-लिखाई का मार्गदर्शक था। समाज को विधवा और गैर मर्द का केवल एक ही रिश्ता समझ आता है-हवस का। फिर मुँह बोला भाई? कौन यक़ीन करता? लाडो के चाचा उसकी माँ को उस 'भैया' से दूर रहने की धमकी देते। तरह-तरह के लांछन लगाते। उस दिन तो हद ही हो गई। शाम को गर्मा-गर्मी। तभी से चारों भाई जैसे लाडो की माँ को सबक़ सिखाने की क़सम खा लिए हों। 

उस मनहूस रात ८ साल की लाडो अपनी माँ के साथ पलंग पर सो रही थी। तक़रीबन १ बजे किवाड़ को तोड़कर वो चारो घर में घुस आए। उसकी माँ के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करके चले गए। उसकी माँ लाचार पड़ी कभी पुलिस को फ़ोन करती, तो कभी अपने भाई को। एक बजे रात में कौन भाई उजड़ी हुई लाज देखने आए। लेकिन इत्तेफ़ाकन उसके भाई ने फ़ोन उठा लिया। लाडो के मामा ने थोड़े समय में अपनी बहन के उस दर्दनाक़ मंज़र को सुन लिया। तभी वो चारो दरिंदे फिर वापस आये, और लाडो की माँ को उठाकर गाँव केबाहर स्थित काली माँ के मंदिर पर ले गए। वहाँ पर हवन कुंड में ज़िन्दा लाडो की माँ को उन सबने मिलकर जला दिया। रात में साथ सोई माँ सुबह अधजली लाश बन चुकी थी। लाश पुलिस को मिली। कोई साक्षी न था। एक थीं, लेकिन वो बोल नहीं सकती थीं-काली माँ। कोई और न था, जो लाडो को न्याय दिलवाता। लाडो को उसके मामा अपने साथ लेकर दिल्ली चले गए। लाडो की मामी उस मंजर को यदा-कदा ताज़ा करवा देतीं। चारों चाचा भी समय के साथ लाडो को भूल चुके थे। लाडो कोई लड़का न थी, जो अपनी माँ का बदला लेने वापिस आ जाती। 

लाडो को उसके वैज्ञानिक दोस्त ने अपने शोध का वो रसायन दिया था, जो एक ज़हर जैसा था। बायो-रासायनिक जहर। उसकी अति सूक्ष्म मात्रा भी शरीर में दीमक जैसे होती है। वो धीरे-धीरे शरीर को चाट डालती। यह रसायन आदमी के प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट कर देता, और किसी भी शव परीक्षण में इस रसायन को नहीं पकड़ा जा सकता। उस साल लाडो ने दिवाली के समय उन चारों लोगों के खाने में यह रसायन मिला दिया था। बिना ख़ून बहाये ही उसने अपनी माँ के ख़ून का बदला ले लिया। क़ातिल! तिल-तिल मौत को मिल। जब ख़ून हुआ ही नहीं, तो लाडो पर क़ानून को शक़ भला कैसे होता। लाडो ही अपनी माँ का साया बनकर आई थी। अपनी माँ को न्याय दिलाने। 

Kashi-krit/Murder Mistry
Murder Mistry






टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मशीनें संवेदनशीलता सीख रही हैं, पर मानव?

हुण्डी (कहानी)

कला समाज की आत्मा है, जीवन्त समाज के लिए आत्मा का होना आवश्यक है।