रॉयल ओक (अमेरिकी शहर) का चौराहा


बैठ गया हूँ एक रॉयल ओक के चौरसते पे 

मन हुआ कि चौराहे की नब्ज़ टटोला जाए।

दूर एक पेड़ है उससे मधुर संगीत सुनाई पड़ रहा है

शाम का समय है और गौरैया अपने घर आ गई हैं।

उनकी संख्या इतनी अधिक है कि पत्तों और 

गौरैयाओं में भेद करना कठिन हो रहा है।

यह किसी और फल का पेड़ नहीं, गौरैया का लगता है।

दिन में ये कहाँ जाती हैं किसे पता है!

पर शाम का पता यही पेड़ है,

इतना इन सबको पता है।


दो लोग टहलते हुए जा रहे हैं,

वेश भूषा में दोनों उत्तर-दक्षिण हैं।

एक हाफ़ पैंट और टी शर्ट में 

दूसरा टाई और फ़ुल पैंट-शर्ट में।

दोनों बात करके हँस-मुस्कुरा रहे हैं।


चुपके-से झमाझम बारिश शुरू हुई,

शुरू होते ही बंद भी हो गई। 

‘सिरी’ ने बदरी बताया पर बरखा हो गई

यह शिक़ायत कर रहीं हैं एक मोहतरमा।

गरम तवे पे पानी के छींटे पड़ने के जैसे

बारिश का पानी छन-से सूख गया।

कटकटाई सूखी मिट्टी पे छन-से बूँदें पड़ने से, 

मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू आ रही है। 

मूर्ख़ हूँ मैं, यहाँ तो मिट्टी है ही नहीं। 

ये तो कोलतार की सड़कें हैं।

जो मुझे महका उसको मैंने मिलान कर लिया है,

शायद यह ख़ुशबू धूल पे बूँदे पड़ने से आ रही हो।

चतुराई का पता नहीं, पर मिट्टी की ख़ुशबू पहचानता हूँ।


आसमान में लाल-लाल दो बादल धीमे-धीमे एक दूसरे की ओर चल रहे हैं, जैसे विरह की ज्वाला ने उनको यह रंग दे दिया हो। 

देखते-देखते दो बादल एक हो गए 

उनका रंग भी राख सरीख़ा हो गया। 

रंगों के इस परिवर्तन से यह बात साफ़ है

जलने के बाद का रंग राख का होता है।


दूर एक सड़क से आवाज़ आ रही है,

‘पापा! घर चलो।’

चौराहे की दुनिया को विदा करते हैं,

चलो! गौरैया अब हम घर चलते हैं।




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