जिनको काँधे नहीं होते रोने को उनके आँसू नहीं होते खोने को।
जिनको काँधे नहीं होते रोने को
उनके आँसू नहीं होते खोने को।
ज़माना पत्त्थर कहता
ज्वालामुखी जमा जिसे बनाने को।
एहसान सख़्त पहाड़ों का
जो मौक़ा नहीं दिया सुस्ताने को।
काँटे कितने ही मिले पर
आतुर रहा वो फूल बरसाने को।
ख़ुदा बंजर ज़मीं फैलाता गया
और पीछे खड़ा रहा फसल उगवाने को।
-काशी की क़लम
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