ऊँचाई की क़ीमत गहराई न हो


ऊँचाई की क़ीमत गहराई न हो

ऊँचाई पे इतनी महँगाई न हो।


जो कमतर करे इंसानियत को

ऐसी किसी चीज़ से वफ़ाई न हो।


क़द गिरे किसी का मुझसे

ज़ेहन में इतनी ऊँचाई न हो।


अपने अकेले की ही देखूँ

उस तरक़्क़ी पे रौशनाई न हो।


‘काशी’ अपनी गंगा में डूबो ऐसा

कि भीड़ को फिर तनहाई न हो।


-काशी की क़लम


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