सुनाने को तो बहुत कुछ है, पर सुनने को क्या कान खुले हैं?

मन्दिर-मस्जिद-गिरिजाघर। आस्था के स्थलों पे हम अपनी मन्नतें, फ़रियादें, विशेस (wishesh) लेके जाते हैं। अपने-अपने ईष्टों से अपनी समस्याएँ कहते हैं।उनके निवारण की अर्ज़ी देते हैं। अक़्सर हमारी लिस्ट इतनी बड़ी होती है कि कुछ-न-कुछ रह ही जाता है बताने को। बक़ाया अगली बार की लिस्ट में…। सब कुछ कह देने के बाद मन में एक हल्क़ापन-सा आता है। जिस पल हम अपनी बातें प्रभु से साझा कर रहे होते हैं, प्रभु भी अपने कहने की बारी की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। वो इस ताक में होते हैं कि कब भक्त की लिस्ट ख़त्म हो और वो अपनी बात कह सकें। प्रभु कुछ कहें, उससे पहले उनको चाहिए सुनने वाले कान…। अगर उनको लगा कि सामने वाले के पास बस ज़बान है, कान नहीं, तो वो अपनी ज़बान व्यर्थ नहीं करते। ऐसे में चुप्पी ही उचित साधना होती है। अधिकतर भक्त के हल्क़े मन का बोझ प्रभु के भारी मन को उठाना पड़ता है। यदि भक्त के कान खुले हों, तो भगवान समस्या का समाधान बताते हैं। इतना ही नहीं, वो उस समस्या के जड़ की भी पड़ताल कर लेते हैं! यदि कमी भक्त में हैं, तो फटकार भी लगाते हैं।

यहाँ कान असली कान नहीं हैं!  ये हैं आत्मा रूपी कान। हर जागृत आत्मा परमात्मा है। एक जागृत आत्मा के लिए धार्मिक स्थल आत्मा-परमात्मा के संगम का प्रायोजक होता हैं। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था, “मैं उस भगवान का पुजारी हूँ, जिसे ‘मूर्ख’ (लोग) मानव कहते हैं।” यहाँ ‘मूर्ख’ से उनका अभिप्राय शायद सोती हुई आत्माओं से रहा हो! हम हमेशा से आत्मा को परमात्मा का रूप मानते आए हैं, लेकिन मूर्छित आत्मा इस बात को भूलती भी गई है। तभी तो एक ओर आदमी आदमी का तिरस्कार कर रहा है और दूसरी ईश्वर की संकेत रूप मूर्ति की जय-जयकार कर रहा है। यदि आत्मा मूर्ख नहीं है; सोई अथवा बेहोश नहीं है, वो जागृत अवस्था में है, तो परमात्मा अपने आत्मा रूपी इस अंश से सीधे सम्पर्क स्थापित करते हैं। यह क्षण बहुत ही सूक्ष्म होता है। जब मन्नतों में सिर झुका होता है, उसी वक़्त यह अनुभूति होती है। संवाद के ये पल आत्मा की जागृतता स्तर के समानुपाती होते हैं। जितनी धधकती आत्मा, उतना लम्बा संवाद, उतनी ही आनन्दमय अनुभूति। इसमें आदमी को उसकी समस्याओं का समाधान उसके अन्दर ही मिल जाता है। कस्तूरी कुण्डली बसै…। यहीं नहीं, ज्वलन्त आत्मा को मन्दिर स्वरूप मध्यस्थ मंच की आवश्यकता नहीं पड़ती। वो जहाँ रहे, वहीं से अपने प्रकाश को फैलाती रहती है। 

आपकी आत्मा किस अवस्था में है? क्या आप केवल सुना पाते हैं, या परमात्मा को अपने अन्दर सुन भी सकते हैं?

सादर, 

-काशी की क़लम



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