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मार्च, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दुनिया रात अंधेरी मैं फ़क़ीरा हो गया तुम धूप सुनहरी मैं हीरा हो गया।

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दुनिया रात अंधेरी  मैं फ़क़ीरा हो गया तुम धूप सुनहरी मैं हीरा हो गया। सागर जहान, ओझल किनारा हो गया तुम काशी ज़हीन, मैं कबीरा हो गया। दरिया को दिलासा, मिलने आएगा सागर तुम मेरे भीतर हो कृष्ण, मैं मीरा हो गया। नफ़रतों के बाज़ार में कशिश तमाम थी तुम क़तरा इश्क़, मैं ज़ख़ीरा हो गया। मुखौटों की  महफ़िल में रौनक़ बहुत थी सच का इक आइना सबको सरफ़िरा हो गया। -काशी की क़लम

मुझे इन ख़ंजरों से डराना नहीं दिल मेरा ऐसों का कबाड़खाना है।

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मुझे इन ख़ंजरों से नहीं डराना है दिल मेरा ऐसों का कबाड़खाना है। अपनों ने दिए ज़ख़्म ग़ैरों ने नहीं   फिर खोलकर किसको दिखाना है ! मोहब्बतों की इबादत ये छोड़ा नहीं बेक़ाबू दिल मेरा है या बेगाना है। अपने ही ख़ून में ये दुनिया डूबे नहीं अब वक़्त को ही इतिहास बचाना है।  आदमी इतनी हिक़ारत रखता नहीं ‘निरीह’ से कह दो न कश्मीर! ये अफ़साना है। -काशी की क़लम

हमें ख़तावार ठहराके भी वो नज़रें झुकाये हैं

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हमें ख़तावार ठहराके भी वो नज़रें झुकाये हैं ख़ताएँ नहीं भूलीं अपनी ये अदायें हैं। ईमान की लब्ज़ भले न हो मगर दबाए दबती नहीं ये पाक़ सदायें हैं। मत कोसो मेरे इन अय्यारों को इनके दिए दर्द ही मेरी दवायें हैं। फूल भरी मेरी राह की दुआ न करो इन पाँवों तले अंगारों की रेखायें हैं। इन काग़ज़ी गुलदस्तों पे मुस्कुराना कैसा चन्द पलों की ये इत्र की फ़िज़ायें हैं। -काशी की क़लम

मैं करती क्या हूँ ! (कविता: गृहणी के मनोभाव)

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क्या करते हो ? ज़वाब में यदि  कुछ  सर्वमान्य करने का आगम हो, तो सम्भाला जा सकता है। यदि न हो, तो हाथ लगता है प्रश्नवाचक चिन्ह ! समाज का एक ऐसा तबका है, जो कभी यह खुलके बता नहीं पाता कि वो करता क्या है। जो प्रत्यक्ष दिखता है, उसी की महत्ता है, लेकिन जो हम देख नहीं पा रहे हैं, वो कैसे कम महत्वपूर्ण है ! कस्तूरी कुण्डली.. या हमारी इसी उपेक्षा के परिणामों में से एक है कि परिवार को दिशा देने वाला ध्रुव तारा अपनी चमक खोता जा रहा है।  इस धूमिलता का ख़ामियाज़ा हम जगह-जगह भर रहे हैं। उन्हीं तारों को समर्पित कुछ लाइनें:    मैं करती क्या हूँ ! सूरज से पहले देती घर को रोशनी हूँ, रात सोने पे फिर सूरज को जोहती हूँ। मेरे इंतज़ारों का सफ़र ख़त्म होता नहीं, पड़ावों की भी मंज़िल क्यों होती नहीं ! जगने-सोने की बेतुकी सब दरकारें हैं, इंद्रधनुषी प्रेम रंगों से ये सब हारे हैं। सबकी टूटी नींद के टुकड़े मैं चुनती, सिलकर जिन्हें अहर्निश मैं जलती। अपने सितारों पे अनदेखी की धूल चढ़ाती हूँ अपनों वाले पे रोज़ मन्नती फूल चढ़ाती हूँ। देह ज़वाब दे तो दे, पर मन करे मनमाना, सपनों पे बुझने को अड़ा रहे ये परवाना। मेरी पल