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संजीवनी (Hindi Short Story)

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अपने पचासवें बसंत में हृष्ट-पुष्ट काया के धनी सुरेश कई दिनों से मामूली सर्दी-खाँसी से जूझ रहे थे। उनको लगा कि मौसमी लक्षण हैं, समय के साथ चले जाएँगे। समय बीता, मगर लक्षण बिगड़ते गए। वो अपनी सहने की क्षमता को बढ़ाना शुरु किए। मुस्कान ओढ़ लिये। मुस्कान का परदा अंदर चलने वाली हलचलों को दबा देता। एक ऐसा परदा, जिसके एक पार ख़ुश दिखने का अभिनय था, दूसरी ओर था-अथाह असमंजसों का सागर, जिसमें काली संभावनाएँ बारम्बार मन रूपी किनारे को भय से भींगा जातीं। अब वो किन-किन लक्षणों की दवाइयॉं खाते? बुख़ार आने पर पैरासिटामोल, ख़ासी-जुक़ाम का सिरप, बदनदर्द का दर्दनाशक। अब दवाओं का असर कम होने लगा था। साँस फूलना शुरु ! अनुलोम-विलोम भी पस्त हो रहे थे!! बुख़ार के सामने दवाई का दरबान लाचार हो चला था। बुख़ार बेधड़क अपनी मर्ज़ी से आ-जा रहा था। दम घुटता जा रहा था। बर्दाश्त से बाहर होने पर सुरेश ने आपात की घंटी बजाई, और मदद की गुहार लगाना शुरु किया। फ़ोन में सहेजे आपात दूरभाषों में सबसे अधिक क़रीबी नेता जी को फ़ोन लगाए। सब कुछ किये थे: रैलियों में भीड़ बटोरना, नारे लगवाना, सबको वोटिंग बूथ तक ले जाना। नेता से विधायक 

Book Trailer I गूँज: दबते स्वरों की I कहानी संग्रह I भारतीय ज्ञानपीठ

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‘गूँज: दबते स्वरों की’ (कहानी संग्रह) भारतीय ज्ञानपीठ

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सादर प्रणाम,   बिना चाहे, बिना सपना देखे भी कुछ अच्छी चीज़ें जीवन में हो जाती हैं। चाहे वो सफ़र में किसी ऐसे अनजान आदमी का मिलना हो, जो जीवन में बहुत गहरी छाप छोड़ता हो। चाहे पुश्तैनी ज़मीन को खोदते समय हुण्डी का मिलना हो, वैसे यहाँ तो मन के किसी ताख पर लालच की पोटली रखी रहती है। हम जैसे बौने बुद्धि और नौसिखियों का पन्नों पर उतरना भी हुण्डी के मिलने जैसा ही है। इसकी कल्पना न तो कभी की गई थी, न ही यह हमारे जीवन के ‘To Do List’ में थी।    ‘गूँज: दबते स्वरों की’ (कहानी संग्रह) केवल चलने में विश्वास की यात्रा का ठहराव है। यह यात्रा अपनों ने शुरु करवाई, अपनों की बातें लिखी; प्यार पाई, दुलार और सीख से निखरी।     भारतीय ज्ञानपीठ से इसका प्रकाशन हमारे लिए अंधों के हाथ बटेर का लगना है। हम इसको बड़ी ही विनम्रतापूर्वक, पैर ज़मीन में गड़ाकर, अपनों के आदेश के रूप में ले रहे हैं। ‘गूँज’ रूपी पड़ाव को आपसे साझा करते हुए हमें बेहद ख़ुशी है, साथ ही है भारी ज़िम्मेदारियों का बोध।  लगभग १ मिनट के इस विडीओ में आपको इस यात्रा की झाँकी देने का प्रयास है। 'गूँज: दबते स्वरों की' क़रीबी पुस्तक भण्डारो

पाँच कदम

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“ बहुत आदमी कमाया था किशोर, देखो पूरा घाट पट गया है विदाई देने।” “ बड़ा ही हँसमुख था, अच्छे लोगों को बुलाने की ज़ल्दी भगवान को भी रहती है।” “ हाँ भैया, क्या पता वहाँ भी कलियुग आ गया हो, तो भगवान संतुलन  बनाने के लिए अच्छे लोगों को ज़ल्दी-ज़ल्दी खींच रहे हों।” “ भगवान सबको सब कुछ नहीं देता...देख लो...किशोर को अच्छा जिग़र दिया, ख़ूब जाँगर दिया, लेकिन क़िस्मत नहीं दिया।” “ कोई कह दे कि यह झूठ है,...कोई पुतला है, जो जल रहा है। इतना अच्छा इंसान कहाँ मिलता है।”    अमूमन कम पसन्द आदमी के भी प्रभु को प्यारे होने पर उसके विषय में अच्छी ही बातें निकलती हैं। यहाँ किशोर जैसा वफ़ादार, कर्मठी और संघर्षशील आदमी चिता पर लेटा था। जिसका शरीर कुछ ही पलों में पंच तत्व के हवाले होने वाला था। वह बहुत सारे सवालातों को अपने पीछे छोड़े जा रहा था। बहुत सारे लोग अपने यहाँ नियति के पर्दे के पीछे अपनी अकर्मण्यता, अपने मतलबीपन को बड़ी सफ़ाई से छुपा जाते हैं। अपनी ख़ामियों को 'होनी' का नाम देना बहुत आसान है। किशोर को विदाई देने जितनी भीड़ उमड़ी थी, समय रहते उनमें उसको बचाने का भाव बहता, तो शायद आज यह दिन न दे

श्री विवेकानंद सर जी को सादर वंदन।

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 जमे रहो कर्तव्य कुरुक्षेत्र में, कम्पित क़दमों से जग हिला कहाँ है? थामो साँसें कठोर डगर में, संकल्प जहाँ, सब मिला वहाँ है। उम्मीदों पे भारी पड़ने का ही जीवन नाम है, इनसे अपनी आवृत्ति मिलाओ, ये दर्शन की खान हैं। राजर्षि वृक्ष की इन शाखा पे, ऋषि-संस्कारों के फल लगे, धन्य किए राजा की बग़िया, बाग़बान की बाहों के बल बने। यह शाखा अब बन गई है बग़िया, भले ही दूसरे जहान हैं, नव धरा नवल स्वप्न बोने को, काफ़ी ये कल्पतरु महान हैं। प्रज्ज्वलित रहे ज्ञान का, आशा का दीपक अविरल अनंत, अंधेरी राह पे जोह रहे हैं जिनको, वही प्रकाश गुरु विवेकानंद। -आपका शिष्य नवीन

आदरणीय श्री सुभाष सिंह सर जी का वंदन

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  ये भोर में जब ललकार भरें, जीवन-सुबह में रणभेरी बजती है, इनकी एक पुकार पे, करतल ध्वनि बिजली-सी कड़कती है। जो मधुर मुस्कान का इशारा हो जाए, संध्या शांत होकर धरा धर ले, संध्या हाल में मंत्र मूसलाधार हो जाए, रात्रि भी मंत्र से मन भर ले। घर से दूर एक घर देते, और देते पिता का प्यार, भविष्य सँवारते बच्चों का, नज़रें लेते सबकी उतार। भविष्य गढ़ने बच्चों का, अपनाते हर हथकण्डे हैं, प्यार से आकार पकड़ लो वरना, गुरु-कुम्हार के डंडे हैं।  हर मुश्क़िल में साथ ये रहते, बच्चों की छतरी बनकर, हाशिए पर भी हौंसला भरते, ऊर्जा की गठरी बनकर। श्रम कठोर और धीरज रखने की, स्फटिक माला जपवाते हैं, जिन मुख से सुभाषित ही होता, उन गुरु सुभाष को सिर नवाते हैं। सादर प्रणाम -आपका शिष्य नवीन