पाँच कदम

“ बहुत आदमी कमाया था किशोर, देखो पूरा घाट पट गया है विदाई देने।”

“ बड़ा ही हँसमुख था, अच्छे लोगों को बुलाने की ज़ल्दी भगवान को भी रहती है।”

“ हाँ भैया, क्या पता वहाँ भी कलियुग आ गया हो, तो भगवान संतुलन  बनाने के लिए अच्छे लोगों को ज़ल्दी-ज़ल्दी खींच रहे हों।”

“ भगवान सबको सब कुछ नहीं देता...देख लो...किशोर को अच्छा जिग़र दिया, ख़ूब जाँगर दिया, लेकिन क़िस्मत नहीं दिया।”

“ कोई कह दे कि यह झूठ है,...कोई पुतला है, जो जल रहा है। इतना अच्छा इंसान कहाँ मिलता है।” 

  अमूमन कम पसन्द आदमी के भी प्रभु को प्यारे होने पर उसके विषय में अच्छी ही बातें निकलती हैं। यहाँ किशोर जैसा वफ़ादार, कर्मठी और संघर्षशील आदमी चिता पर लेटा था। जिसका शरीर कुछ ही पलों में पंच तत्व के हवाले होने वाला था। वह बहुत सारे सवालातों को अपने पीछे छोड़े जा रहा था। बहुत सारे लोग अपने यहाँ नियति के पर्दे के पीछे अपनी अकर्मण्यता, अपने मतलबीपन को बड़ी सफ़ाई से छुपा जाते हैं। अपनी ख़ामियों को 'होनी' का नाम देना बहुत आसान है। किशोर को विदाई देने जितनी भीड़ उमड़ी थी, समय रहते उनमें उसको बचाने का भाव बहता, तो शायद आज यह दिन न देखना पड़ता। 

  किशोर होनहार और हमदर्द क़िस्म का इंसान था। अपने बड़े-से-बड़े दर्द के लिए उसने कभी आह भी न भरी, लेकिन अपनों की ज़रा-सी पीड़ा पर भी वह जागरण कर देता । पढ़ाई में तो उसका ख़ूब मन लगता था, लेकिन किताबें उसके पास आने से मना करतीं। पढ़ाई के लिए मन के साथ-साथ धन भी तो होना चाहिए न। तंगी में भी किशोर नियति से ख़ूब लड़ा, और लड़कर कला विधा में स्नातक की डिग्री ली। साँसें शरीर को जीवित रखती हैं, मगर आदमी ज़िंदा रहता है जुनून से। किशोर में वही जज़्बा था, मगर उसके सपने में चाँद-तारे नहीं आते थे।  वह खुली आँखों से ज़मीनी ख़्वाब देखता। उसका मक़सद सरकारी नौकरी का था। क्योंकि बी॰ए॰ करने वालों के लिए निजी क्षेत्र के दरवाज़े बड़े सँकरे होते हैं। बी॰ए॰ चाहे कितना हूँ मेहनत से किया गया हो, आम जनता पहली नज़र में उसको ‘बेक़ार (बी॰) आदमी (ए॰)’ की तरह ही देखती है। नौक़री देने वाले भी यही राय रखते हैं। किशोर ने सोचा कि अगर वो सरकारी के लिए हाथ-पाँव मारता, तो उसको ज़रूर कुछ-न-कुछ मिल जाता, जिसकी बदौलत वह अपना और अपने माता-पिता का जीवन पार लगा सकता। बाज़ार में चाय की दुकान पर लोग चाय पीते थे, किशोर अख़बार। वो नौक़री के इश्तेहार की चाह में अख़बार के पन्ने-पन्ने ऐसे पढ़ जाता था, जैसे कोई ख़ाली आदमी चाय की दुकान पर दिनभर बैठकर कुल्हड़-पे-कुल्हड़ फोड़ डालता है। मिट्टी के कुल्हड़ की सोंधी ख़ुशबू जब चाय में अर्क की तरह उतरती है, तो किसी का मन कहाँ भरता है। भरपूर समय और भरी जेब हो, तो आदमी चाय की दुकान का डीह बन ही जाता है। किशोर भी खलिहर था, समय से भी,जेब से भी। वह चाय तो नहीं पी सकता था, इसीलिए वो नौक़री की चाय से भरा हुआ पन्ना ढूँढता। कभी अगर सही विज्ञापन दिख गया, तो किशोर की आँखें उम्मीद की रोशनी से जगमगा उठतीं। ख़ुशी के मारे उस रोशनी पर अश्क़ का पर्दा भी आ जाता। यह पर्दा तब फट जाता, जब वह सरकारी नौक़री में किसी-न-किसी कारण से नामंज़ूर हो जाता। किशोर फटे हुए उस पर्दे को सबसे छिपा जाता। फिर वही चाय की दुकान पर अख़बार का खंगालना। 

 २ साल अख़बार की ख़ाक छानने में निकल गए। किशोर को लगा कि अब तो कैसे भी दो रूपये आने चाहिए। उसने एक साहूकार के यहाँ नौक़री कर ली। महीने ८ हज़ार वेतन पर। सेठ जी लोगों को ब्याज पर पैसे बाँटते, किशोर उन पैसों की सूद समेत वसूली करता। किशोर बहुत ही मृदुभाषी, संजीदगी वाला आदमी था। उसका व्यवहार उसकी शारीरिक संरचना के उलट था। भारी भरकम, गठीले शरीर वाले किसी भी आदमी का अपनी क़ुदरती शारीरिक संरचना का ग़ुमान होना सहज है। कोमल व्यव्हार और कठोर शरीर उसको वसूली में दोहरे तरीक़े से मदद करते। शरीर अपने आप ही वज़न बनाती, और मीठी बोली लोगों का दिल जीत लेती। लोगों को लगता था कि वो साहूकार से नहीं, किशोर से ही पैसे ले रहे हैं। किशोर साहूकार और कर्ज़दारों के बीच की वो कड़ी बन गया, जिसके एक ओर साहूकार के लिए लोगों की मज़बूरी में मौक़ापरस्ती थी। किशोर की कड़ी अपने कोमल व्यवहार से इस मौक़ापरस्ती को परहित में बदल देती। जब पैसा ख़ूब आ रहा हो, तो साहूकार को अपने को पीछे रखने में आपत्ति कैसी। वह किशोर को बेटे की तरह मानते थे। किशोर की मेहनत कर परिणाम यह हुआ कि १० सालों में लूना से चलने वाले सेठ जी लैंडरोवर में सवार होकर लंबोरघिनी के सपने देखने लगे। २ कोठरी के घर की जगह तीन मंजिली कोठी तन गई। पैसा बढ़ा, उसको खोने का डर भी। वही, जान-माल का ख़तरा! वो अब अंग रक्षक भी रखने लगे। समय से साथ किशोर की भी पारिवारिक तरक़्क़ी हुई। बीवी और दो बच्चे। किशोर अब सेठ जी के यहाँ नौक़री ही नहीं कर रहा था, उसको वफ़ादारी का नशा भी ख़ूब चढ़ चुका था। सेठ जी ने किशोर का मान तो ख़ूब बढ़ाया, पर वेतन नहीं। वफ़ादारी के आगे वो घर की तंग हालत को भी नज़रअंदाज़ कर देता। कर्मठी और सफल आदमी को अपने यहाँ कौन नहीं रखना चाहेगा। दूसरे साहूकार भी किशोर को कई गुना वेतन पर काम करने का प्रस्ताव देते, जिनको किशोर बड़ी ही विनम्रता से नकार देता। उसके सेठ जी ने वचन दे रखा था, 

"तुम मेरे बेटे हो, तुम्हारा परिवार मेरी ज़िम्मेदारी है। कोई भी ज़रूरत हो, मैं तुम्हारे लिए हमेशा खड़ा रहूँगा।" 

सेठ जी का यह वचन किशोर का बीमा था। उसको लगता था- इतने पैसे हैं, बच्चों की पढ़ाई, शादी या फिर चाहे कोई मुसीबत, सबको पार किया जा सकता था। 

   एक दिन किशोर वसूली पर गया था। अचानक वो असहज महसूस करने लगा। उसके हृदय में बेतहाशा पीड़ा! बिच्छू के डंक के समान पीड़ा फैलती ही जाती!! और वह अपना होश गँवाकर ज़मीन पर गिर पड़ा। कर्ज़ लिये हुए जिन लोगों में वो गया था, उन लोगों ने उठा-पठाकर किशोर को हस्पताल पहुँचाया। सेठ जी को भी ख़बर मिली। वे भी एक पाँव हस्पताल पहुँचे। उनको अपने मानस पुत्र के साथ किसी अनहोनी का डर था। हस्पताल को सेठ जी और किशोर के बीच के मानस पिता-पुत्र के सम्बन्धों की जानकारी थी। इसीलिए हस्पताल ने सेठ जी के नाम पर चिकित्सा पुरज़ोर शुरु कर दी। सेठ जी ने डॉक्टर साहब से पूछा, 

"डॉक्टर साहब, कोई बड़ी दिक़्क़त तो नहीं है?"

"सेठ जी, दिक़्क़त तो है, लेकिन आपके लिए घबराने जैसी कोई बात नहीं है। एक छोटा-सा ऑपरेशन करना पड़ेगा। फिर आपका किशोर एकदम ठीक हो जाएगा।"

'ऑपरेशन' शब्द सुनते ही सेठ जी के कान खड़े हो गए! रोंगटेऔर भरभरा उठे !! कई डरों को पार करते हुए उन्होंने डॉक्टर साहब से हिचकिचाते हुए पूछा,

"जब दिक़्क़त बड़ी नहीं है, तो ऑपरेशन क्यों?" 

"अगर ऑपरेशन नहीं होगा, तो जान का ख़तरा हो सकता है। ऑपरेशन का ख़र्चा आपके लिए तो गेहूँ के गल्ले में से कुछ दाने बराबर है। इसीलिए मैंने कहा कि आपको घबराने की ज़रूरत नहीं है।" 

सेठ जी ऊपर-नीचे देखने लगे। दुविधा थी कि बिना ख़र्चे की राशि के बारे में जाने वो ऑपरेशन की हामी कैसे भर देते। उनकी हैसियत के लिए ख़र्चा पूछना भी अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को खण्डित करने जैसा था। फिर भी पैसे के बारे में पूछने से वो अपने आपको रोक नहीं सके। लड़खड़ाते हुए स्वरों में, बढ़ी हुई धड़कन के साथ,

"ख़र्चा ... डॉक्टर साब...."

डॉक्टर साहब थोड़ा हड़बड़ा गए। उनको सेठ जी से इस सवाल की उम्मीद थी,, मगर ऑपरेशन की मंज़ूरी के बाद। ख़र्चा बताना तो था ही, मंज़ूरी के बाद या पहले। क्या फ़र्क पड़ता है। डॉक्टर साहब, सीधे-सीधे,  

"लगभग २ लाख पकड़ लीजिए। हमलोग सोच रहे थे, इसी लगे कर देते हैं।"

सेठ जी ख़तरा जानते हुए भी तुरंत हामी नहीं भरे। डॉक्टर साहब से थोड़ा टाइम माँगे। किशोर को लेकर उसके घर गए। पत्नी को ढाढस बँधाए और बोले कि किशोर को १-२ महीने आराम करने को डॉक्टर साहब बोले हैं। किशोर और उसकी पत्नी को सेठ जी पर वैसे ही विश्वास था, जैसे हवा में उछाले हुए नन्हें बच्चे को अपने पिता की पकड़ पर होता है। भरोसा- पिता जी गिरने नहीं देंगे। किशोर बहुत दिनों काम पर नहीं गया। कुछ दिनों बाद उसको वैसा ही दर्द दुबारा हुआ, और फिर उसी हस्पताल में पहुँचा। किशोर की पत्नी ने सेठ जी को भी ख़बर दिलवाई, मगर इस बार सेठ जी हस्पताल नहीं पहुँचे। हस्पताल में डॉक्टर साहब ने किशोर की पत्नी को पूरा क़िस्सा सुनाया, और कहा कि अगर ज़ल्द ऑपरेशन नहीं हुआ, तो ठीक नहीं होगा। किशोर की पत्नी  सीधे सेठ जी के घर मदद माँगने पहुँची। वहाँ पर वो किशोर के मानस पिता से मिलने गई थी। उसकी भेंट एक हृदय विहीन, ठण्डे साहूकार से हुई, जो पति के जीवन का मोल नहीं समझना चाहता था। सेठ जी का व्यवहार बड़ा निराशा जनक था। ऐसे, जैसे कोई भीख माँगने गया हो। सेठ जी, 

"किशोर को मैं मासिक पगार तो देता हूँ, अब इतना पैसा मैं लगा दूँगा तो भरपाई कैसे होगी?"

"सेठ जी, आप उनकी जान बचा लीजिए, आपके यहाँ आजीवन काम करके चुका देंगे।"

"नौकरी हट्टे-कट्टे किशोर को दी थी, बीमार को नहीं।"

सेठ जी की जीभ का कटीलापन बढ़ता जा रहा था। उन्होंने किशोर की पत्नी से पीछा छुड़ाने के लिए वो बात बोल डाली, जिसको कोई भी पत्नी स्वीकार नहीं कर सकती। उनकी जीभ की कटारी सती सावित्री की आशा को काटने जैसी थी। 

"किशोर का क्या भरोसा, कितने दिन चले।"

ज़वाब के लिए कुछ बचा नहीं था। किशोर की पत्नी आँसू पोंछते वहाँ से निकली। कल के मुँहबोले पिता जी पैसे पे आ गए थे।

  किशोर की पत्नी हस्पताल में किशोर से सेठ जी वाला पूरा प्रकरण छिपा गई। लेकिन उसने किशोर को आगाह कर दिया कि हमें इलाज़ के लिए २ लाख जोड़ने होंगे। किशोर ने तो ऐसे कई २ लाख सेठ जी की तिजोरी में अपने हाथों से जमा किया था। वो उमंग में सेठ जी से मिलने गया। लाख प्रयासों के बावज़ूद वो सेठ जी के दर्शन नहीं कर पाया। किशोर ने एकदिन अपनी पत्नी से बोला,

"लग रहा है सेठ जी मेरी किसी बात से नाराज़ हो गए हैं। पिछले १ हफ़्ते में रोज़ उनके घर जाता हूँ। रहते हुए भी न मिलने का बहाना बना देते हैं।"

  डॉक्टर साहब ने किशोर की पत्नी से जल्दबाज़ी करने के लिए कहा था। किशोर को सेठ जी की असलियत से परिचित करवाना ज़रूरी था। ताकि वो कहीं और हाथ-पैर मारें। उसने हृदयाघात का जोख़िम सिर मोल लेते हुए किशोर को सारी बातें बताई। । किशोर हृदय पर लगे इस घाव को झेल गया। अब जद्दोजहद शुरु हुई-पैसे जोड़ने की। अपने सेठ जी से मदद की गुहार लगाना, अंधे के आगे रोना, अपना दीदा खोना वाली बात थी। सबसे पहले उसने उन साहूकारों को नौकरी के लिए संपर्क साधा, जो उसको अपने यहाँ रखना चाहते थे। लेकिन कमज़ोर दिल वाले से सौदा कौन करे। दुगुने-तिगुने वेतन का लालच देने वाले सेठ लोग उसको औने-पौने वेतन पर भी रखने को तैयार न थे। फिर किशोर ने दोस्तों और रिश्तेदारों का दरवाज़ा खटखटाया, उधार के लिए। किशोर की पैसे वापस करने की क्षमता के मुक़ाबले किशोर की जान हल्का मना रही थी। हर जगह से किशोर को निराशा ही मिली।

पैसे के आभाव में किशोर नियति भरोसे बैठ गया। जिनको वो अपना बीमा समझता था, उन्होंने नियम और शर्तों में किशोर को ऐसा उलझा दिया कि उसका जीवन से भरोसा ही उठ गया। कंधे अगर भारी हों, तो आदमी हौंसले से दूर तक उड़ान भर सकता है। मगर भारी मन के आदमी को थकान पग-पग ठोकर मारती है।

एक दिन किशोर के पीड़ित हृदय में ऐसी असह्य पीड़ा उठी कि किशोर उठ न सका। उसकी अंतिम यात्रा में हुजूम उमड़ा। सेठ जी की तिजोरी किशोर के पसीने से ही भरी थी। किशोर के हाथों पैसा देने वाले हजारों कंधे उसकी अंतिम यात्रा में अपने पाँच कदम का सहारा देने पहुँचे। सेठ जी भी पहुँचे। पूरे काफ़िले के साथ। बिना किसी पछतावे के साथ।  उनको कोई और किशोर मिल सकता था, लेकिन कुछ के जीवन का किशोर इकलौता चाँद था। इतनी भीड़ और नम आँखों को देखकर कोई भी कह सकता था,

'किशोर ने आदमी बहुत कमाया था।'


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टिप्पणियाँ

  1. Ati sundar kahani
    Ye bebasi, lalach aur Duniyadari ki kahani h aur hame sikhati h ki kisi par andh viswas nahi karna chahiye

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  2. कहानी बहुत ही मार्मिक है सेठ जी के द्वारा कृत्य बहुत ही घटिया है

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  3. Beautiful story again Naveen. Keep writing your writing is very powerful and transports me when I read your work. I think I knew this person. Not just once may be in bits in so many people including me. Sometimes I am Kishore and sometimes Seth Ji. I would like to be neither. Well done Naveen!

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  4. अति सुंदर कहानी इस कहानी से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि नौकरी हमें नौकरी की तरह ही करनी चाहिए ना कि अंध सेवा भाव से

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