मोहम्मदपुर

 नवरात्रि में हर जगह होते जगराते। जगह-जगह लगे पण्डाल। उसमें प्रतिष्ठित देवी की प्रतिमाएँ। श्रद्धा में सराबोर जगराते में स्वयं को शून्य में विलीन करने जैसी अनुभूति करते भक्तगण। मैं भी अपने परिवार के साथ शाम को घर के पास वाले पण्डाल में दुर्गा माँ को अपने हिस्से का समर्पण चढ़ाकर वापस आया था। खाना खाकर सुबह की योजना बनाने में मैं और मेरी धर्मपत्नी जुटे थे। आस-पास के पण्डालों में चल रहे भक्ति गीत अभी भी हमारे घर के अंदर आकर हमें भक्ति भाव में डुबाए हुए थे। तभी मेरा बेटा करन अपने कमरे के अंदर से ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाने लगा, 

"मम्मी, सुन रही हो? ... डैडी, कहाँ हो ? मेरे कमरे में आओ। "

 हम दोनों लोग सेकण्ड की सुई से भी तेज़ उनके कमरे में पहुँचे। सब सामान्य था। करन ध्यान केंद्रित कर रहे थे, लेकिन अपनी क़िताब में नहीं, कहीं और। क्या बात है, यह पूछने पर, करन ने बोला, 

"मम्मी, यह जो पियानो जैसी आवाज़ सुनाई दे रही है, कहाँ से आ रही है? बीच-बीच में कुछ लोग आपस में डायलॉगबाज़ी भी कर रहे हैं।  वे गाने भी गा रहे हैं, लेकिन जागरण से एकदम अलग गाने हैं इनके। "

मैंने करन के बाल सहलाते हुए बोला, "बेटा, कल चलोगे देखने? यह रामलीला है। जो आपको पियानो जैसी लग रही है, वह हारमोनियम की मीठी आवाज़ है। "

"डैड, रामलीला क्या होती है ?"

करन, इनका नाम हमें 'कारण' रखना चाहिए था। हर चीज़ के कारण, उसके कारण, और उसके कारण। अंत में जब तक उनको उत्तर में क्षमा का सूरज न दिखे, प्रश्नों की टिपिर-टिपिर बारिश करते ही जाते हैं। 

रामलीला ! 

कैसे मैं समझा देता, जिसे अब तक हम ही नहीं समझ पाए हैं ठीक से। अपने बीच के ही लोगों को राम-लखन बनते देख यह सहज स्वीकार हो जाता है कि घटि-घटि राम हैं। उम्मीद जगती कि बाहरी रूप से ही सही राम बना जा सकता है। अगर अंदर से भी लोग राम बन जाएँ, तो त्रेता लौट आए। किसी अपरिचित व्यक्ति के रूप में मैंने राम को कब देखा था? ठीक से तो याद नहीं, पर शायद उस समय मैं १० साल का था। अयोध्या की रामलीला में। मैं अयोध्या गया था, अपनी दादी के साथ। दादा-दादी से कहानियाँ सुनने का रोमांच तो जग जाहिर है, मगर उनका हाथ पकड़ तीर्थ कर पाना जीवन के विरल अवसरों में से एक है। उस सुनहरी याद पर समय की कुछ धूल भले ही पड़ गई हो, लेकिन धूल की बारीक़ परत से आज भी एक बात झाँकती है-अयोध्या के मंदिरनुमा घर। मुझे याद है, कैसे हम लोग हर घर को मंदिर समझकर अंदर चले जाया करते थे। राम-जानकी-लखन की मुस्कुराती हुई मूर्तियाँ, और हनुमान जी चरणों में सेवा स्वरूप बैठे हुए। घर के अंदर रहने वाले लोग, वे शायद हमें ही भगवान राम मानते हों। उसी श्रद्धा से वो हाथ जोड़े खड़े रहते, एक मुस्कुराहट के साथ। मानो ‘अतिथि देवो भव:’ का सजीव चित्रण हमारे सामने चल रहा हो। अगर कोई ऊबे हुए मन से हमें देखता, तो हम अगले मंदिर यानि कि घर की चौख़ट लाँघने से पहले कई बार सोचते। 

जब मैं ख़यालों के चौख़ट से बाहर निकला , करन मेरे पैरों से झूलते हुए, मुझे झकझोरते हुए,

 "डैडी, अभी मम्मी ने बताया कि आपको अयोध्या की रामलीला बहुत पसंद है। आप मम्मी को बहुत पकाते हैं, अपनी दादी के साथ वाली बातों से। मुझे भी देखनी है अयोध्या की रामलीला।"

करन को मैंने काफ़ी समझाया, फ़ुसलाया। अगले साल चलेंगे। लेकिन वे अपनी 'भीष्म प्रतिज्ञा' पर अड़े रहे-पहली रामलीला अयोध्या वाली, और वो भी इसी साल। पत्नी को मनाने के दाव-पेंच तो मैंने सीख लिया है, मगर करन के सामने मैं चित हो जाता हूँ। अगले दिन हमने तय किया कि अयोध्या चलते हैं। अगर रावण वध नहीं, तो भरत मिलाप ही सही। ट्रेन की टिकट तो मिलने से रही, हम बस से ही अयोध्या जाएँगे। अगले दिन की बस की टिकट कटाई। अरसों हो चुके थे जब मैंने कभी अफ़रा-तफ़री में यात्रा की थी। लेकिन बैल कितना हूँ बूढ़ा क्यों न हो जाए, अपनी हरवाही नहीं भूलता, क्योंकि हल जोतना ही उसका जीवन हो जाता है।

 हम लोग बस में बैठे। करन के कारण मुझे भी अच्छा लग रहा था। अब मैं भी अपनी उन यादों को दोहराने वाला था, जहाँ आदमी अपने पूर्वज से मिलता है, हनुमान गढ़ी में। जहाँ का हर घर मंदिर है। उसमें वास करने वाला हर आदमी पुजारी है। अब ख़याल आता है कि कितना अच्छा होता अगर पूरे संसार का हर घर मंदिर होता! अपने घर में ही लोग सुकून पाते। जिसको जिस रंग-रूप, आकार-निराकार में आस्था होती, घर में बसा सकता। लोग भगवान को या तो अपने घर में ढूँढते, या फिर अपने शारीरिक मंदिर में अपनी आत्मा से सारोकारकर ब्रह्म बन जाते। भगवान से अपने मन की बातें अपने ही मन में न  करके, प्रभु से खुलेआम कर पाते। उनको रोज़ सुबह उठते मातर धन्यवाद देते, जो एक दिन का जीवनदान उन्होंने और दिया। ख़ुदा न ख़ास्ता, जो दिन सही नहीं जाता, उस शाम भगवान का मुस्कुराता चेहरा देख ‘मौनम् स्वीकार लक्षणम्’ के आधार पर हम उनकी रज़ा मान लेते। कई लोगों को अनायास ही कोसने से कोसों दूर रहते। कोई गुबार होता, उसका नारियल धाँय से मंदिर में फोड़ शांति पा लेते। 

  बस दशहरे में सजे पण्डालों को देखती चलती। या तो वो रेंगती, या फिर रुकी हुई रहती। हर २-३ घंटों के बाद ड्राइवर महाशय हमें चाय-पानी के लिए ढाबों पर रोक ही दिया करते थे। ख़याल आया कि जब प्रभु श्री राम ने १४ वर्ष का वनवास काटने का धैर्य रख लिया था, तो क्या मैं रामलीला के लिए १४ घण्टों की यात्रा नहीं झेल सकता! मेरे अंदर भी तो राम का अंश है। मैंने चुनौती के रूप में लिया, और आगे की यात्रा का आनंद उठाने लगा। हमने नज़र बदली, तो नज़ारे भी बदलने लगे। बस की खिड़की के बाहर बहारें थीं। हर पण्डाल को दूर से ही देखकर वहाँ के लोगों की माली हालत का आकलन लगाया जा सकता था। भव्य विशालकाय, कई मंजिले आसमान से बातें करने वाले, जगमग-जगमग जलने वाले। बाँस-बल्लियों के सहारे कंकाल-से दिखने वाले, सब के सब पण्डाल वहाँ के लोगों की ज़ेब की पड़ताल दे रहे थे। चाहे मंदिर-मस्जिद हों या तम्बू वाले पण्डाल, पेट भरने के बाद ही छलक पाते हैं। भोर के दिल्ली से चले, १३ घंटे की यात्रा पूरी हो चली थी। शाम का समय। जगमग इतनी, मानो तारे ज़मीन पर उतर आए थे। चंद घंटे और बचे थे अयोध्या पहुँचने में। मंज़िल के समीप पहुँचकर धैर्य छूटने लगता है। करन सो चुके थे। पत्नी मौन गुस्से से मेरी ओर घूरे जा रहीं थीं। जैसे स्टीयरिंग मेरे हाथ में हो।  एकाएक बस रुकी ! लेकिन वहाँ कोई ढाबा न था। सन्नाटा था! थोड़ी देर बाद ड्राइवर महाशय ने बताया कि बस ख़राब हो गई, हम लोगों को पहुँचाने के लिए वे दूसरी गाड़ी का इंतज़ाम कर रहे हैं। अब तो मैंने इंतज़ार का कम्बल ही ओढ़ लिया। जगह सुनसान थी। डर भी लग रहा था। कहीं ड्राइवर महाशय ने जान बूझकर तो नहीं ...। मुझे कहीं से रामलीला के संवाद सुनाई दे रहे थे। मैंने सोचा कि चलो करन को अयोध्या में भरत मिलाप से पहले रावण वध दिखाते हैं। ड्राइवर जी ने बताया कि सड़क से सटा हुआ एक गाँव है-मोहम्मदपुर। वहाँ के लोग हर साल रामलीला करते हैं। मोहम्मदपुर और रामलीला! ड्राइवर ने विस्तार से बताया। 

"अर्रे भई! वहाँ सारे के सारे मौलाना हैं, वही राम-सीता बणे हैं। दिमाग़ ख़राब ना कर, बस ने वैसे ही ख़राब कर रक्खा (रखा) है।"

भाषा तो संस्कृति का हिस्सा है, और हर संस्कृति अलग होती है। कोई गलत नहीं होती। मगर लठमार भाषा सुनकर मैंने आगे की तहक़ीक़ात ख़ुद करने की ठानी। पत्नी और करन को बस में छोड़कर मैं मोहम्मदपुर के रामलीला मैदान में अकेले गया। उस हैरतंगेज़ मंज़र को देख मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं। मंच के नाम पर एक चटाई थी। राम हों, लखन हों, सब-के-सब शक़्ल से, वेष-भूषा से मौलाना ही थे। उनके राम-लखन के पास मुकुट न था, साज-सज्जा एक न थी। ढोल-मजीरे और हारमोनियम से अधिक लय उनकी तालियों में थी। सबसे बड़ा यंत्र उनके पास माइक का था। एकदम मग्न होकर सब रामलीला कर रहे थे, देख रहे थे। कुछ भी न होते हुए भी उनके पास राम भक्ति थी। मुझे याद आया कि इंडोनेशिया जैसे राष्ट्र में भी ऐसी ही अनोखी रामलीला होती है, बाली में। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह तस्वीर देश से कैसे छिपी रह जाती है। इन तस्वीरों तक क्यों नहीं मीडिया पहुँच पाता ? मैंने हिम्मत बढ़ाई और एक आदमी से पूछा,

"भाई साहब, आप लोग रामलीला कर रहे हैं?"

"भाई साब, जो दीख रहा है, वही पूछ रहे हो!"

"नहीं-नहीं, पहले कभी सुना नहीं कि आप लोग भी...  इसीलिए। "

"भाई जान, जब तक आप टी॰वी॰ देखते रहोगे, यह सब कैसे देख पाओगे। टी॰वी॰ में तो चीज़ें कैमरे से छनकर दिखती हैं। दरसल हाईवे से यह सब नहीं दीख पाता।  जब तक आप कच्ची सडकों पर नहीं चलेंगे, तब तक आप सही सूरत नहीं देख पाएँगे।"

मैंने उस रामलीला को देखता रहा, जिसकी देश को आज ज़रूरत है। मैं भूल-सा गया कि हाइवे पर बस में मेरा परिवार भी है। तभी पत्नी का फ़ोन आया। मैं भागे-भागे बस की ओर गया। दूसरी बस आ चुकी थी, जो हमें अयोध्या तक ले जाने वाली थी। हम अयोध्या देर रात पहुँचे।

अगले दिन मैंने उन यादों को ताज़ा किया, जिनको अपनी दादी की उँगली पकड़कर बटोरा था। हम लोग शाम को अयोध्या की रामलीला देखने गए। टी॰वी॰ कैमरों, पत्रकारों से पूरा मैदान खचाखच भरा था। रामलीला मंच पर हो रही थी। राम इतने दूर थे कि धुंधले-से नज़र आ रहे थे। मैदान में जगह-जगह टी॰वी॰ भी लगी थी। मेरे बग़ल वाली टी॰वी॰ में मैं राम को अधिक स्पष्ट देख पा रहा था। टी॰वी॰ में, कैमरे से छनकर। कसक़ बस इतनी थी, मैं करन को मोहम्मदपुर की रामलीला नहीं दिखा पाया।





टिप्पणियाँ

  1. नवीन द्वारा लिखित मोहम्मदपुर की यह कहानी हिंदू मुस्लिम भाईचारे की एकता का प्रतीक है l जिसे बड़े ही सरल शब्दों में संजोया गया हैl जहां एक तरफ लोग आपसी बंटवारे को प्रोत्साहित करते हैं इस कहानी के माध्यम से लेखक ने उनको आईना दिखाया हैl कृपया आगे भी आप ऐसी कहानियां लिखते रहें l धन्यवाद

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