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मोहम्मदपुर

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 नवरात्रि में हर जगह होते जगराते। जगह-जगह लगे पण्डाल। उसमें प्रतिष्ठित देवी की प्रतिमाएँ। श्रद्धा में सराबोर जगराते में स्वयं को शून्य में विलीन करने जैसी अनुभूति करते भक्तगण। मैं भी अपने परिवार के साथ शाम को घर के पास वाले पण्डाल में दुर्गा माँ को अपने हिस्से का समर्पण चढ़ाकर वापस आया था। खाना खाकर सुबह की योजना बनाने में मैं और मेरी धर्मपत्नी जुटे थे। आस-पास के पण्डालों में चल रहे भक्ति गीत अभी भी हमारे घर के अंदर आकर हमें भक्ति भाव में डुबाए हुए थे। तभी मेरा बेटा करन अपने कमरे के अंदर से ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाने लगा,  "मम्मी, सुन रही हो? ... डैडी, कहाँ हो ? मेरे कमरे में आओ। "  हम दोनों लोग सेकण्ड की सुई से भी तेज़ उनके कमरे में पहुँचे। सब सामान्य था। करन ध्यान केंद्रित कर रहे थे, लेकिन अपनी क़िताब में नहीं, कहीं और। क्या बात है, यह पूछने पर, करन ने बोला,  "मम्मी, यह जो पियानो जैसी आवाज़ सुनाई दे रही है, कहाँ से आ रही है? बीच-बीच में कुछ लोग आपस में डायलॉगबाज़ी भी कर रहे हैं।  वे गाने भी गा रहे हैं, लेकिन जागरण से एकदम अलग गाने हैं इनके। " मैंने करन के बाल सहलाते हुए बोल

मानवता के मालवीय: अजित यादव

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 सादर प्रणाम, मैं आपका नवीन। यह लेखन हमारे मित्र के कर्मों के सामने बौना है। हमारे मित्र अजित यादव जी ने हाल ही में यह सिद्ध कर दिया कि किसी की मदद करने के लिए धन का होना ही एक मात्र साधन नहीं है। अजित जी के सहकर्मी के पिता जी को ऐसी बीमारी थी, जिसके इलाज़ के लिए उनके मित्र ने अपना घर तक बेचना चाहा। घर न बिक पाने पर अजित ने हाथ पर हाथ न धरे रखा। उन्होंने आधुनिक तकनिकी साधनों का सदुपयोग करते हुए लोगों से मदद देने का आग्रह किया। फल स्वरूप लगभग ७०० नेक दिल लोगों ने अजित के पुण्य काम में उनका हाथ थामा। लगभग रु १५ लाख इन्होने इकट्ठे किए। अभी भी जंग जारी है।  'इसमें मेरा क्या है', की दीवार फाँदकर, कभी किसी के बेमतलब भी काम आएँ। दानवेंद्र बलि न बन पाएँ, तो क्या! कम-से-कम कर्ण बलिदानी बन जाएँ। आपके इस मानवीय प्रयास पर हम सभी गर्व की अनुभूति करते हैं। साथ ही हम आशा करते हैं कि आपका प्रयास प्रेरणा स्त्रोत बनेगा। आप जैसे लोगों की मानवता को सख़्त ज़रूरत है। हम काशी की कलम ओर से आपको ढेर सारी शुभकामनाएँ देते हैं।

Me Earlier in iNext

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 सादर प्रणाम, मैं नवीन, 2008 प्लास्टिक।  'सकुशल पूर्वक रहते हुए आशा करता हूँ कि आप सभी कुशल पूर्वक होंगे...' जी हाँ ! बात उस दौर की है, जब लोग अंतर्देशीय पत्र में ऊपर की लाइनें लिखकर टालते रहते थे। वे  NOKIA  के हथौड़े  प्रूफ़ फ़ोन से स्मार्ट फ़ोन की तरफ जा रहे थे। इंटरनेट फैल रहा था, मगर कछुए की मुंडी उसके कवच से अधिक बाहर नहीं निकल पा रही थी। इंटरनेट का भाव?  हीरा तो नहीं, मगर सोने से तनिक कम न था। कलम क़िस्मत का साथ पाकर कुछ कमाल कर गई थी। मुझे आगामी कमाल का अनुमान था, इसलिए HBTI  में  पीठ थपथपवाने नवम्बर 2008 के ALUMNI MEET में जाने वाला था। साथ ही मुझे एक भरोसा और था -यह कमाल HBTI से अगर बहुत बाहर निकलना चाहेगा, तो भी पत्थर कॉलेज के पत्थरों की सीमा को लाँघ न पाएगा। अभी मैंने कॉर्पोरेट जगत के गर्भ में ५ महीने बिताया था। क़दमों में कैल्शियम की मात्रा को सोखकर मैं चलने का प्रयास कर रहा था। UPTU के दीक्षांत समारोह में मेरे कुछ मित्र जा रहे थे, मेरा मन न हुआ। नहीं, शायद मन न हो सका।     एकदिन iNEXT की पत्रकार महोदया का फ़ोन आया। उन्होंने बताया कि मुझे UPTU लखनऊ के दीक्षांत समारोह में

पतझड़ के पेड़

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पत्तियाँ कुचलना पतझड़ की, सबको बचकाना लगता है। ये जान थीं बेबस पेड़ की, क़दमों ने नहीं पहचाना लगता है। बारिश थी पत्तों की, या झर-झर आँसू थे बरस रहे। एक डाल के, ऐसे बिखरे, फिर से मिलने को तरस रहे। पेड़ रोया जिनको खोकर, नये भले वह पा लेगा। गिर गए वो फिर न उठेंगे, ख़ुद को कैसे मना लेगा। पेड़-पिता का जीवन अधम है, कैसे बरसों सह लेता है। बसंत में जन्मे पत्तों को, कैसे पतझड़ में दफ़ना लेता है। है विरह की दावानल मन में, पर पेड़ कैसे रो लेगा। छाँव दी है जिसने सबको, ख़ुद की धूप भी झेलेगा। पुराने टूटते नये फूटते, है काल की रीत यही। पर टूटे पत्तों को क़दमों से, रौंदे जाने की नीत नहीं। नहीं मलाल गिरते पत्तों को, अपना फ़र्ज़ खूब अदा किए। सुपुर्द-ए-ख़ाक करके ख़ुद को, नयों को आबाद किए।