पतझड़ के पेड़
पत्तियाँ कुचलना पतझड़ की, सबको बचकाना लगता है।
ये जान थीं बेबस पेड़ की, क़दमों ने नहीं पहचाना लगता है।
बारिश थी पत्तों की, या झर-झर आँसू थे बरस रहे।
एक डाल के, ऐसे बिखरे, फिर से मिलने को तरस रहे।
पेड़ रोया जिनको खोकर, नये भले वह पा लेगा।
गिर गए वो फिर न उठेंगे, ख़ुद को कैसे मना लेगा।
पेड़-पिता का जीवन अधम है, कैसे बरसों सह लेता है।
बसंत में जन्मे पत्तों को, कैसे पतझड़ में दफ़ना लेता है।
है विरह की दावानल मन में, पर पेड़ कैसे रो लेगा।
छाँव दी है जिसने सबको, ख़ुद की धूप भी झेलेगा।
पुराने टूटते नये फूटते, है काल की रीत यही।
पर टूटे पत्तों को क़दमों से, रौंदे जाने की नीत नहीं।
नहीं मलाल गिरते पत्तों को, अपना फ़र्ज़ खूब अदा किए।
सुपुर्द-ए-ख़ाक करके ख़ुद को, नयों को आबाद किए।
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