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कोरोना योद्धा

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  भय   भयंकर   भरा   पड़ा   था। हर   जन   पर   तन   से   भाग   खड़ा   था। जब  वो    छुट्टा   घूम   रहा   था। क़हर   के   मद   में   झूम   रहा   था। तब कर्ण   ने   कवच - कुंडल   उठाया   था। बन   पृथ्वीराज  मैंने  शब्द   भेदी   चलाया   था। जब वो मानवता   को   ललकार   रहा   था। अखाड़े   में   निर्द्वंद्व   फुफकार   रहा   था।   तब   मैंने   यमदूतों   से   हाथ   मिलाया   था। मैंने यमराज   को   भी   संजीवनी   पिलाया   था। क्या   मज़ाल   वो   किसी   को   छूले! सफ़ेद   वर्दी   देख   वो   रास्ता   भूले! धन्वन्तरि   बहते   हैं   मेरी   रगों   में। दधीचि   अस्थियाँ   पहनी हैं मैंने  नगों   में। ********************** मैं     देवदूतों   की   काया   हूँ।   मैं   सब   मरीज़ों   की   छाया   हूँ। भगवान   का   मैं   शस्त्र   हूँ। उस देवात्मा की मैं  देह- वस्त्र   हूँ। मदर   टेरेसा   की   सौगंध  मैं  खाती   हूँ। जान   की   बाज़ी   लगाकर भी मैं  जान   बचाती   हूँ। ***************************** मैं   उन   औज़ारों   को   चमकाता   हूँ। काट   सके  सब  घावों   को,  मैं  वो   धार   लगाता   हूँ। मैं   गुमनामी  

वंश

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  कुसुम २ सुन्दर, फूल जैसी बेटियोँ को जन्म दे चुकी थी। वो अपने परिवार की इकलौती बहू थी। लड़कियों से कहाँ किसी की तृप्ति होती है ? पूर्वज रूठे रहते हैं। वंश नहीं चलता है। मरने के बाद अपने पूर्वर्जों को क्या मुँह दिखाते कुसुम के ससुर जी ?  कुसुम की सास भी अपनी पति को इस विषय में पूरा समर्थन करती थीं।  ससुर जी ने तो बस अप्रत्यक्ष रूप से इच्छा व्यक्त की थी " काश अगली बार बहू को एक लड़का हो जाता, ऊपर जाकर शर्मिंदा न होना पड़ता। " अपने पति की मानो आख़िरी इच्छा हो, बस ऐसा समझकर कुसुम की सास ने कमर कस ली। "देखना, अगली बार लड़का ही होगा " उनकी यह बात संकल्प कम और ज़िद बन गयी थी।  उनको अपने मायके के पास वाले गाँव का मंदिर याद था। बहुत पहले मंदिर पूरे गाँव के बीचो-बीच हुआ करता था। लेकिन प्रकृति का कहर था, धीरे-धीरे गाँव में एक भी परिवार न बचा। गाँव के सारे घरों में दिया जलाने वाला कोई नहीं बचा था।  सारे घर खण्डहर होते चले गये । मंदिर के पुजारी को छोड़कर पूरे गाँव में और कोई नहीं रहता था। लोगों की ऐसी मान्यता थी कि पुजारी बाबा का आशीर्वाद मिलने से पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इसी प

फूल एक गुलाब का, अटल जी के लिये ।

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शब्दकोश रोये होंगे, उनकी माला पिरोने वाला तार जो टूट गया। माँ सरस्वती भी शान्त होंगी, उनका ध्रुव उपासक जो चिर मौन हो गया । बिलख गए होंगे पुष्प उनसे कमल पद से लिपट के, और बोले होंगे की तुम ज़िंदा थे तभी हम सचेत थे, तुम्हारे पार्थिव पर तो हम शुष्क-निर्जीव हो गये। फट गयी होगी तिरंगे की छाती, लिपट के अपने सपूत से। इतराती थी जिस लाल के सलामी पे, वो लाल सो गया अब भारत माँ का आँचल ओढ़ के । यम भी पछतायें होंगे आपको ले जाने में, पग डगमगायें होंगे आपके साथ वैकुण्ठ जाने में। वैकुण्ठ भी दहला होगा, ये कौन आ गया। जिसके ना होने से भारत भू पे तम छा गया। अग्नि भी धधक उठी होगी , तपस्वी को तपा के। मन ही मन पिघली होगी आपको भस्म में मिलाके। नयन नम, कण्ठ कुंठित, क्षुब्द हृदय है की कोई अपना चला गया। अटल जी को शृद्द्हंजली। -नवीन, 2018 अगस्त 17.

"मेरे बस का नहीं है ! " अपने आप से फिर से पूछिए!

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सादर प्रणाम !   जब कोई काम देखकर झट से आवाज़ निकले कि `छोड़ो मेरे बस का नहीं है `! ऐसा उत्तर कभी भी अगर मिले, तो एक बार   ठहरिये और फिर से सोचिये । क्या यह आपकी अंतरात्मा की आवाज़ थी ?, क्या आप सही में नहीं कर सकते ? या फिर आप अपने आप को चुनौती देने से मुँह फेर रहे हैं ? मेरे साथ अक़्सर ऐसा ही होता था, जब भी मैं प्रतिलिपि पे `हॉरर' वाली कहानियों के चित्र देखता था । ये मुझसे नहीं लिखा पाएगा ! यहीं मन में घर कर गया था । फिर एक दिन मुझे `हॉरर फेस्टिवल ` प्रतियोगिता के बारे में पता चला । काफ़ी दिन की प्रतियोगिता पहले ही बीत चुकी थी । मन में कुछ लिखने का लालच पनप उठा। गाँव में दादी से अक़्सर भूत-प्रेत की कहानियाँ सुनने को मिलती थीं । आज उन्हीं को कागज़ पर उतारने की चुनौती थी । हॉरर के नियमों में एक लाइन लिखी थी -'रोंगटे खड़े करने वाली कहानियॉं !'इससे मैं थोड़ा धोखा खा गया । मेरा ध्यान डरावने पहलुओं पर ज़्यादा था । हॉन्टेड हॉस्टल लिखने के बाद परिणाम में चुनी हुई कुछ कहानियों को पढ़ा । फिर पाया कि कहानी में कुछ मक़सद होना चाहिए। बेमकसद वाले लेखन की आत्मा भूत बनकर भटकती रहती है । दूसरी वाली &#