"मेरे बस का नहीं है ! " अपने आप से फिर से पूछिए!

सादर प्रणाम !  

जब कोई काम देखकर झट से आवाज़ निकले कि `छोड़ो मेरे बस का नहीं है `! ऐसा उत्तर कभी भी अगर मिले, तो एक बार   ठहरिये और फिर से सोचिये । क्या यह आपकी अंतरात्मा की आवाज़ थी ?, क्या आप सही में नहीं कर सकते ? या फिर आप अपने आप को चुनौती देने से मुँह फेर रहे हैं ?

मेरे साथ अक़्सर ऐसा ही होता था, जब भी मैं प्रतिलिपि पे `हॉरर' वाली कहानियों के चित्र देखता था । ये मुझसे नहीं लिखा पाएगा ! यहीं मन में घर कर गया था । फिर एक दिन मुझे `हॉरर फेस्टिवल ` प्रतियोगिता के बारे में पता चला । काफ़ी दिन की प्रतियोगिता पहले ही बीत चुकी थी । मन में कुछ लिखने का लालच पनप उठा। गाँव में दादी से अक़्सर भूत-प्रेत की कहानियाँ सुनने को मिलती थीं । आज उन्हीं को कागज़ पर उतारने की चुनौती थी । हॉरर के नियमों में एक लाइन लिखी थी -'रोंगटे खड़े करने वाली कहानियॉं !'इससे मैं थोड़ा धोखा खा गया । मेरा ध्यान डरावने पहलुओं पर ज़्यादा था । हॉन्टेड हॉस्टल लिखने के बाद परिणाम में चुनी हुई कुछ कहानियों को पढ़ा । फिर पाया कि कहानी में कुछ मक़सद होना चाहिए। बेमकसद वाले लेखन की आत्मा भूत बनकर भटकती रहती है । दूसरी वाली 'कुलधारा' में मैंने फोटो देखकर लिखने का प्रयास किया, उस फोटो का विवरण न पढ़ने की भूल कर दी। ये तो वहीं बात थी कि पूछा गया आम के बारे में मैंने भैंस के बारे में बता दिया । अपना मज़ाक उड़ाना अच्छा लगता है, अहम् में पड़ने की भूल से बचने का तरीक़ा है । तीसरा वाला 'एक काली परछाँई' में  'माँ का साया' लिखा गया । लिखते-लिखते थोड़ा निखार मुझे भी दिख रहा था । 

   कर्मण्येवयाधिकारस्तु ..वाली तर्ज़ पर मैंने लिखा था, लेकिन उम्मीद ज़्यादा नहीं रखी थी । कोरियन भाषा में भी एक कहावत है,"기대가 크면 실망이 크다" मतलब "अपेक्षा बड़ी होने पर निराशा भी बड़ी होती है । "

 प्रतिलिपि के दिग्गज लेखकों के आगे मेरी लेखनी बौनी लग रही थी । कुछ माननीय लेखकगण तो मेरे जन्म के पहले से ही लिख रहे हैं । मेरे भैया ने बोला कि अभी तो मेरे अंदर की हिन्दी जागी है, मैं लिखता रहूँ । उस दिन 'माँ का साया' विशेष डिजिटल लेटर्स वाली श्रेणी में थी । थोड़ा आत्मविश्वाश बढ़ा । आभास हुआ कि कलम की कोई कद और उम्र नहीं होती। अगली वाली कहानी 'नाले बा ' भी लेटर के लिए चुनी गई। इसको लिखने के बाद मुझे हर जगह भूत दिखने लगे थे ।  फिर लगा कि अब आगे नहीं लिखा पाएगा । दो दिन दफ़्तर के काम पूरा करने के उसके बाद 'वेयरवुल्फ' लिखाया और लेटर के लिए चुना गया । अन्तिम दिन 'कैमरे' में अपना सर्वोत्तम लिखने का प्रयास किया । लेटर नहीं मिला ।  किसी चीज़ की लत नहीं लगनी चाहिए ! अच्छा ही हुआ! नहीं तो मन में बैठ जाता कि जो लिखता हूँ, सेलेक्ट हो जाता है ! इस वहम से बच गया । 

  लेटर और पुरस्कार पाना आत्मविश्वाश को बढ़ावा ज़रूर देता है । लेकिन इनको पाना मात्र लेखन का उद्देश्य नहीं होना चाहिये । लेखन हमेशा कुछ उद्देश्य के लिए होना चाहिये।

तो कभी ऐसा ख़याल मन में आए कि "यह मेरे वश का नहीं है!" तो आप अपने से अवश्य झूट बोल रहे होंगे । मैंने पिछले कुछ दिनों में यह सीखा है ।

मैं प्रतिलिपि टीम को इस मैराथन प्रतियोगिता को सफलता पूर्वक सम्पन्न कराने के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ । मुझे अपने लेखन को परिष्कृत करने में बहुत सहायता मिली । 

उन कहानियों पर आपकी समीक्षा का आभारी रहूँगा ।

सादर 

 -नवीन 



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