गठरी वापसी (इंद्रदेव चाचा अपने एहसान के बदले में क्या माँग लेते हैं? क्या वो अपने होश में माँगते हैं? सरिता की शक्ति रूपेण माँ से मिलिए...)

झूठ बोलना एक बात है, उसको पचा जाना एक कला। जो रोटी की जंग में धुनि रमाए रहते हैं, उनकी आँतें इस कला में कमज़ोर होती हैं। अनपच हो ही जाता है। वे छोटा सा भी झूठ बोलकर पश्चाताप की अग्नि में दहकते रहते हैं। सरिता के पिता के साथ भी यही हुआ। उस दिन सरिता और उसकी माँ से बोला हुआ झूठ कोई छोटा नहीं था। इस झूठ से वो बेटी की लाज को समय के साहूकार को गिरवी रख आए थे। समय ने क्या छुपा रखा है, उसकी कल्पना और प्रार्थना मात्र की जा सकती है। वो अपने इस कृत्य के कारण तपने लगे। रातों की नींद उड़ गई। दिन में आँखें लाल रहने लगी। वो खोये-खोये से, बेसुध होते गए। हरदम मन में वही बात मथती रहती थी। वो दिन-रात उस एक एहसान के भवसागर को पारकर इंद्रदेव चाचा के पास जाने की हिम्मत जुटाने में लगे रहे। सरिता की माँ कक्षाएँ कम जा पाईं थीं, लेकिन चेहरे पढ़ने में माहिर थीं। उन्होंने सरिता के पिता की मनः स्थिति को भाँप लिया। वो पति से बात करने का मौका ढूँढने में लग गईं। एक दिन जब सूरज दिन भर दहककर धरती की आँखों से ओझल होता जा रहा था। संध्या की बेला। आसमान में सूरज की सुनहरी किरणें नील-गगन में मिलकर नीलिमा और लालिमा के बीच अनंत नए रंगों का सृजन कर रही थीं। पक्षियों के झुण्ड दिनभर दाना चुगने के बाद अपने घरौंदों को वापस जा रहे थे। दिन और रात के संगम की गोधूलि बेला थी।
कला साभार: गीता सिंह

कला साभार: गीता सिंह 

सरिता के पिता उस दिन काम पर नहीं जा सके थे। उनका काम में मन कहाँ लगता? दिन भर इधर-उधर समय काटकर वो भी घर वापस लौटे। उनकी थकान दिन भर तपने वाले सूरज से ज़्यादा दिख रही थी। मन की मायूसी, मन की थकान शारीरिक थकान से कहीं अधिक दिख जाती है। शरीर से थका आदमी बिस्तर पाते ही नींद की बाहों में चला जाता है, लेकिन मन से थके आदमी के लिए बिस्तर एक बहाना होता है, एक छलावा। उसको बिस्तर पर सपने नहीं आते, बल्कि छत, आसमान, तारे दिखते हैं। सरिता की माँ ने उस दिन बात करना उचित समझा। सरिता के पिता आँगन में बिछी चारपाई पर लड़खड़ाते हुए बैठे।  मानो उन्होंने अपने शरीर पर नियंत्रण ही खो दिया हो। सरिता की माँ ने उनको हाथ में गुड़ और लोटे का पानी दिया। वो उस खटिये के पास ज़मीन पर ही बैठ गईं, 

"सरिता के पापा, सब ठीक है न ? बहुत दिनों से देख रही हूँ, आप कुछ बोलना चाह रहे हैं।"

"नहीं..नहीं... बस आजकल थोड़ी तवियत ठीक नहीं रहती है।"

"क्या हुआ?"

" अरे, कुछ ख़ास नहीं, बस ऐसे ही।"

वो बोलते समय नज़रें चुराकर बोल रहे थे, जिससे सरिता की माँ की शक़ का सिपाही और ईमानदार होता जा रहा था। सरिता के पिता, थोड़ा सफाई देने का प्रयास करते हुए,

"भीतर बुख़ार है।"

"भीतर बुखार क्या होता है? आपको नई बीमारी हो गई है क्या?" सरिता की माँ। सरिता की माँ थोड़ी मुस्कुराती हुई, अपने पति की झुकी हुई नज़रों को देखती हुई, 

"किसी बात की चिंता है? सरिता की शादी की सोच रहे हैं?"

"अरे नहीं..., तुम बहुत दूर की सोचती हो।"


सरिता की माँ इससे पहले आकलन के दूसरे गुलेल अपने पतिदेव के मन की चिड़ियाँ पर चलातीं, सरिता के पापा को लगा कि अब सच बताना ही पड़ेगा, नहीं तो वो सरिता की माँ की छठी इंद्री से बच नहीं पाएंगे। अभी वो मुँह खोलने ही वाले थे कि सरिता विद्यालय से घर वापस आ गई, हाँफते हुए। उसकी हालत देखकर कमज़ोर हृदय वाला आदमी हृदयाघात से ज़रूर मर जाता। 

  सरिता के बिखरे, लटपटाये बाल। चोटी बाँधने वाले खुले हुए फीते। दोनों गालों पर उँगलियों के लाल-लाल निशान। दुपट्टा? आज पहली बार उसके पास नहीं था। जहाँ-तहाँ फटी समीज। तर-तर पसीने से लथपथ। ऊपर से नीचे तक वो ऐसी लग रही थी कि किसी डकैत ने सेंध मारी हो और घर में कुछ न मिलने के कारण वो घर को अस्त-व्यस्त करके भाग गया हो। आज उसकी आँखों में आँसू नही थे, एक गुस्सा था। विश्वाशघात से उत्पन्न आक्रोश। किसने किया था? जिसपर बेटी संसार में सबसे अधिक भरोसा करती है: उसके पिता ने। उसको अपने माँ-बाप को दिखाने और बतालाने के लिए उस दिन कुछ नहीं था। एक बार वो अपनी पीड़ा दिखा चुकी थी, लेकिन किसी ने नहीं देखा। ये 'अंधे के आगे रोना, अपना दीदा खोना' वाली बात हो चली थी। वो दोनों सरिता के लिए अस्तिव्त शून्य हो गए थे। महाभारत के धृतराष्ट्र और गांधारी सरीख़। आज फिर द्रौपदी के चीर पर किसी ने हाथ डाला था। वो सीधे कमरे में चली गई। अंदर से सिटकनी चढ़ा ली। उसकी चाल में आज बग़ावत की धमक थी। 

   कहते हैं 'संकल्प से सिद्धि'। ठीक उसी तरह मन में घर किया हुआ डर भी साक्षात प्रकट हो सकता है। सरिता के पिता का डर भी आज उनके सामने खड़ा था। उनकी परिकल्पना यथार्थ थी। इसी अनहोनी को रोकने के लिए तो साहस जुटा रहे थे। पिछली बार की तरह अपनी बेटी की दुर्दशा देखकर इस बार उनका ख़ून नहीं खौला, बल्कि साप सूँघ गया। सरिता की माँ एकदम स्तब्ध थीं। उस एक क्षण के सरिता के दर्शन ने उनके मन में हज़ारो सवाल छेड़ दिए। अब ये किसने किया? एक से बचे नहीं, दूसरा आ गया। कैसे बचें? कमज़ोर की कोई मर्यादा भी है? पुलिस के पास जाँय...?  उन्होंने अपने पति की ऒर देखा। प्रतिक्रिया में उनका मौन और सूखे, निर्जीव पेड़ जैसी जड़ता थी, अथाह लाचारी में डूबा हुआ मस्तक। ये सब पति पर पहले से ही बने हुए संदेह को बहुगुणित कर रहा था। माता पल भर के आकलनों के इन बवंडररों को निरस्त करने और सच्चाई जानने की इच्छा लेकर उठीं। फिर से कृत संकल्प। शक्ति रूपेण। पिता भी अनभिज्ञ होने का झूठा नाटक करते हुए शक्ति की गति को पकड़ने पीछे-पीछे गये। माँ अभी सरिता के कमरे की किवाड़ खटखटाने ही वाली थीं। तभी सरिता की स्कूल की सखी हाँफते हुए आँगन में पहुँची। जैसे वो सरिता को दौड़ाकर पकड़ना चाहती हो, लेकिन सरिता कुछ कर गुज़रने की तेज़ी में हाथ न आ पा रही हो। माथे पर टप-तप पसीना। मन-मस्तिष्क में एक भय। ज़बान पर कुछ बताने की बेचैनी। सरिता की माँ चौखट पर, 

" अरे सरोज, ये सब कैसे हुआ?"

सरोज के पास ऐसी कोई गठरी नहीं थी, जो उसे ज़वाब देने में उसका कंठ रूढ़ती। उसने दम भरते हुए बोला, 

"चाची, इंद्रदेव का नाती..."

माँ ये नाम सुनकर एकदम चौंक गईं। पति की ओर गुस्से भरी निगाहों से,

"उस दिन आपने सही में इंद्रदेव चाचा से बोला था या ..." 

पति से सच की आसान उम्मीद न रखते हुए उन्होंने सरोज से पूछा, 

"साफ़-साफ़ पूरी बात बता तू।"

सरोज, बीच-बीच में दम भरते हुए,  

"जिस दिन चाचा इंद्रदेव बाबा के घर से वापस आये, उसके अगले दिन से ही वो लड़का सरिता से दूर रहने लगा। थोड़ा शांत भी रहता था। लेकिन, आज सरिता ने ही उसे 'उस दिन अपने बाबा से मिली फटकार और मार' की याद दिलाकर चिढ़ा दिया। वो गुस्से में सरिता को सबके सामने ही ज़लील करने लगा। वो बोल रहा था कि अभी तक बाबा ने तो मारा नहीं, बार-बार एक ही ग़लती के लिए कितना मुझे मारेंगे। सब लोग चुप-चाप खड़े होकर तमाशा देखते रहे। वो सरिता को पीटने लगा, उसके कपड़े फाड़ने लगा, जगह-जगह नोचने लगा। भद्दी-भद्दी गलियाँ देने लगा। ख़ुद को असहाय देखकर आज सरिता ने बहुत हिम्मत दिखाई। सरिता ने भी ईंट से उसका सिर फोड़ दिया। कलमुँहा वहीं धड़ाम से गिर पड़ा, बेहोश हो गया। स्कूल वाले उसको आनन-फानन में लेकर हॉस्पिटल गये।"

दुर्गा अब चंडी बन गई, रण चंडी। मन में किसी की एक न सुनने का उन्माद। उस अभिमानी लड़के का दमन करने का गुस्सा। आज उनके मान-मर्दन का प्रयास हुआ था, दूसरे के मान-सम्मान की कोई फ़िक्र वो कैसे कर सकती थीं, चाहे वो कभी लाज़ बचाने वाले इंद्रदेव ही क्यों न हों? किसी गठरी का दबाव नहीं था। माता ज़ोर-ज़ोर से किवाड़ का दरवाजा पीटने लगीं। हाथों की चूड़ियाँ चन-चन चकनाचूर होकर चौखट पर बिखर गईं। एकदम सरिता की लाज़ की तरह। 

"सरिता, बच्ची दरवाजा खोल। चल मेरे साथ इंद्रदेव के घर।" बहुत मनाने पर सरिता ने दरवाजा खोला,लेकिन आज भी उसको न्याय की उम्मीद ज़्यादा नहीं थी। पिछली बार वाली उम्मीद आज धू-धू करके विश्वाशघात के कुंड में स्वाहा हो चुकी थी। नज़रें झुकाए। आंखों में अब अंगारे नहीं, फिर चिर मायूसी। सरिता की माँ, 

"कपड़ा बदल ले, चल मेरे साथ।"

सरिता के पिता की आज कोई पूछ न थी और उनको कुछ पूछ सकने की हिम्मत भी नहीं थी, सरिता की माँ के दिमाग़ में क्या चल रहा है? सरिता कपड़ा बदलकर कमरे से बाहर आई। माँ की नज़रों में उसको आज फिर से एक भरोसे की चिंगारी दिखी। भरोसा, जो कुछ करके ही मिलता है। भरोसा, आने में इतराता है, लेकिन जाने की ज़ल्दी में रहता है। माँ की आँखों की चिंगारी ने सरिता की मायूसी में एक उम्मीद जगा दी। क्या आज न्याय मिल जाएगा? क्या सरिता पुलिस के पास जा रही थी? इंद्रदेव के घर जा रही थी? कोई इसका आकलन नहीं लगा सकता था। सरिता की माँ, सरिता सरोज आँगन होते हुए मुख्य द्वार से बाहर निकले। पिता भी पीछे-पीछे। दूर से कोई आते हुए दिखा। इंद्रदेव चाचा थे। चाचा के क़दमों में आज थोड़ी शान कम थी। एक क्षण के लिए तो वो झिझकीं, सामना नहीं कर पाएँगी। रह-रहकर गठरी अपनी झाँकी उनके मन में दे जा रही थी। बबिता, विदाई,  स्प्लेंडर, लाज, ५० हज़ार ..., लेकिन माँ ने आज इन सब चट्टानों को काट डाला। आज विशालकाय पर्वत को झकझोरने की इच्छा लौह-शक्ति थी। पहाड़ को पीसकर आज धूल बनाने पर आतुर, सरिता की माँ। एकदम सिंहनी का अवतार बन गई।

  कोई अगर पसंद आता है तो उसकी बुराइयों की भी वक़ालत हो जाती है, लेकिन वही आदमी अगर न अच्छा लगने लगे तो उसके सारे गुण पल भर में दोष बन जाते हैं। किसी को पसंद-नापसंद करने में हमेशा थोक वाला व्यवहार मिलता है। किसी को किसी की सारी चीज़े, व्यवहार रास आते हैं। वही आदमी उसको न पसंद करने वाले के लिए फूटी आँख भी नहीं सुहाता है। प्रत्येक गुण-दोष पसंद अथवा नापसंद करने का ख़ुदरा व्यवहार कम दिखता है। कौन दिमाग़ पर ज़ोर डाले? थोक वाला सही है। उस दिन इंद्रदेव चाचा के स्वागत में भारी गिरावट थी। चेहरे की रौनक आज धूल चाटती हुई नज़र आ रही थी। उनकी ठाट में आज खाट भी नही बिछी। उनको भी तिरस्कार के संकेत मिल गए थे। आज उनकी भी परीक्षा थी। शायद आज पहली बार उनकी अवमानना होने वाली थी। वो कैसे प्रतिक्रिया करेंगे , उनको स्वयं नहीं पता था। वास्तव में ऐसा पहली बार होने जा रहा था, जब बात कटने की संभावना प्रबल थी। माँ-इंद्रदेव आमने-सामने, दो हाथों की दूरी पर। माँ के पीछे सरिता, इंद्रदेव बाबा की मूछें उखाड़ फेंकने को आमादा। उसके बग़ल में सरोज, साक्षी। दूर कहीं पर लाचार पिता। आज डर हुक्का-पानी बंद होने का भी था। जो कुछ सरिता की माँ आज कह पाएँगी, शायद वो कभी नहीं कह सकते थे। उनको घर से बाहर लोगों के बीच उठना-बैठना पड़गा। इंद्रदेव से टक्कर मतलब ' जल में मगरमच्छ से बैर'। पहले कौन शुरु करे? कुछ पलों के मौन के बाद सरिता की माँ, थोड़ी काठ जैसे सख़्त आवाज़ में, 

"आप सामने से हट जाइये। "

"बबिता की मम्मी, हट जाऊँगा, कहाँ जा रही हो? जो हुआ उसका मुझे बेहद खेद है।"

सरिता की बाहों को पकड़कर ज़ोर से खींचकर आगे करते हुए, "खेद से ये घाव मिट जाएँगे, चाचा?"

इंद्रदेव जी, सरिता की ओर देखते हुए,"चलो बेटा, अभी गाँव वाले डॉक्टर साहब को दिखा लो, मरहम-पट्टी करवा लेते हैं। "

"अच्छा! गाँव का झोला छाप डॉक्टर क्यों मरहम-पट्टी करेगा? शहर जाएगी। "

दीनानाथ जी, इधर-उधर नज़रे फेरते हैं, थोड़ा झेंपते हुए, धीमी आवाज़ में, 

"अरे घर की बात घर में ही रह जाए तो अच्छा रहता। आख़िर सरिता ने भी तो उसका सिर फोड़ दिया।"

"चाचा, नहीं तो उस करमजले को चूमती?"

इंद्रदेव जी अपनी अच्छाइयों के लिए विख्यात थे। आज अनजाने में ही कुछ अच्छा नहीं बोलते जा रहे थे। उनको स्वयं होश नहीं था, वो किस धारा में बहते जा रहे हैं। कहा-सुनी का क्रम शुरु हो गया, बिगड़ता गया। इंद्रदेव जी, अब थोड़ी कड़क आवाज़ में,

"छोटी सी बात के लिए इतना हंगामा मत करो। आपस में समझ लेते हैं, मेरी मान-मर्यादा का भी ध्यान करो।"

अपनी बातों का सरिता की माँ पर कोई प्रभाव न पड़ता देखकर,"तुम सब एकदम एहसान फ़रामोश हो। अपने दिन भूल गई ?"

सरिता की माँ को जैसे इंद्रदेव ने उकसा दिया हो, एकदम धारा प्रवाह,

"चाचा, आपने हमारी लाज बचाई, हम मानते हैं। एक पत्ती तुलसी और गंगाजल की कुछ बूंदे प्राण-पखेरू उड़ने के ठीक पहले सीधे मुक्ति दिला देते हैं। माया-जाल को पार करा देते हैं। ये दोनों अगर ठीक उसी समय न मिलें तो चाहे तुलसी का पूरा बग़ीचा हो या फिर पूरी गंगा मैया मिल जाँय, बेमतलब हो जाते हैं। आपने उस दिन हमें ५० हजार का तुलसी-दल दिया, हमारी लोगों में थू-थू होने से मुक्ति दिलाई, हम बहुत एहसान मानते हैं। बबिता आज भी इस परोपकार के लिए आपको भगवान मानती है। आपका कर्ज़ वापस करके भी हम आपकी नेकी को नहीं चुका सकते हैं, लेकिन आज आप उस एहसान क़ीमत माँग रहे हैं। आप अपने एहसानों से लोगों को ग़ुलाम बनाना चाहते हैं? बोझ से दबाना चाहते हैं? मैंने तो सुना था कि आप निःस्वार्थ सेवा में भरोसा रखते हैं, फिर ये आप कैसी क़ीमत माँग रहे हैं? लाज़ के बदले लाज़?"

दमन वकालत सिखा देता है। सच्चाई आज अपना केस खुद लड़ रही थी। अपनी भावनाओं, तथ्यों, दलीलों को सीधे जज के सामने रख रही थी। किसी वकील की बैसाखी के बिना। शब्दों की धार हसिये और गड़ासे से भी प्रखर थी। सरिता की माँ की इन दलीलों ने इंद्रदेव को हिला दिया। जड़ से चेतन बना दिया। वहाँ आने से पहले उनके अंदर एक जड़ता थी: 'मेरी बात मान ही ली जाएगी'। इंद्रदेव जी को अपराध बोध हो चुका था। सिर शर्म से झुका गया। असल में वो वही थे, निःस्वार्थ सेवा में अटूट भरोसे वाले। लेकिन उनको बिना बताए, उनकी अनुमति के बिना एक बिमारी घर कर गई थी। मदद का अप्रत्यक्ष मूल्य वसूलने का रोग। सहायता करने वाला मदद पाने वाले से एक उम्मीद लगा बैठता है-कुछ भी हो सामने वाला मेरी बात नहीं काटेगा। चाहे वह 'बात' अनैतिक हो या फिर अन्याय की जन्मदाता। माँ के उन शब्दों ने इंद्रदेव के उस अपरिचित रोग का एक्स-रे करके नंगा कर दिया। सरिता की माँ के आँखों में बोलते-बोलते बेबसी के झर-झर आँसू । बग़ल में सरिता, पीछे सरोज सबकी आँखें नम हो गईं। माँ ने सरिता के मन को अपने बेबाक़ स्वर दे दिए थे। थोड़ी दूरी पर खड़े सरिता के पिता थोड़े भयभीत थे, अब क्या होगा? हिरणी अपने बच्चे के लिए शेर से भिड़ गई थी। शेर की प्रतिक्रिया से डर था। इस प्रतिक्रिया का चिरकालीन परिणाम हो सकता था। 

इंद्रदेव चाचा ने हाथ जोड़कर सरिता, उसकी माँ और उसके पिता से अनजाने में दिए गए दबाव के लिए माफ़ी माँगी। सरिता को शहर वाले बढ़िया हस्पताल ले गए। वहाँ पर पुलिस केस भी हुआ, जिसपर प्रतापी इंद्रदेव ने कोई दबाव नहीं दिया। उस दिन सरिता का परिवार गठरी से मुक्ति पा चुका था... 


*****

आशा है, आप गठरी न तो ढो रहे होंगे, न तो किसी से अनजाने में ढोआ रहे होंगे। 

बेबाक़ समीक्षा की अभिलाषा में...



 

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