ऊँचाई का झोला

  एक गाँव में दो जिगरी दोस्त रहते थे-बिक्रम और बुधई । दोनों के परिवारों की आर्थिक स्थिति उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसी विपरीत थी। बिक्रम का ख़ानदान जितना ही धनी था, बुधई का परिवार उतना ही जरूरतमंद। लेकिन यह पर्वतीय पैसे की दीवार कभी भी इनके दोस्ती के बीच नहीं आई। हवेली के मान-सम्मान वाले दबाव के बावज़ूद भी बिक्रम ने कभी भी बुधई का साथ नहीं छोड़ा। समय बीतता गया। दोनो समय के समर में पकते गये। बिक्रम और धनी होता गया। बुधई के यहाँ भी पहले की तुलना में सम्पन्नता बढ़ती गयी। दिन-प्रतिदिन वो नई ऊँचाइयों को समरसता से चढ़ता गया। गाँव वालों को बुधई की चढ़ाई खटकने लगी।

उनको शक हुआ कि बिक्रम के घर से बुधई या तो कुछ पाता है या फिर कुछ चुराता है। धीरे-धीरे ये बात पूरे गाँव में फैल गई। गाँव में लोग बड़े ही धनी होते हैं, समय के!उनका फुर्सत में रहना कई लोगों की फ़जीहत का कारण होता है। किसी घर की ख़बर फैलाने का आलम ये होता है कि अमुक के घर में खाने में नमक कम है, झट से पड़ोसी को पता चल जाता है। पड़ोसी इसी ख़बर की ताक में रहते हैं। लोग बुधई पर अनैतिक रूप से धन कमाने का सन्देह करने लगे। लोगों के गले से नीचे न उतरने वाली सबसे बड़ी बात थी - अमीर दोस्त का और अमीर होना।अगर बुधई चोरी करके  अपनी ग़रीबी दूर करता तो ज़रूर बिक्रम का ख़जाना खिसकता। लेकिन ऐसा नहीं था। विडमंबना ये थी कि गाँव वाले बुधई से सीधे-सीधे पूछ भी नहीं सकते थे। लोगों को हवेली में रहने वाले दोस्त से भय था। अगर उसको पता चला कि उसके दोस्त पर लोग कर रहे हैं तो उन लोगों की ख़ैर न थी। सबूत जुटाने के लिये कुछ लोगों ने बुधई की जासूसी शुरू कर दी। ग़रीब बुधई का ईमान शक़ के कठघरे में था। ग़रीबी प्रताणित होती है, ज़लील होती है। ग़रीबी स्वयं गुनाह है। अमीरी दाग़दार होते हुये भी दाग़ छुपा जाती है। क्योकिं दाग़ कौन दिखाए? कमज़ोर पर शक़ भी मेहरबान होता है, तगड़ी लाठी पर शक़ करने की हिम्मत जुटा पाने वाले लोग बहुत ही विरलय होते हैं। इनको क्रान्तिकारी भी कहा जा सकता है।
   बहुत दिन की जासूसी के बाद एक दिन  लोगों ने देखा कि बुधई बड़ी हवेली से एक झोला लेकर  गया, वो भी दिन-दहाड़े! गाँव वालों को लगा अब बस यहीं नोटों से भरा थैला है। इसी थैले में बंद है इसके धन्वन्तरि बनने का राज़। आतुरता तो बहुत थी कि बुधई को रंगे हाथों पकड़ लें, लेकिन हवेली के भयवश लोग तुरन्त हल्ला करने से परहेज़ किए।उन्होंने सोचा कि कुछ और दिन इसको देखते हैं। सबूत पक्का होने पर हवेली वाले के ताप से बच सकेंगे। वो लोग अपनी आँखें बुधई की गतिविधियों पर लगातार गड़ाये रखे। बुधई सप्ताह में एक बार थैला हवेली से लेके जाता था।
 इधर बुधई की माई को भी गाँव वालों की लगाई गई आग का पता चला। माई को सब पता था।  माता का स्वाभाव तो बेटे की ग़लती को छिपाना या फिर उसको तर्क-वितर्क से सही सिद्ध करना होता है। माता तो बच्चा ग़लती करके आये तो भी बेटे पर आरोप लगाने वाले के मुँह नोच लें।  यहाँ तो बुधई की कोई ग़लती भी नहीं थी। 
माई, बुधई से, 
"गाँव वालों को साफ़-साफ़ बोल दो बेटा, बिक्रम बाबू आराम से हवेली की ठंढी हवा खा रहे हैं और तुम्हारी ईमानदारी चूल्हे में झुलस रही है। मेहनत करो तुम,  ताने खाओ तुम और मेवा खाएं हवेली वाले?"
 बुधई,
" कुछ भी हो बिक्रम को किसी भी कीमत पर हल्का नहीं होने दूँगा । गाँव के लोगों की जो मर्जी हो, कहें और करें। लोगों की सोचते तो हम तरक्की नहीं कर पाते।"
 माई को दोस्ती के आगे नतमस्तक होना पड़ा। जासूसी चल रही थी। लोगों ने एक दिन पाया कि बुधई अपने घर से भी एक भरा हुआ वैसा ही थैला लेकर हवेली की ओर बढ़ रहा था। अब जासूसों को चक्कर आने लगा था। झोला जो आया था, वहीं वापस जा रहा था! माज़रा क्या है ? उनकी जासूसी का पारा थक कर चटक गया। 

उन लोगों ने स्वयं इस गुत्थी को नहीं सुलझा पाने पर गाँव के सरपंच से बुधई के बिगड़े ईमान की शिकायत की । सरपंच जी बहुत ही न्यायसंगत थे। संयोगवश उनके हवेली से सम्बंध भी अच्छे थे।  उन्होंने बिक्रम के पिता को बोला कि गाँव वालों की शंका का समाधान होना चाहिये। पंचायत बुलाई गई।सारे लोग इकट्ठे हुए।
सरपंच जी , बिक्रम से,
"बेटा, क्या देते हो और क्या लेते हो, झोले में क्या आता-जाता है?"
बिक्रम,
 "मैं जो भी देता हूँबुधई सूद समेत वापस करता है।"
ये सुनकर गाँव वाले नाक-मुँह चमकाने लगे,
मूल तो लौटा नहीं पाती थी इसकी माँअब ये सूद कहाँ से देने लगा ?” काना-फुस्सी शुरु हो गई।
सरपंच, बुधई से,
साफ़-साफ़ बोलो।
“सरपंच जीहवेली में एक पुस्तकालय हैमैं बस किताबें पढ़कर लौटा देता हूँ।
गाँव वाले सन्न हो गये, बुत बन गए। जासूस शर्मिंदा हो गएउनकी जिज्ञासा की रस्सी ऐसे ढीली होगी, उन्होंने कभी सोचा न था।
सरपंच जी, और ये सूद...?”
शायद बुधई मुँह  खोल पाता, बिक्रम बीच में बोल पड़ा,
कभी-कभी जब मुझे नहीं समझ में आता है तब ये ख़ुद पढ़कर मुझे समझा देता है।
सरपंच जी, थोड़ी देर के मौन के बाद, "बिक्रम बेटा, लेकिन बुधई जब कोई काम नहीं करता तो पैसे कहाँ से लाता है ?"
बिक्रम, मुस्कुराते हुए, "आप लोगों की समझ के बाहर है। बुधई यू ट्यूब (You Tube) से पैसे कमाता है। इसकी पढ़ाई हुई बातें बहुत पसंद की जाती हैं।"
सरपंच जी, सर पर हाँथ फिराते हुए, "तो तुम्हे बुधई से सीखने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्या बोले... उस ट्यूब से तुम भी क्यों नहीं सीखते हो?"
बिक्रम, "गुरु की ज़रूरत सबको होती है, नहीं तो सारे स्कूल बंद हो जाते।"
सरपंच जी को बिक्रम की बातें ज़्यादा समझ में नहीं आ रही थीं, लेकिन उनको आभास हो चुका था कि बुधई ईमानदार और मेहनती है। आधुनिक तौर-तरीक़ों से पैसे कमा रहा है। 
गाँव वालों की आँखों पर अँधेरे की पट्टी इस सच की रौशनी से चौंधिया गई। कुछ कहने के लिए नहीं था, सिवाय देखने और सीखने के। लेकिन उनमें से कुछ लोग हवेली पर आरोप लगाये कि ये पुस्तकालय सबके लिये क्यों नहीं उपलब्ध है
बिक्रम के पिता जी आगे आकर,
यह पुश्तैनी पुस्तकालय हैमेरे पूर्वजों की विरासत है। बिक्रम ने तो अब कम्प्यूटर भी लगवा दिया है। गाँव में सब अभिभावकों को पता था, लेकिन शायद आप लोगों ने अपने बच्चों से पुस्तकालय की बात साझा नहीं कर पाएँ हैं।" 
पंचायत में आये हुए सारे बच्चे अपने माता-पिता का मुँह ताकने लगे। ये पुस्तकालय क्या था? उनको तो मोबाइल से, इंटरनेट से पढ़ने के लिए बोला जाता था। 
फिर क्या? 
गाँव वाले अपने बच्चों को पुस्तकालय में भेजने के मौन संकल्प के साथ अपने-अपने घर चले गये।
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एक सवाल, इस कहानी में नायक कौन है?
कॉमेंट में जरूर लिखियेगा। सादर,
-नवीन 


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