हर मन राम, हर घर रामायण

राम राम जी 🙏!
आप जानते ही होंगे कि किसके नाम का पत्थर तैरता है ? पत्थर भला कैसे तैर सकता है ? ... 
कुछ नाम में हल्कापन होगा ? जी नहीं, वो नाम बहुत ही वजनी है । उस नाम के भार को और गहराई से समझने का समय आ गया है। ये भार कैसा है ? उत्तरदायित्व है उनके मानव रूप में आकर एक आदर्श मानव रूप को प्रस्तुत करने का । मानवीय मूल्यों को चरितार्थ करने हेतु स्वयं को तपाने का। ख़ुद का त्याग करने का । दिवाली मनाने से पहले १४ साल वनवास सहन करने की क्षमता का । ख़ुद से पहले दूसरों को रखने का । हर साँस को पर सेवा में समर्पित करने का । इस बात की गाँठ बाँधने का कि चाहे रावण कितना ही विद्वान, बलवान, स्वर्णवान क्यों न हो, मंशा मात्र का प्रदूषण उसका विध्वंस कर सकती है । अलख जगाने का कि हमारे आजीवन कर्मों में इतना दम हो कि अंतिम दम ‘हे राम’ कहने का दम भर सके । यह नाम हर रिश्तों को निभाने की एक बुनियाद है। चाहे वो पिता- पुत्र का हो, जहाँ कुल परम्परा की रक्षा के लिये वनवास रहना पड़े । या फिर भाई- भाई का ,जहाँ सिंहासन सहोदर भ्राता के आगे  तुच्छ हो जाता है । यहीं नहीं भरत भी खड़ाऊं से राज चलाकर अपने अभौतिकवादिता की मिसाल देते हैं। अब सवाल कि राम को जाने कैसे ? तो रामायण और श्री रामचरितमानस वो आइने हैं जिनमें हम श्री राम का साक्षात दर्शन कर सकते हैं । इसलिये अगर ये आईने अगर हमारे घर में नहीं हैं तो हम ले आयें , अगर हैं तो और नजदीक से देखने का समय है।

   आज हमारा सीना ज़रूर थोड़ा सा उभर गया है , लेकिन हमें याद रखना होगा कि सनातन राम शाश्वत विनम्र हैं।  कुछ उदाहरण मैं देने का यत्न मात्र कर रहा हूँ , मेरा एक ही उद्देश्य है अपनी परम्पराओं की गहराई से समझने का। अपनी बौनी ज्ञान की पोटली खोलना मेरा मकसद एकदम नहीं है। हम अगर टीका थोड़ा लम्बा लगायें तो उससे पहले ठहरें । पहले तिलक लगाने के महत्व को समझें। ये हमारे अज्ञा चक्र को जागृत करता है जिससे हम और तेजस्वी बन सकें । अगर हम इसका महत्व समझते हैं तो भले ही हम हनुमान जी जैसे लेप लगा लें , स्वागत है। हवन में आहुति देते समय 'स्वाहा ' का उद्घोष करें तो यह आप जरूर जानते होंगे कि अग्नि देव साक्षात हमारे आहुतियों को देवों तक पहुँचाने वाले वाहन हैं । अगर हवन कुंड की राख लपेटें तो जानें कि यह राख मात्र नहीं, वह भस्म है जो हमारी आत्मा की अक्षरता का प्रतीक है । भस्म को कोई मिटा नहीं सकता । आत्मा-भस्म अक्षर अमिट हैं। अगर हम गेरुआ गमछा लपेटें तो इस रंग के परित्याग के आचरण का भी अनुसरण करें । ये बहादुर, बलिदानी रंग है । इस रंग को लपेटकर ऋषि भगवान को पा गये । सालों की तपस्या में तप गये । शिवाजी और महाराणा मुग़लों से अड़ गये । वीरांगनायें लाज को दाव पर लगता देख जौहर कर गयीं। आज भी सीमा पर जान को हथेली पर लिये रहने की हिम्मत का नाम है केसरिया। अगर सफ़ेद रंग सच्चाई का है तो उस सच्चाई को जीने का, उस सच्चाई के लिए संघर्ष करने का ,उसको कहने का, सुनने की शक्ति रखने का रंग है ये। हमें हमेशा सनद रहे, इस रंग का अंगोछा कभी भी ओछा नहीं हो सकता।
 अब थोड़ी वास्तविकता का धरातल, जो मैंने देखा है, शायद आपने भी महसूस किया हो। मेरे दादा जी की पौराणिक विद्वत्ता मेरे पिता जी से अधिक थी और मेरे पिता जी के आगे मेरे ज्ञान की कोई हश्र ही नहीं है। मेरे बच्चे रामायण, महाभारत या गीता में विकलांग न हो जायें इसका यत्न जारी है। लेकिन आज के परिवेश में बहुत कठिन काम है। हमारी प्राथमिकताये बदल रही हैं या जीने के रस्ते लेकिन सुदूर भविष्य में एक दिन हमारे ही ज्ञान को हमें किसी और से सीखना पड़ सकता है। पहले हर घर में रामायण , श्रीरामचरितमानस , गीता एक लाल कपड़े में बड़े ही आदर पूर्वक रखी मिल जाती थी। घर के बड़े वयस्क सुबह शाम उसका पाठ करते थे। और बच्चे बिना प्रयास के ही दो-चार श्लोक याद कर लेते थे। ये श्लोक मात्र ही नहीं होते थे ,सम्पूर्ण जीवन के मूल्यों की नींव बन जाते थे। मेरे कॉलेज के एक सीनियर श्री दिनेश अग्रवाल जी ,जो इंडिया मार्ट के संस्थापक हैं, का साक्षात्कार मैंने पढ़ा था। पढ़ने के बाद लगा कि धंधा भी उसूलों से हो सकता है। आप भी यथार्थ पढ़िये-
"One epic that has really inspired me is the Ramayana. One of the most important things I have derived from it is the importance of value systems in our lives.
It says, “प्राण जाये पर वचन न जाये ” As entrepreneurs, we make a lot of commitments to our stakeholders. I strongly believe that it is our responsibility to try and fulfil them.
(सौजन्य से -yourstory.com)
और बहुतेरे उदाहरण हैं जहाँ पर लोगों ने रामायण को आधारशिला बना के अपना सारा जीवन संतोषजनक रूप से सार्थक कर लिया। लेकिन मैंने ये उदाहरण इसलिए चुना क्योंकि व्यवसाय में मुनाफ़ा सर्वोपरि होता है, लेकिन उस मुनाफे के लिये रास्ता अगर रामायण और गीता से गुज़र जाये वह व्यवसाय मानव जाति का उद्धारक अवश्य होगा। लेकिन समान्यता आज  हम भगवान को मंदिरो में ही ढूँढने में लगे है।अपने अंदर बसने वाले भगवान के अंश को तो जैसे अनदेखा सा कर दिया है। उन राम को स्वयं से दूर ,दिन-प्रतिदिन हम वनवास में भेजते जा रहे हैं। इस वनवास की अवधि समय बीतने के साथ बढ़ती ही जा रही है। अगर हम अपने अंदर वाले भगवान के अंश से सरोकार कर लें तो मुझे पूरा विश्वास है समाज की बहुत सारी व्याधियाँ स्वतः विलुप्त हो जायेंगी । इन व्याधियों का विवरण करना मैं महत्वपूर्ण नहीं समझता हूँ। क्योंकि आप मेरा इशारा बख़ूबी समझते हैं। परस्पर समझ अच्छी हो तो इशारा ही काफी, नहीं तो घण्टो की माथापच्ची भी बेकार है। फिर भी एक नमूना निम्नवत है :

आज जनसंख्या विस्फोट की बात हो रही है, लेकिन मानव की संख्या मुझे कम होती दिख रही है।  महत्वपूर्ण है कि पैमाना  क्या है ? 
जो बात से चूके वो आदमी नहीं । 
अब आपकी क्या राय है? ऐसे समय में  “ प्राण जाय पर वचन न जाये “ मानव जाति को डायनासोर बनने से बचाने वाली संजीवनी बूटी है ।

अगर हम अपने अंदर के राम को पाने का प्रयत्न मात्र भी करें तो खाकी और काले कोट से कभी भेंट न हो । अपने अंदर राम की एक बूँद भी न्यायालय, चौकियों को सन्नाटे में डुबो दे । मन स्वस्थ्य तो काया मस्त
। सफ़ेद  कोट के दरवाजे पर भी दस्तक देने की जरूरत कम हो जाये।

 











अगर आपके अंदर राम को पाने की लालसा पहले से ही है ,तो आपको मेरा सादर नमन। मुझे पूर्ण विश्वाश है कि राम नाम की मशाल आप अपनी अगली पीढ़ी को भी विरासत में दें रहे होंगे । और देने का क्रम ऐसे ही चलता रहे। 
काशी की कलम भी बोले ...जय श्री राम!
- नवीन



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