कोरियन गंगा, भगीरथ नवीन

मुझे कोरिया प्रवास के ३ साल पूरे हो गये हैं ।अब यहाँ की संस्कृति थोड़ी थोड़ी समझ आने लगी है । कोरिया में कदम रखते ही मैंने निश्चय किया था कि कोरियन 
भाषा सीख के रहूँगा । इस संकल्प की प्रेरणा था मेरे द्वारा साक्षात्कार में दिया गया जवाब जिसमें मैंने एक सवाल के जवाब में बोला था कि मैं कोरियन सीख लूँगा । सवाल था कि मैं कोरियन संस्कृति में अपने आप को कैसे ढालूँगा ?  मैंने कहीं पढ़ा था कि संस्कृति की इमारत पे चढ़ने के लिये वहाँ की भाषा की सीढ़ी लगानी पड़ती है ।नौकरी पाने के लिये अक्सर सब करने लेने का वादा हो ही जाता है । आसान नहीं था, जैसे तैसे हो गया , बल्कि अभी भी जारी है। ये भाषा सीखने का निश्चय शौकवश नहीं था । ठकुरइ  भी नहीं थी बल्कि मेरी मजबूरी थी यहाँ पर बसर करने के लिये। क्योंकि आमतौर पे कोरियन के लिये अंग्रेज़ी बोलना मृग मारीच की तरह है जो उनको अथक अध्ययन के बावजूद भी अक्सर नहीं मिल पाती है ।व्याकरण, अमेरिकन ऐक्सेंट, उच्चारण सब आता है , लेकिन अवसर रूपी खेत के अभाव में अंग्रेज़ी वाला फावड़ा तिजोरी में पड़ा पड़ा जंग खाता रहता है। हाँ , माँ बाप बच्चों को  सीखाने  की पुर्जोर प्रयास से लगता है कि अगली पीढ़ी जरूर अच्छा करेंगी । बच्चों के पीठ पर लदे वजन को देख कर भगवान से मेरी यहीं प्रार्थना है ।
A place inside Gyeongbok Palace, Seoul ; A trademark place to visit in Korea.
  कोरियन ही नहीं किसी भी भाषा को सीखने में दृढ़ निश्चय नितांत आवश्यक है । उसके बिना यात्रा पूरी नहीं हो सकती । शुरू में गाड़ी की टंकी फुल रहती है , धीरे धीरे तेल कम होने लगता है । गाड़ी चलाने से थकान भी होने लगती है । फिर चालक सोचता है थोड़ा आराम करके चलते हैं । थोड़ा ताज़ा होकर । बस वहीं का विश्राम सीखने वाली गाड़ी का पूर्ण विराम हो जाता है । मेरे साथ सीखने वाले एक दो अमेरिकन मित्र ऐसे ही थे । २-३ महीने बाद हाँथ खड़े कर दिये । मेरे मन में भी बीच में एक सवाल आया कि अब क्यों मैं समय व्यर्थ कर रहा हूँ । अब काम भर का हो गया है । लेकिन तब तक आदत बन चुकी थी । सीखना ही शाश्वत है । नये आयाम भरता है । दिमाग से घीसे पीटे कामों से अलग कुछ सोचने पे मजबूर करता है । इससे हमारे अहम का ग़ुब्बारा बम्म से फट जाता है जब हम अपने बगल में सवाशेर को बैठा पाते हैं । मेरी एक क्लास में एक जापानी लगभग ५५ साल की उम्र के थे। मैं सोचा था कि मैं ही कठिन परिश्रम कर रहा हूँ, लेकिन सवाशेर बहुतेरे मिले । ज्ञान बाँटने से बढ़ता है इसलिये कोरियन कैसे सीखें इस पर भविष्य में  लिखने का प्रयास करूँगा ।

Jeju-do Harabong-Guardian of Jeju Island

 सीखते सीखते कोरियन किताब पढ़ने को मिला ।गृह कार्य के रूप में । पसीना छूट गया पहली वाली में तो । अलग अलग शब्दावली, व्याकरण सब कार में लगने वाले पूर्जे की तरह हैं। जिन्हें किताब की OEM में असेम्बल ना करें तो भाषा की गाड़ी चल नहीं सकता । फर्क साफ था मुझे कोरियन सभ्यता, संस्कृति , रीति रिवाज को करीब से जानने का मौका मिला। किताब के क्रम में मेरी बेटी पुस्तकालय से एक ऐसी किताब लेके आयी जिसमें बहुत सारे पहलू अपने भारतीय संस्कृति की छायाप्रति लगी । शीर्षक- बहू भी किसी की अनमोल बेटी है ।अभी के लिये उसका शीर्षक आपके साथ साझा करता हूँ । आगे आपको किताब की कहानी के कुछ रोमांचक पहलुओं को लेके आऊँगा। 
यहाँ तक पढ़ने के लिये भारी आभार ।
-नवीन

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