मशीनें संवेदनशीलता सीख रही हैं, पर मानव?

 लाखों साल पहले धरती का जन्म हुआ। उसपे जीवन जन्मा। उन जीवों में से एक था मनुष्य। मनुष्य ने अपनी बुद्धिमत्ता से वातावरण से अनुकूलन स्थापित किया। कभी जानवरों की तरह रहने वाले मनुष्य ने समाज नामक संस्थान की खोज की। साथ रहकर उसने अपनी सुरक्षा बढ़ाई और एक साथ मिलकर बाधाओं को पटखनी दी। दुसरे जीव समाज की शक्ति को आत्मसात नहीं कर सके। समाज, संगठन, एकजुटता ने मानव की जीवित रहने की क्षमता को बढ़ाया। समाज का गठन संवेदना की नींव पर हुआ। संवेदना एक जीव के द्वारा अनुभव किये जा रहे भाव का दूसरे जीव पर होने वाला असर है। दुसरे पर यह असर जितना अधिक होता है, वह उतना ही अधिक संवेदनशील होता है। इसी संवेदना की शक्ति की बदौलत मानव अन्य प्राणियों को पछाड़ते धरती पर अपना एकछत्र आधिपत्य स्थापित किया। डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धांत बाद में दिया। मनुष्य इसका प्रयोग पहले से ही करता आ रहा है। हज़ारों बरस पहले से ही मानव ने अपने आपको लगातार निखारा है। निखार के इस क्रम में मानव ने अपने आपको उस शिखर पर पहुँचा दिया, जहाँ वो अपने जीवित रहने के लिए पूर्णतया आत्मनिर्भर हो चुका है। 'पूर्णतया' कहने में अतिशयोक्ति नहीं है ! पुराने मानव जीवन की तरह उसका जीवित रहना अब दूसरे पर इतना आश्रित नहीं रहा। या यूँ कहें कि सफलता के उस शिखर पर किसी और के साथ टिकने की गुंजाइश नहीं है। शिखर का नुकीलपना दूसरे के लिए जगह नहीं देता है।  नुकीलेपन में चुभन होती होगी। संवेदनाओं के जो तार मानव में हज़ारों-हज़ार साल समाज में रहकर बुने थे, सम्पूर्ण आत्मनिर्भरता ने उनको उधेड़ दिया। आत्मनिर्भरता यदि समाज के हित में हो, तो लाभकारी है। यदि यह केवल ‘आप आप ही चरे’ वाली आत्मनिर्भरता हो, तो यह अपने आधारभूत मूल्यों पर सवालिया निशान लगाती है। आज के मानव में संवेदनाओं में भारी गिरावट आई है। इस गिरावट का एक मुख्य कारण उसकी यह अदिश, तथाकथित सम्पूर्ण आत्मनिर्भरता है।

मानव अन्य प्राणियों से स्पर्धा में तो जीत गया। यह जीतने की आदत उसके स्वभाव में आ गई। जीतने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक स्वभाव का होना ज़रूरी है। आज मानव को सबसे बड़ी चुनौती मानव निर्मित आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ( AI) ने दी है। AI काफ़ी कुछ कर रहा है और आगे इसकी दक्षता में वृद्धि ही होनी है। यह कितना ही दक्ष क्यों न हो जाए, मानव की तरह संवेदनशील नहीं हो सकता। यह किसी दुःखी आदमी के आँसू नहीं पोछ सकता। किसी गिरे हुए को उठा नहीं सकता। अब मानव ने AI के साथ भी दो-दो  हाथ करना स्वीकार कर लिया है। वह AI जैसा दक्ष बनने का प्रयास कर रहा है। कितनी सफलता मिलेगी, यह अभी कहा नहीं जा सकता। पर एक बात अवश्य दीख रही है कि कुशलता बढ़ाने की होड़ में मानव AI की ख़ामियों के क़रीब ज़रूर पहुँचता जा रहा है। यानी मानव AI की तरह संवेदनहीन होता जा रहा है। मनुष्य गुणों में AI को मात देने से पहले, दुर्गुणों में मात दे देगा। अब उसको सामने वाले आदमी की भावनात्मक स्थिति से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। किसी दुर्घटना में फँसे आदमी को नज़रअन्दाज़ करना वो अब सीख गया है। उसकी संवेदना की नसें सूख चली हैं। अब वैज्ञानिक AI में भावनाओं का विकास करने का प्रयास कर रहे हैं। वो चेहरा पढ़ के समझ सकेगा कि दूसरे आदमी पर क्या बीत रही है। पचास बरस बाद रोबोट आदमी का हाथ पकड़ कर रास्ता पार करा देंगे। ऐसे में आश्चर्य नहीं होगा कि कोई रोबोट पीड़ित आदमी के आंसू पोंछकर उसे गले लगा ले। हँसते आदमी को देखकर मुस्कुरा दे। गिरे हुए को उठा दे या सुपरमैन की तरह गिरने से भी बचा ले।  AI संवेदनशीलता को चुन रहा है, अफ़सोस कि मानव उसे बिखेर रहा है। आने वाली शताब्दी में एक संवेदनशील AI संवेदनहीन मानव की अपेक्षा समाज के लिए और अधिक उपयोगी साबित होगा। फिर कहीं हज़ारों सालों बाद मानव AI से मानवता के उन्हीं गुणों को सीखेगा, जिसको वो अभी भुला रहा है।

-काशी की क़लम



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