हुण्डी (कहानी)

फलते-फूलते शहर का वह मन्दिर। उस मन्दिर में कोई लक्ष्मी जी की मूर्ति नहीं थी, परन्तु उसमें लक्ष्मी का जैसे साक्षात वास था। किसी धार्मिक स्थल की संपन्नता उसके आस-पास बसे लोगों की धनाढ्यता पर निर्भर करता है। इससे अधिक उन लोगों की उदारता मायने रखती है। आए दिन मन्दिर में सोने-चाँदी के चढ़ावे चढ़ते थे। मन्दिर में माथा टेकने की जगह से अधिक हुण्डियाँ (दानपात्र) विराजमान थीं। आदमी अगर दो-चार हुण्डियों को अनदेखा कर भी दे, बिना इनमें कुछ दान किए मन्दिर की चौखट पार नहीं कर सकता था। जैसे हुण्डियाँ बोल रही हों कि अब बहुत अनदेखी कर लिये, प्रभु सब-कुछ देख रहे हैं। इस आध्यात्मिक अपराध बोध की अनदेखी भला कोई कैसे कर सकता था! ईश्वर लोगों की मन्नतें पूरी करते और लोग मन्दिर की हुण्डी स्वेच्छा से भरते जाते। मन्दिर संस्कृति का भी केन्द्र था। समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन करवाता था। इन कार्यक्रमों के टिकट लगते थे। इन आयोजनों से मन्दिर के खज़ाने में रातों-रात बढ़ोत्तरी होती थी। आते-जाते लोग हुण्डी में अपनी श्रद्धा से जो दान देते, वो तो अलग से बोनस! मन्दिर में जगह-जगह दान करने की विभिन्न विधियों के विज्ञापन लगे थे। अपने सामर्थ्य के अनुसार फूल-माले, अंग-वस्त्र से लेकर बिल्डिंग बनवाने तक का बेड़ा उठाया जा सकता था। मन्दिर तकनीक के मामले में ज़माने के साथ चल रहा था। ‘फ़ोन-पे’, ‘पेटीएम’, ‘भीम’ इत्यादि ऐप (Apps) द्वारा भी दान किया जा सकता था। बड़े-बड़े क्यू. आर. (QR) कोडों के बीच में देवी-देवताओं की झाँकती तस्वीरें! वे जैसे उनकी तस्वीर खींचने का निमंत्रण दे रही हों। नगद की बड़ी राशि के अलावा, ट्रस्ट, वसीयत, सिक्योरिटीज़ इत्यादि अन्य माध्यामों से भी श्रद्धा-सुमन अर्पित किए जा सकते थे। कुल मिलाकर मन्दिर के कोष का वर्तमान और सुदूर भविष्य बहुत ही सुनहरा था।

मन्दिर का प्रशासन बोर्ड के हाथों में था। बोर्ड में चेयरमैन/चेयरवुमन, अध्यक्ष के अतिरिक्त कुछ सदस्य होते थे। सभी पदों का चयन एकदम लोकतांत्रिक था। प्रभु में निष्ठा और मन्दिर के प्रति समर्पण के आधार पर भक्तगण अपने चहेते, श्रेष्ठ भक्त को बोर्ड में चुनकर भेजते थे। जब मन्दिर के पास इतनी धनराशि हो, तो उसका प्रबन्धन देखने के लिए उम्मीद्वार में ईमानदारी होनी ही चाहिए। साथ ही वह इन पैसों का सही निवेश करके और कैसे बढ़ा सकेगा, इस योग्यता पर भी समान बल रहता था। बोर्ड के संरक्षण में मन्दिर के मणि की आभा निरन्तर फैलनी चाहिए थी।

कबीर जी लगभग सत्तर साल के थे। वे पिछले पाँच सालों से मन्दिर ट्रस्ट के चेयरमैन थे। बचपन में धर्म-कर्म की सीख परिवार के माहौल ने उनको दी। तभी से ईश्वर में उनकी गहरी आस्था विकसित हो गई और भक्ति उनको विरासत में मिली। इस मन्दिर के प्रबन्धन का काम उन्होंने ज़मीनी स्तर से शुरू किया। मन्दिर में उनका सबसे पहला योगदान श्रद्धालुओं के जूते-चप्पलों को सम्भालने का था। जनता के जूतों से जनता जनार्दन के मुकुट तक की ज़िम्मेदारी पूरी ईमानदारी से उन्होंने निभाई। उनकी इस कर्त्तव्यपरायणता ने उनको मन्दिर-प्रबन्धन की सबसे ऊँची सीढ़ी चढ़वा दी। अब तो वो अपने जीविका के काम से भी अवकाश प्राप्त कर चुके थे। इसलिए अपना सारा समय भगवान की भक्ति में लगा दिये थे। मन्दिर भगवान का घर होता है। कबीर भगवान के पड़ोसी हो गए थे।वे दिन-रात वही काम-काज में  व्यस्त रहते।
नौजवान सुरेश मन्दिर में काग़ज़-पत्तरों का काम देखता था। कहने को उसकी पोस्ट क्लर्क की थी, मगर मन्दिर प्रशासन उससे क्लर्क और अर्दली का दोहरा काम लेता था। वह धार्मिक कर्म-काण्डो में कच्चा था, लेकिन अपने एकहरे शरीर से दोहरी ज़िम्मेवारी बड़ी फुर्ती से पूरी करता था। वो बोलता कम था। इसलिए नहीं कि उसको बोलना नहीं आता था। बल्कि इसलिए कि एक अर्दली की सुने कौन! उसके माथे पे चौथे क्लॉस का टीका जैसे उसकी बुद्धि पे लग गया हो। जब कोई उसकी बातें सुनने को राज़ी होता, तो उनके भार से उबर नहीं पता था।  एक दिन संध्या का समय था। सभी श्रद्धालु दर्शन-पूजन करके जा चुके थे। आज सप्ताह का वह दिन था, जब सुरेश को एक-दो घण्टे की बेग़ारी करनी पड़ती थी। मतलब बिना भुगतान के ओवरटाइम। नौकरी करने वाले लोगों से कैसे बर्ताव होने चाहिए, यह मन्दिर प्रशासन अच्छी तरह-से सीख चुका था। आज की शाम शुक्रवार की शाम थी। सारी हुण्डियाँ के खुलने की शाम। लोगों की साप्ताहिक छुट्टियों के दिन हुण्डियों को सबसे अधिक काम आना पड़ता था। शुक्रवार को ख़ाली होकर वे शनिवार और रविवार को आने वाले श्रद्धालुओं के स्वागत में तैयार रहतीं। सारी हुण्डियों को खाली कर कबीर मन्दिर के कार्यालय पहुँचे। दो बड़े-बड़े झोले उनके दोनों कंधों से ऐसे लटक रहे थे, जैसे कोई कहार अपनी क्षमता से अधिक पानी छलकाते हुए ढो रहा हो। उन्होंने झोलों को उतारकर मेज़ पर आहिस्ते-से रखा। बैंकों में नोटों को गिनने की मशीन होती है, वही मन्दिर के पास भी थी। उस  मशीन को सुरेश ने पहले-से ही लगा रखा था! नोटों की बड़ी-से-बड़ी संख्या को  चुटकी में गिनने के लिए। कबीर ने उन झोलों को उड़ेला। मेज़ जैसे नोटों की प्रिंटिंग प्रेस की तरह भर गई हो। लेकिन इनमें से एक भी नोट कोरी या सीधी न थी। सबकी-सब नोटें सूखे हुए महुओं की तरह सिमटी हुई थीं। जैसे श्रद्धालुओं ने उनको अपने वॉलेट या पर्स से नहीं, बल्कि रूमाल की गाँठ से निकाला हो। जैसे दान करते समय नोटों को ज़बरन छीना गया हो। या फिर लोग उन काग़ज़ों पे अपनी अंगुलियों के निशान लगाकर देना चाह रहे हों, ताकि भगवान को दानकर्ता की  पहचान करने में आसानी हो। दान में मिले सिक्कों के साथ सौतेला व्यवहार हुआ। उनकी क़िस्मत में मेज़ नहीं मिली। उनको एक डब्बे में समाना पड़ा। अब नोटों के ढेर को गिनना था। उससे पहले नोटों को छँटनी ज़रूरी थी। आम तौर पर सुरेश को कबीर रूखेपन से बुलाया करते थे। बस एक यही काम ऐसा था, जब सुरेश को चेयरमैन साहब से पुचकार मिलती। सुरेश को नाराज़ कर दिया तो १०० के नोट १० के साथ भी चुने जाने का भय था। फिर भी नोटों को देखकर किसका  ईमान कब डोल जाए! कबीर नोटों की पूरी छँटनी-गिनती CCTV कैमरे के सामने ही करवाते थे। सुरेश मशीन रख के दूर अपनी कुर्सी पे बैठ गया। कबीर ने स्नेह भरे स्वरों में ,” भई, आज तो बहुत है, आओ!फ़टाफ़ट गिनके घर चलें।” सुरेश को पता होता था कि कबीर क्या कहने वाले थे। इसलिए कबीर की बात ख़त्म होने तक सुरेश तीर की तरह मेज़ पर आ पहुँचा। नोटों की छँटाई-बिनाई शुरू हुई। सबसे कठिन काम सुरेश को मिलता था। २, ५ और १०, २० के नोटों को छाँटने का। इनकी संख्या हुण्डी में अधिक होती थी। ५० और उससे ऊपर के नोटों को छाँटने का काम कबीर का होता। सुरेश २ के नोट चुनना शुरू किया। घण्टे भर छँटाता रहा। हुण्डी के सारे नोट इतने अकड़े होते कि सीधे होने का नाम नहीं लेते थे। कई बार सुरेश ने नोटों को ज़ल्दी से सीधा करने के लिए स्त्री (iron) करने का प्रस्ताव कबीर को दिया। लेकिन जलने के भय से कबीर ने अमल नहीं किया। सुरेश विचित्र क़िस्म की नोट मिलने पर कबीर से पूछ लिया करता था कि उनका  क्या किया जाए! काफ़ी देर तक २ की संख्या को हेरता हुआ सुरेश कबीर के सामने एक नोट रख दिया, साहब, इसका क्या करना है?” नोट दो टुकड़ों में था। मशीन गिन नहीं सकती थी। कबीर नोट को परखे, जैसे कोई सोनार सोने को बारीक़ी से परखता है। दोनों टुकड़ों को मिलाने पे नोट का सरकारी नम्बर पूरा हो रहा था। कबीर एक वित्तीय विशेषज्ञ की तरह बोले, “ अलग रख दो।  नम्बर पूरे हैं, चल जाएगी।”

जब नोटों की ऊँचाई मशीन में गिनने भर की हो जाती, कबीर उनको फर्र से गिनकर रबर बैण्ड लगा देते। बिनाई-छँटाई-गिनाई के दौरान कबीर बगुले की तरह ध्यान लगाते। लगभग मौन! उनकी आवाज़ केवल दो चीज़ों के लिए निकलती थी। एक सुरेश के कुछ पूछने पर निर्देश देने के लिए। दूसरी किसी बड़ी नोट के मिलने पर, एक अनैच्छिक क्रिया की तरह। जैसे बड़ी नोट कण्ठ की घण्टी बजा रही हो। आज कबीर बहुत बोल रहे थे। २००० के नोट उनको काफ़ी मिल रहे थे। इस बात से प्रसन्न कबीर को सुरेश ने छेड़ा, "साहब, ज़ल्दी से बैंक में डाल दीजिएगा, बड़े नोट आजकल लम्बे नहीं चल पा रहे हैं। सरकार इनको सैर-सपाटा करवाकर वापस बुला ले रही है!” कबीर के खिले चेहरे पर जैसे पाला मार दिया। वे बोले, “ भगवान का पैसा है, कोई काला धन नहीं…।” आवाज़ में पहले से अधिक आत्मविश्वास था। जैसे वो सुरेश को फ़ायनेंस के लेक्चर से अधिक ख़ुद को दिलासा दे रहे हों। सुरेश ने पिनकाने की बची-खुची कसर भी पूरी कर डाली, “ क्या पता कोई काला धन हुण्डी में छुपा रहा हो!” कबीर इन सवालों के काग़ज़ी उत्तर जान रहे थे। उनको पता था मन्दिर में आने से पहले धन का रंग चाहे जो भी रहा हो, प्रभु के चरणों में वो दूध का धुला हो जाता है। अपनी अंतर्रात्मा के थोड़े-से भी सम्पर्क में रहने वाला मनुष्य पहले संवेदनशील होता है, बाद में और कुछ। इसलिए सुरेश की इन कुरेदने वाली बातों से कबीर हिल गए। बीच-बीच में कुछ दूसरे देशों के नोट भी मिल रहे थे। कबीर का सीना चौड़ा हो गया कि अब श्रद्धालु विदेशों से भी आने लगे हैं। मशीन में गिनने के बाद नोटों में रबर बैंड लगती।  नोटों की गड्डियाँ मेज़ पर ऐसी रौनक़ बिखेरतीं, जैसी रौनक़ बैंक में होती है। किसी नेता या व्यवसायी के यहाँ काले धन के पकड़े जाने की तस्वीर अख़बार में इतनी ही छटा बिखेरती है। छँटनी में सुरेश को आज फिर एक विचित्र काग़ज़ मिला। यह कोई विदेशी नोट या चेक नहीं था। यह एक पत्र था। सुरेश ने पहले अपने आपको यह पत्र पढ़ा। पत्र लिखावट और भाषा शैली से किसी बच्चे का मालूम हुआ। उसमें लिखा था,

“प्यारे भगवान जी! मैं आपको हर शनिवार को लेटर लिखता हूँ। पर आप हैं कि उत्तर ही नहीं देते। कोई बात नहीं। मेरे पापा कहते थे कि आप एक दिन ज़रूर सुनेंगे। मुझे पापा ने बताया था कि आप डिवोशन (आस्था) की परीक्षा लेते हैं। मैं स्कूल की हर परीक्षा में फ़र्स्ट आता हूँ। आपकी परीक्षा भी पास ज़रूर करूँगा। माँ कहती है कि आपको जो लोग प्यारे होते हैं, उनको अपने पास बुला लेते हैं। मेरे पापा को आपने क्यों बुलाया? मैं उनको आपसे अधिक प्यार करता हूँ। उनको मेरे पास भेज दीजिये।  अब पापा नहीं हैं, घर की सारी रेस्पोंसिबिलिटी (ज़िम्मेदारी) मम्मी की है। मुझे लगता है कि हम भाई-बहनों की स्कूल पूरी नहीं हो पाएगी। अनपढ़ कहलाये जाने की बात से हम बहुत डरे हुए हैं। माँ बहुत दुःखी रहती है। हम सभी के पास डर और दुःखों का सरप्लस (अधिकता) हो गया है। पापा के साथ मन्दिर आते वक़्त वो मुझे बताया करते थे कि जो भी चीज़ हमारे पास अधिक हो जाए, उसे भगवान को दान कर देनी चाहिए। इससे आदमी का बोझ कम रहता है। आप हमारे डर और दुःख ज़ल्दी से ले लीजिए। ये अब बहुत अधिक हो रहे हैं।  - रोहन”

इस चिट्ठी को पढ़ने पर सुरेश मुस्कुराया और अपने आपसे बोला कि वाक़ई में बच्चे भगवान का रूप होते हैं! इतनी मासूमियत! बच्चे ने हुण्डी में अपने दुःखों को ही दान दे डाला। उसने इस चिट्ठी को कबीर के सामने रख दिया। यह पहली ऐसी चिट्ठी नहीं थी। इस बच्चे ने कई महीनों से हुण्डी में ऐसी चिट्ठियाँ डाली थीं। कबीर की मशीन केवल नोट गिनकर रखती थी। उनको गिनकर बाँटना उसने  कभी सीखा नहीं था। कबीर को बच्चे की याचना पता थी। उसको स्कूल की फ़ीस भगवान से भरवानी थी। कबीर ने चिट्ठी को हाथ में लिया और उसे मोड़कर कूड़े की तरह दूर फेंक दिया। सुरेश नीलकण्ठ की तरह विष पी कर लाल हो उठा! नौकरी करने के ख़याल ने उसे ठण्डा किया। वह एकदम मौन हो गया। बचे हुए नोट उसने चुने। वह चुपचाप उठा और उस चिट्ठी को उठाया। एक सीधे ख़त के काग़ज़ का हाल तोड़-मोड़कर हुण्डी में डाले नोटों जैसा हो चला था। फिर सुरेश उस चिट्ठी को उठाते हुए अपनी कुर्सी पकड़ लिया। मशीन भी फ़र्राटा भरना बन्द कर दी।  कबीर ने टोटल जोड़ा और सन्तोष की गहरी साँस ली। एक हल्क़ी मुस्कान उनके चेहरे से झाँक रही थी। इस मुस्कान का मतलब था कि इस सप्ताह का टोटल पिछले से अधिक था। सिक्कों के साथ दोबारा सौतेला व्यवहार हुआ। उनकी कोई गिनती नहीं हुई। डब्बे से उन्हें बड़े से बोरे में भर दिया गया। ठीक वैसे ही जैसे  झोले का अनाज बड़ी बोरी में झर-झराकर उड़ेला जाता हो।

कबीर के इस व्यवहार पर सुरेश को तनिक भी अचरज नहीं हुआ। क्योंकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ था।  किसी भी अप्रत्याशित घटना पर आश्चर्य सिर्फ़ पहली बार होता है। उसके बाद वह अप्रत्याशित अपेक्षित हो जाता है। उसका बार-बार होते देखना आम हो जाता है। फिर उसका न होना अप्रत्याशित लगने लगता है। सुरेश बच्चे की प्रार्थना सुनने के लिए स्वयं प्रभु से प्रार्थना करता था। ख़तों के साथ दुर्व्यवहार और पक्षपात की सीमा कबीर थे। डोनेशन के लिए आए ख़तों की VIP ख़ातिरदारी होती। विद्यालय, अनाथालय, हस्पताल, तथा दूसरे छोटे मन्दिर आदि जगहों से आने वाले पत्रों से कबीर को परहेज़ था। वे उनका ब्लड प्रेशर (रक़्त चाप) बढ़ाते थे। इस प्रकार ख़त को सम्मान या कूड़ेदान भाग्य में मिलते थे।

कबीर हाथों में नोटों की गड्डियों को लेकर अलमारी में रखने के लिए उठे। पीछे मुड़ते ही सुरेश प्रेत की तरह खड़ा मिला। कबीर डर गए, “ जासूसी कर रहे हो मेरी… कितनी बार कहा है कि थोड़ा खाँस-खखार लिया करो। हॉर्ट पेशेंट ( हृदय रोगी) हूँ। क्या चाहते हो, मन्दिर में सीधे मोक्ष पा जाऊँ!” सुरेश को पता था कि इन सवालों  को केवल सुनना है, इनके उत्तर नहीं देना है। सुरेश के हाथ में चिट्ठियों की एक गड्डी थी। ये सारी उसी बच्चे की चिट्ठियाँ थीं। सुरेश सारी फेंकी हुई चिट्ठियों को सम्भाल के रखा लेता था। कबीर को समझ नहीं आ रहा था कि सुरेश क्या करना चाहता था! रात का समय था। मन्दिर में और कोई बचा भी नहीं था। कबीर कहीं सुरेश के हवाले तो नहीं हो गए थे! मामला पैसों का था। कहीं सुरेश आज मन्दिर को लूटना तो नहीं चाह रहा था! सुरेश की नज़र उन चिट्ठियों पर पड़ी। अपने डर पर नक़ली नुक़सान ओढ़ाते हुए बोले, “ अरे! अभी तक तुमने इनको फेंका नहीं!” सुरेश ने कहा, “ साहेब, छोटा मुँह बड़ी बात... लेकिन मन्दिर को बच्चे की आस्था के लिए कुछ करना चाहिए।” कबीर, अपनी सुरक्षा को लेकर पहले से कुछ अधिक आश्वस्त हो गए। कम-से-कम सुरेश की नीयत तो साफ़ निकली! सुरेश उनसे मन्दिर के पैसे बच्चे को देने के लिए कह रहा था। जब भी कोई मन्दिर से पैसे माँगता, कबीर की मांस पेशियों में एकाएक तनाव-सा आ जाता। वो पैसों के बचाव के लिए आक्रामक हो जाते।  उन्होंने सुरेश के छोड़े हर तीर की ढाल निकाली। वे बोले, “ देखो, इस मन्दिर को चलाने के लिए बहुत पैसे चाहिए। अगर हम यूँ ही बाँटने लगे, तो मन्दिर को खण्डहर बनते देर नहीं लगेगी। उस बच्चे को लेकर तुम बहुत भावुक हो रहे हो। आख़िर तुम्हारा क्या लगता है वो!” ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ पर घण्टों भाषण देने वाला अगर यह सवाल पूछे, तो ज़रूर उसने अपनी आत्मा कहीं गिरवी रख दी होगी। सुरेश ने कुछ उत्तर नहीं दिया। कबीर ने अपना वित्तीय लेक्चर चालू रखा, “ जो मन्दिर अपने सम्पत्ति का प्रबन्धन अच्छे-से नहीं कर पाते, वो डूब जाते हैं। क्या चाहते हो कि एकदिन तुम भी बेरोज़गार होकर  घर बैठो?” सुरेश सब-कुछ सुन रहा था। समझ रहा था। फिर भी वो चुपचाप था। किसी वाद-विवाद में एक पक्ष बहुत देर तक नहीं बोल सकता! उसको जारी रखने के लिए दूसरे पक्ष की सहभागिता चाहिए होती है। कबीर की यह सारी दलीलें सुरेश के लिए नहीं थीं। वे स्वयं कबीर को दिलासा देने के लिए थीं। कहीं-न-कहीं कबीर को अन्दर यह लगता था कि सुरेश की बात कम-से-कम सुनी जानी चाहिए। अमल तो बाद की बात है। सुरेश ने सारे ख़त एक के ऊपर एक करके मेज़ पर रखना शुरू किया। पानी की एक बूँद पत्त्थर को केवल नम कर सकती है, मगर कई सारी बूँदें उसपे निशान करती हैं। कबीर के साथ भी यही हुआ। इतने सारे ख़तों की पुड़िया बनाकर फेंक देना! एक-एक ख़त जैसे अपनी उपेक्षा की उलाहना दे रहा हो। कबीर अन्दर से कुछ असमंजस में पड़ गए ।वो कहना कुछ और चाहते थे, लेकिन उनसे कहा कुछ और ही जा रहा था। जैसे वो अपने वश में न हों। पहली बार वो सुरेश से नज़रें चुराकर बोले “ इस बच्चे का भाग्य भगवान तय करेंगे। वही भाग्य-विधाता हैं।” सुरेश ने आदर के साथ बोला, “ साहब, क्या पता भगवान आपके हाथों ही इस बच्चे का भाग्य लिखवाना चाहते हों!” भगवान का न्यायालय हो और जैसे सुरेश ने कबीर को कठघरे में खड़ा कर दिया हो। कबीर निःशब्द थे। जो तार्किक प्रतिक्रिया ज़बान पे थी, उसको लगाम लगाया। सुरेश जारी रहा, “ भगवान पालनहार हैं। लोग मन्दिर को दान देते हैं, प्रभु की उन पर कृपा है। कुछ लोग ज़रूरत में हैं, तो भगवान चाहेंगे कि मन्दिर से उनकी मदद हो। क्या पता, भगवान मन्दिर के माध्यम से यह संतुलन बनाना चाह रहे हों। आप ऐसे मानिए कि भगवान का एक हाथ दानवीरों के सिर पर हो और दूसरा हाथ ज़रूरतमंदों का हाथ थामे हो।” सुरेश के लेक्चर सुनके कबीर झेंपने लगे। उनके बचाव के तरकश में तीर कम न थे, बोले “ हमें लेक्चर मत दो। मन्दिर की समाज कल्याण कमेटी के बारे में शायद तुम नहीं जानते।” सुरेश झट-से मन्दिर का वित्तीय लेखा-जोखा उठा लाया। पन्ने उलट-पलट कर दिखाने लगा, “ साहब! कमेटी केवल नाम की है। ये देखिए, पिछले कई सालों में एक भी काम ज़मीनी स्तर पे नहीं हुआ है। भला अख़बारों में छपवाने से कभी समाज का कल्याण हुआ है !” पहली बार सुरेश की दलीलों में लक्ष्मण जी वाला तपाक था। जैसे लक्ष्मण जी परशुराम जी के सामने निर्भयता से अपना पक्ष रख रहे हों। कबीर को वास्तविकता के धरातल मालूम थे। कल्याण कमेटी काग़ज़ पर ही थी। वो यह लगभग स्वीकार कर चुके थे कि मन्दिर का व्यवहार नैतिक नहीं था। मगर उनका अहम अभी मानने को तैयार न था। चेयरमैन एक अर्दली के आगे झुक जाए! अब वो इस संवाद से कन्नी काटने लगे। कबीर ने बोला, “ अच्छा, बातें बहुत करने लगे हो। घर में बीवी-बच्चे राह देख रहे होंगे। चलो कुछ कल के लिए भी रहने देते हैं।” सुरेश को लगा जैसे कबीर के न्यायाधीश ने मुक़द्दमे की अगली तारीख़ दे दी हो! वह भी अपना झोला बाँधने लगा। उधर कबीर राहत की साँस ले रहे थे। शाम की विदाई देते समय सुरेश ने बोला, “ साहब, मेरे पिता जी कहते थे कि दुनिया केवल बाँटने वालों को ही याद रखती है, बटोरने वालों को भुला देती है। मन्दिर को दुनिया कितनी याद करेगी, यह आप पे निर्भर करता है। शुभ रात्रि आपको।” यह कहते-कहते सुरेश झट से निकल गया। आलमारी में ताला लगाके कबीर भी घर के लिये निकले। सुरेश के तीर उनकी मूर्छित अंतर्रात्मा को अभी भी भेद रहे थे। हर तीर का घाव जैसे आत्मा को जगाकर हरा कर रहा था। रास्ते भर वो सुरेश की बातों को दोहराते रहे। उनको अपनी संवेदना रहित दलीलों पर खेद भी था। निजी कम्पनी में उनका कार्यकाल स्वर्णिम रहा था । मगर कब ऊँची कुर्सी ने उनकी संवेदना छीन ली, उनको पता ही नहीं चला। कुर्सी बैठने के लिए होती है। यदि उसकी ऊँचाई सिर चढ़ बैठे, तो आदमी काठ का हो जाता है। सुरेश ने इस काठ को अपनी तीरों से भेदकर  फिर से मानव बनाया था। शाम को घर में रौशनी थी, मगर कबीर बुझे-बुझे-से थे। वो शाम की पूजा-पाठ पूरी किए। वो भगवान से भी नज़रें चुराकर ही रह रहे थे। ऐसा लग रहा था कि सुरेश की आवाज़ में भगवान बोल रहे हों। सोने गये, लेकिन नींद पास नहीं आ रही थी। कुन्तल भर बोझ रखे जाने जितना भारी उनका मन था। उनको नशा कुछ था नहीं कि नैतिक अपराध बोध को नींद में सुला सकें। सुरेश ने अपनी ग़लती अपने आप मानी। आधी रात को उन्होंने फ़ोन उठाया। सुरेश को लगाया। सुरेश गहरी नींद में था । दो-तीन बार घण्टी बजने पर आधी नींद में ही फ़ोन हाथ में लिया। इतनी रात गए चेयरमैन साहब! कहीं सचमुच तो हार्ट अटैक नहीं आ गया! या फिर कोई मन्दिर में डाका तो नहीं डाल दिया! इन सब आकलनों के बीच उसने फ़ोन उठाया। उधर से कबीर की भर्राई हुई आवाज़ थी। वो क्षमा माँग रहे थे। आँखें खोलने के लिए आभार भी प्रकट कर रहे थे। सुरेश को लगा कि वो सपना देख रहा था। यह व्यवहार अप्रत्याशित था। इस समय वो किसी भी बातचीत की स्थिति में नहीं था। अच्छा, जी, साहब,, इनसे काम चलाकर शुभ रात्रि बोल दिया।

अगला दिन शनिवार का था। मन्दिर श्रद्धालुओं से भरा हुआ था। सुरेश आज समय से कुछ ज़ल्दी ही मन्दिर पहुँच गया था। उसने अनाथालयों, चिकित्सालयों, इत्यादि मदद की गुहार लगाने वाली सारी चिट्ठियाँ इकट्ठा कर लीं। बच्चे की चिट्ठी ने इनके भी दिन ला दिए थे। आज उनके साथ भगवान न्याय करने जा रहे थे। देर से ही सही, उनको उत्तर भेजे जाने का समय आ गया था। हर शनिवार को वो बच्चा रोहन अपनी माँ के साथ मन्दिर आता था। आज सुरेश को उस बच्चे की पहचान करनी थी। सुरेश भगवान के ठीक सामने रखी हुण्डी पर टकटकी लगाकर बैठा। चिट्ठी उसी हुण्डी से निकला करती थी। रोहन की पहचान हो गई। लगभग १० बरस का एक दुबला-पतला लड़का। हुण्डी में चिट्ठी डालकर वो भगवान के सामने माथा टेकने गया। सुरेश ने उसके पीछे जाकर पुकारा, “ रोहन बेटा!” रोहन को लगा कि भगवान की आवाज़ इंसान जैसी ही होती है! सुरेश ने उसके कंधे पर हाथ रखकर अपनी ओर ध्यान खींचा और कहा “ रोहन, भगवान ने आपका सारा दान स्वीकार कर लिया है। मुझे उन्होंने ही आपके पास भेजा है।” रोहन को भरोसा नहीं हो रहा था, बोला“ आपको मेरा नाम कैसे पता है?” सुरेश, “ बेटा, मुझे भगवान ने आपका नाम बताकर भेजा है।” रोहन को भगवान पे पूरा भरोसा था। इस भरोसे से उसने सुरेश पर भरोसा किया। सुरेश, “ अब आपका स्कूल चलता रहेगा।” रोहन फूले न समाया।



उधर कबीर रोहन की माँ से मिलकर उनकी शिक्षा-दीक्षा के बारे में पूछ रहे थे। उन्होंने रोहन की आशा-आस्था भरी सारी चिट्ठियाँ रोहन की माँ को दिखाईं। नादानी भरी चिट्ठियाँ, वो भी हुण्डी में ! माँ माफ़ी माँगने लगीं। कबीर ने उनको मन्दिर में खाली पद पर काम करने का प्रस्ताव दिया। एक विधवा के प्रति इतनी सहानुभूति! माँ बड़ी असमंजस में थीं। फिर ख़ुद को भगवान के पवित्र का मंदिर का वास्ता देकर उन्होंने समझा लिया। उन्होंने सोचने-विचारने का समय माँगा।  कबीर ने उनको नौक़री का ऑफ़र लेटर देते हुए कहा, “ समय ले लीजिए। यदि आपको उचित लगे, तो आपका स्वागत है। अन्यथा समाज कल्याण कमेटी बच्चों की पढ़ाई का ध्यान अवश्य देगी।” रोहन अपनी माँ के साथ हँसी-ख़ुशी वापस घर चला गया। वे दोनों आस्था और उम्मीद का प्रसाद भी साथ ले गये। कबीर ने सुरेश से बोला, “ भई, मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं गंगा नहा लिया हूँ। बड़ा हल्का लग रहा है ।” सुरेश ने सुबह इकट्ठी की गई याचना वाली सारी चिट्ठियाँ उनके सामने रख दी और बोला, “ ये लीजिए साहब, महादेव की जटा।” कबीर समझे नहीं। सुरेश बोला, “ गंगा जी महादेव की जटा से निकलती हैं  साहब। तो आप इस जटा को ही लपेट लीजिए। और हल्क़े हो जाएँगे आप।” दोनों लोग ठहाकों में डूब गये।

-काशी की क़लम

टिप्पणियाँ

  1. हुंडी' की कहानी दिल को छू गई , विशेष कर 'रोहन' का कैरेक्टर भावुक कर देने वाला था। दिनों दिन आपकी लिखावट बेहतर होती जा रही है, इस लिखावट पर कुछ टूटी-फूटी लाइन प्रेषित कर रहा हूं।

    'लिखते -लिखते लेखनी में अब निखार आ गया है,
    व्याकरण और शब्दों का सही इस्तेमाल आ गया है।
    कल तलक थी जो जांचने की जरूरत,
    अब उसमें सुधार बेमिसाल आ गया है।।'

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