पिता (कविता)
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छायांकन: काशिका |
पिता के कन्धों का भार जानने को सीढ़ी चढ़नी पड़ती है,
पौधे से बाग़बान तक की एक पीढ़ी चढ़नी पड़ती है।
पिता के जूते की कोई नाप नहीं हो सकती है,
मूक संघर्षों की कोई छाप नहीं हो सकती है।
जिस उँगली को पकड़कर चलना पड़ता है।
उसका मर्म समझने उँगली पकड़ाकर चलना पड़ता है।
ये छाता बच्चों को धूप-बारिश से बचाता है,
कहीं साथ छूटे न जाए, बीमा भी करवाता है।
पिता के छाते का कपड़ा भले ही कट-फट जाए,
मज़ाल है कि सुरक्षा की कमानी ज़रा भी हट जाए।
जीवन काग़ज़ की नावों का खेल नहीं है,
यह दरिया बस मीठी यादों का मेल नहीं है।
इसे पार करने लहरों से टकराना पड़ता है,
पिता को बच्चे को माँझी बनाना पड़ता है।
-काशी की क़लम
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