‘गंगा मैया ने बुलाया है’ (कविता)

( यह कविता उसी समय लिखी गई थी, जब भारत माँ के बच्चे अकाल कोरोना की बलि चढ़ रहे थे और गंगा मैया अपने घाटों की दशा देख जमके पत्थर हो गई थीं! किन्हीं कारणों से प्रकाशित नहीं हो पाई।)



(कोरोनो की लहर में बलिदान हुए अपनों को समर्पित। गंगा माँ की व्यथा)

भाग-१: माँ की पीर


‘गंगा मैया ने बुलाया है’ ऐ बेटे कहाँ हो!

बज्रपात पड़ा है, मेरे लाल, कहाँ हो?


मेरे घाट पटे जा रहे हैं,वे  मेरा माथा ढँके जा रहे हैं,

मेरे कंधे टूट रहे हैं, मेरे हाथ सारे कटे जा रहे हैं।


सूखे पेड़ जलकर भस्म हो चले हैं,

हरे-भरे अब अकाल धुंध हो रहे हैं।


मैं पृथ्वी अवतरण का मूल भूली नहीं हूँ,

मैं माँ हूँ, अकाल मोक्ष की सूली नहीं हूँ।


मैं बहती हूँ सबके कल्याण के लिए,

प्यास बुझाने, पोषण करने के लिए।


काली घटाओं को काटने, हर तिनका हरा करने के लिए,

तुलसी-दल ही नहीं, मैं आई गंगाजल बनने के लिए।


अब बच्चे बिन बुलाये गोद आ रहे हैं,

एक-एक कर मेरी कोख में समा रहे हैं।


वे कराह रहे, माँ! मेरे पीछे छूटा अधूरा संसार है,

ऐसे क्यों बुलाया? अभी तो मोक्ष भी दुश्वार है।


कोख सूनी, मांग सूनी, सूनी बहुत कलाई है,

घरों का कोना सूना, विरह यादों की परछाई है। 


मेरे लाल! जग जानता है, मैं दरिया अथाह हूँ,

मैं हरी रहती हूँ, अविरल आशा का प्रवाह हूँ।


पर मेरी भी हद यही है कि मेरा नाम गंगा ‘माँ’ है,

कैसे देखूँ, कमी कफ़न की, ढँकने को बचा आसमाँ है।


मेरी आँख बूँद-बूँद कर सूख रही है।

दम घुट रहा, मेरी साँस सूज रही है।


अब मैं भी जल रही हूँ, उबल रही हूँ,

पीड़ा की भाप को निगल रही हूँ।


भाग-२: राजधर्म


भाग्य ने कर्तव्य का हाथ कहाँ रोका है,

होनी के सिर दोष मढ़ना, जहाँ से धोखा है।


रणभूमि में शस्त्र डालना काल को न्योता है।

कर्मभूमि में अभिनय तो मात्र मुखौटा है। 


जिन कथाओं के बल राजतंत्र चला करते थे,

उनके बहाने लोकतंत्र घुटने के बल गिरते हैं।


याद अपनों की कमज़ोर नहीं होती,

चौथे शेर के जगने में देर नहीं होती।


ये घायल यादों के बन रहे मक़बरे हैं,

निर्मम साम्राज्यों की खोद रहे क़ब्रें हैं।


हर माथे पे विजय तिलक गंगाजल में सनी है,

मेरे सूखने पर हर तिलक सूखकर झरी है।

-काशी की क़लम 

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