जब ग़लत ही सही लगने लगे (कविता)


जब ग़लत ही सही लगने लगे,

जब अंधेरा ही जलने लगे,

शोर नई शांति बन जाए,

पग-पग भ्रांति मन लुभाए,

प्रभु! तब धरूँ चित्त मैं ऐसा,

ख़ुद को चित करने जैसा।

ख़ुद में डूबूँ अलग-थलग करूँ

नीर-क्षीर धीर हंस करता जैसा।


सफलता की परिभाषा बिगाड़ कर

नैतिक मूल्यों की बन्द किवाड़ कर 

वह कौन-सी चोटी छूने जाना है?

वंशजों की ख़ातिर यह खाई बनाना है। 


न ख़ाली हाथ आना है न है ख़ाली जाना,

कहानी में कुछ लेकर कुछ देकर है जाना।

इस कहानी में परिचय मेरा बना रहे इतना

‘मानव था मानव रहूँ’ याद रखने जितना।

-काशी की क़लम


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