ओस के मोती
सादर प्रणाम,
किसी शायर की ग़ज़ल…। ग़ज़ल का एक शेर। किसी बात के लिए लिखा गया शेर उस माहौल को देखते ही मन को छू जाता है। जैसे, पैसे के पीछे अंधाधुंध दौड़ते आदमी को देखके जावेद अख़्तर साहब के इस शेर का ख़ुद-बख़ुद हरा हो जाना:
सिक्के गिन-गिनके हाथ मेरा खुरदुरा हुआ,
जाती रही लम्स(छुअन) की गर्मी, बुरा हुआ।
ये तो रही बात कभी-कभार छू जाने वाले शेरों की। कुछ महीनों से डॉ. बशीर बद्र साहब का लिखा यह शेर रोज़ाना सुबह ताज़ा हो जाता है। घर के बाहर पड़ी घास पे जमा ओस की बूँदों को देखकर।
कह देना समुन्दर से हम ओस के मोती हैं,
दरिया की तरह तुझसे मिलने नहीं आएँगे।
ओस की बूँदों का अस्तित्त्व कुछ घण्टों का होता है। वे सुबह सूर्य की रोशनी पाकर मोती जैसी चमकाती हैं। दिन चढ़ने पे ग़ायब हो जाती हैं। जन्म तो ओस, विलीन हुईं, तो भी ओस ! बीच में उनका अस्तित्त्व न बदला, न खोया। दूसरी ओर दरिया, जो सागर से मिलने जाता है और अपना अस्तित्त्व खो देता है। इस अनमोल बात को सुबह याद दिलाने के लिए का ओस का आभार। बशीर साहब का इस ज़हीन तौफ़े के लिए शुक्रिया।
-काशी की क़लम
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