नई भाषा सीखते समय व्यावहारिकता के आधार पर भाषा के पाँच चरण।
सादर प्रणाम,
नई भाषा सीखने के कई स्तर होते हैं। भाषा के इन स्तरों (Level) में बहुचर्चित है-ऑफिशिअल वाला। जैसे अंग्रेज़ी का TOEFL, कोरियन का TOPIK इत्यादि। भाषा के इन ऑफिशिअल स्तरों से इतर, व्यावहारिकता में ये निम्न स्तर मैंने पाया (अनुभव बोल रहा है):
पहला चरण- भावी जिज्ञासु:
यह प्रथम सोपान है- नई भाषा के नौनिहाल का। भाषा सीखने वाले में नई भाषा के प्रति एक सतही अभिरुचि होती है। यह रुचि महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि कोई भी नई चीज़ सीखने के लिए खुले विचारों का होना आवश्यक है। फिर भाषा तो एक नई संस्कृति के अंग-वस्त्र को अंगीकार करने के जैसा है।
इस स्तर पे भाषा के कुछ अक्षरों को जानते हैं। सुने-सुनाए कुछ शब्द उनको पता होते हैं। अक्षरों की मिलावट करके रेंगते हुए कुछ शब्द-वाक्य पढ़ जाते हैं। और बोलना, लकड़ाती हुई ज़बान से हो पाता है। उस भाषा के कुछ वाक्यों को कह पाना, जैसे- नमस्ते, धन्यवाद, शुभ प्रभात..आदि को बड़ी ही शिद्दत के साथ बोल ले जाते हैं। इस स्तर में आने के बाद सीखने वाले को वहम रहता है कि वो काफ़ी कुछ जान गया है। लेकिन उसकी वास्तविक हालत समन्दर के किनारे दूर रेत पे बैठे सैलानी के जैसे होती है। भाषा का सैलानी। उसे भाषा के समन्दर के ज्वार भाटा रह-रहकर भिंगा जाते हैं।
दूसरा चरण-भिड़ें कि भागें?:
सीखते हुए भाषा में रुचि गहरी होने पे अगला स्तर आता है। इस पड़ाव तक आने के लिए प्रयास भी अगले स्तर का होना चाहिए।गुरु के बिना ज्ञान कहाँ ! क़िताब, गुरु, गूगल इत्यादि के सानिध्य में ज्ञानार्जन ज़रूरी है।
इस स्तर पे नई भाषा अपने घूँघट आहिस्ते-आहिस्ते उठाती है। वो वक्रयुक्त (टेढ़े-मेढ़े) व्याकरणों को दिखाकर अपनी जटिलता से रुबरु करवाती है। कुछ जटिल शब्दों में उलझाती है। उच्चारण के नखरे दिखाती है। इस ट्रेलर को देखकर जिज्ञासु में अंतर्द्वंद्व छिड़ जाता है। ‘पहले ख़ूबसूरत लगने वाली भाषा ये कैसे रंग दिखा रही है।’ ‘ये तो बड़ी जटिल दिख रही है।’ सीखने वाले का आत्म-मन्थन अगले दार्शनिक स्तर पे जाता है। ‘आख़िर मैं ये क्यों सीख रहा हूँ?’, ‘मुझे क्या ज़रूरत है इसे सीखने की?’, ‘सीखने में फ़ायदा क्या है?’ अगर इन सवालों के ज़वाब में कुछ ठोस न हो, तो भाषा सीखने की सॉलिड (ठोस) जिज्ञासा का रूप लिक्विड (तरल) में न बदलकर, कपूर के जैसा सीधे... धुँआ-धुआँ हो जाता है। धुआँ इतना दम घोंटने वाला होता है कि उसके बाद वो उस भाषा के पल्लू की छाँव से भी घबराता है। हाँ, अगर सीखने का मक़सद पुख़्ता है, तो भाषा का सैलानी रेत की शरण छोड़कर, सागर के पास पहुँचता है। भाषा का सागर सैलानी के स्वागत में उसके उसके पाँव पखारता है। सैलानी को आगामी चुनौतियों का पूर्वानुमान होता है। वह दृढ़ संकल्प के साथ समन्दर की बाँह पकड़े गहराई में उतरता जाता है।
तीसरा चरण-भाषा में आत्मविश्वास:
सिर ओखली में डाल लेने पे मूसर से क्या घबराना! भाषा को सीखने वाला अपने प्रयासों से व्याकरण-उच्चारण-शब्दावली पे अपनी पकड़ मज़बूत करता है। भाषा भी उसका साथ देती है और अपनी सारी परतें तह-तह खोलकर उसके सामने रख देती है। यह भाषा का सीखने वाले के संग मिलन जैसा होता है। इस मिलन से विश्वास जन्मता है। अब वो भाषा का इस्तेमाल एक नौसिखिये के जैसा नहीं, बल्कि एक मँझे हुए भाषाविद् की भाँति करता है। इस समय जब वो अपने पहले चरण की स्थिति का पुनरावलोकन करता है, तब अपने आपको हँसने से रोक नहीं पाता। कुछ सीखने के लिए अपने आप पे हँसना आना ज़रूरी है। कारण: सीखने के लिए ग़लतियों की गुंजाइश ज़रूरी है। इन ग़लतियों को हँसकर स्वीकार करना होता है। भाषा के इस स्तर पे हर काम मुस्कुराकर ही निकलता है, क्योंकि डण्डे से काम लेने वाली शब्दावली और व्याकरण अभी हाथ नहीं लगे होते हैं। भाषा के समन्दर में सीखने वाले की नाव स्थिर चलती है। परन्तु तूफ़ान को झेलने के लिए नाव अभी तैयार नहीं होती।
चौथा चरण-गप-शप:
युवल नोवा हरारी ने सेपीयन्स पुस्तक में गप-शप के प्रभाव को बताया है। पुस्तक में गप-शप को मानव जाति की दूसरी स्पीशीज़ की तुलना में तीव्र उन्नति का प्रमुख कारक बताया है। गप-शप से आदमी समझदार होता है। बहुत सारे निर्णय अनौपचारिक बैठकों में ही होते है। इस तथ्य को दर्शाते कुछ वाक्य- secrets spills over cigarettes, सिगरेट के धुओं में बहुत सारे राज़ साफ़ होते हैं। भाषा संस्कृति की एक घटक है, इसलिए भाषा के इस स्तर पे सहज होने के लिए नवाचार(protocols), मुहावरे, लोकोक्तियों इत्यादि संस्कृति के समन्दर की भीतरी सतहों पे ताल बैठनी चाहिए। ये भीतरी सतहें ही हैं, जहाँ भाषा अपने आपको संस्कृति में बदल लेती है।
पाँचवा चरण-झण्डे का डण्डा :
मेरे हिसाब से भाषा का यह सबसे ऊँचा स्तर है। इस नई भाषा में अपनी नाराज़गी दर्ज़ करा पाने में पारंगत होना भी ज़रूरी हो जाता है। जब घी सीधी उँगली से न निकले, तो टेड़ी भाषा का आना। यह मातृभाषी (नेटिव) स्तर की दक्षता है। उम्मीद करता हूँ कि किसी को ज़रूरत न पड़े, लेकिन इस स्तर की भाषाई दक्षता की आवश्यकता उस संस्कृति पे निर्भर करता है। कहीं पे मीठा खाकर काम चलता है कहीं मुँह की खिलाकर ! दुर्भाग्यवश इस स्तर के लिए कहीं भी पढ़ाई नहीं होती। यह अनुभव से सीखा जाता है और उस अनुभव के लिए समय लगता है। सीखने वाला इस स्तर पे आकर भाषा के समन्दर की हर लहर को दक्षता के साथ क़ाबू कर लेता है।
ये तो रहे भाषा के कुछ व्यावहारिक स्तर। इन छोटी-छोटी बातों का मैंने कोरियन सीखते समय अवलोकन किया था। यहाँ उनको इतना लम्बा खींचकर लिख दिया। इनको लिखने का ख़ास मक़सद था। कोरियन गीतों के बोल में जो रस है, उसका आनन्द लेने का सौभाग्य मिला। कुछ को गाने के मौक़े भी मैं तलाशता रहा।
ऐसे ही एक गीत को मेरी बड़ी बेटी ने अपने स्वरों में गाया है, जिसके बोल कुछ इस तरह हैं:
मैं जब कभी उदास होता हूँ, ये गीत मुझे ढूढ़ता आता है।
जैसे ये दुनिया गोल है, वैसे ही हम गोल-गोल घूमते जा रहे हैं,
ज़िन्दगी एक merry-go-round की तरह है, जिसपे हम रोज़ दौड़ते जाते हैं।
ये (दौड़) कब ख़त्म होगी, मालूम नहीं...
इस गाने का आनन्द उठाएँ। पढ़ने और सुनने के लिए आपका ढेरों आभार।
सादर
काशी की क़लम
Very nice Naveen!
जवाब देंहटाएंThanks a lot 🙏
हटाएंप्रिय नवीन
जवाब देंहटाएंजैसे जैसे आपकी लेखनी आगे की ओर बढ़ रही है आपकी भाषा और व्याकरण पर पकड़ मजबूत होती जा रही है। आप ऐसे ही ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक लेख लिखते रहें एवं आगे बढ़ते रहें। आप दुनिया के किसी भी देश में क्यों ना रहें आपकी काशी कलम कभी रुकनी नहीं चाहिए। धन्यवाद
भैया सादर प्रणाम,
हटाएंव्याकरण के पीछे की प्रेरणा आप ही हैं।