Hi Tech दक्षिण कोरिया में पुस्तकें और पुस्तकालय। गूँज ने पाया एक नया आशियाना।

सादर प्रणाम,

नवाचार (इन्नोवेशन) की दुनिया का शिखर दक्षिण कोरिया। क्या लगता है, कोरिया एड़ी से चोटी तक डिजिटल यंत्रों में डूबा होगा? होटल में खाना रोबॉट बना रहे होंगे? साफ़-सफ़ाई के लिए रोबोट होंगे? गाड़ियों अपने आप चल रही होगी? विद्यालय में बुक्स (पुस्तकों) की जगह ई-बुक्स होंगी ? ऐसे आकलन सैमसंग(Samsung), एल॰जी॰(LG) जैसी कम्पनियों के देशवसियों के बारे में लाज़मी हैं। ये आकलन बहुत हद तक सही भी हैं। यह देश डिजिटल का ही है। विज्ञान और तकनीक की रोटी खाने वाला देश। तकनीक का आत्मसात् इतना कि अब काल्पनिक अवतारों का भी सत्कार होने लगा है। कभी न पैदा होने वाले ये डिजिटल अवतार यहाँ के अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण बन गए हैं। इन शख़्सियतों में आस्था इतनी कि ये कई व्यवसायों के ब्राण्ड ऐम्बैसडर तक बन चुके हैं। ये चेहरे किसी माँ के गर्भ नहीं बने। इनका चेहरा कई वास्तविक चेहरों से नक़ल करके बनाया गया है। माथा किसी का, कान, नाक, आँख किसी और के! चेहरा मतलब कॉकटेल। इनके जनक-कम्प्यूटर डिज़ाइनर-अपने मनपसन्द विर्चुअल आदमी-औरत गढ़ सकते हैं। मतलब आदमी भगवान बनने के क़रीब पहुँच गया है ! इसका अगला क़दम कहीं आदमी की कल्पना भगवान को न गढ़ने  लगे !! आख़िरकार सब विषय आस्था का ही तो है। आदमी ने परमाणु बम बनाके भगवान के सृष्टि संहारक वाले ओहदे को पहले से पा लिया है। जब तक तकनीक एक सहूलियत का साधन है, कोरिया को इनके इस्तेमाल से कोई परहेज़ नहीं। लेकिन जब बात प्रभावी और सुरक्षित साधनों की आती है, तो विश्व में नवाचार ( इन्नोवेशन) की शिखर का यह देश पुराने माध्यमों का इस्तेमाल करने में भी अग्रणी रहता है। उदाहरण, यहाँ वोटिंग मशीनों (EVM) से नहीं बैलेट पेपर पे ठप्पा लगाके होती है! बैंक में आपको एक टैब्लेट पे हस्ताक्षर कराया जाएगा, लेकिन उससे पहले काग़ज़ों पे दस्तख़त कर करके आपके हाथ कराहने लगेंगे।

बच्चों की दुनिया कितनी डिजिटल ?

कोरिया में अमूमन १० साल की उम्र के अधिकतर बच्चों के पास स्मार्टफ़ोन होता है। इतनी कम उम्र में स्मार्टफ़ोन ! बच्चों को मनोहर लगने वाले फ़ोन को बच्चों को देना दरअसल माता-पिता की मज़बूरी है ! इस मज़बूरी का ज़रा-सा ज़िक्र करके आगे बढ़न उचित रहेगा। बच्चों के सुनहरे भविष्य और गुणवत्ता भरे जीवन की आस में लोग राजधानी और निकट के शहरों (एन॰सी॰आर॰) में ही रहना पसन्द करते हैं। भीड़ अधिक, संसाधन कम। माँग-आपूर्ति की बढ़ती खाई। इन जगहों पे महँगाई इतनी कि माता-पिता दोनों का काम करना आम  है। माताओं के काम पे जाने का बड़ा कारण एक और भी है: महिला सशक्तिकरण। कोरिया जैसे पुरुष प्रधान देश में पुराने समय में जितना महिलाओं का हक़ मारा गया है, आजकल महिलायें उतनी ही अधिक खुल के अपने हक़ों को छीन रही हैं। दमन का दामन पकड़े समाज का कुल मिलाके पतन ही होता है। यह पतन हमेशा दोनों पक्षों का होता है: एक का पतन भौतिक होता है, जो आसानी से दिख जाता है, दूसरे का अदृश्य होता है। इसे देखने के लिए आत्म-मंथन की दिव्य दृष्टि चाहिए। इसे नैतिक पतन कहते हैं। भूत की भरपाई का मंज़र ऐसा, कि यहाँ पे पुरुष सशक्तिकरण के दौर का आग़ाज़ भी हो चला है। 

ख़ैर, फ़ोन और बच्चों की डिजिटल दुनिया से थोड़ा भटकाव हो गया। डिजिटल दुनिया की तासीर ही कुछ ऐसी है कि ट्रैक पर रहना मुश्क़िल होता है। इन फ़ोनों के माध्यम से माता-पिता अपने बच्चों से सम्पर्क में रहना चाहते हैं। कब स्कूल गए, कब घर आये, कब खाना खाये, कब कोचिंग गए, इत्यादि। हर कारख़ाने में केवल प्रोडक्ट नहीं, अनचाहे बाईप्रोडक्ट भी निकलते हैं। अब बच्चे तो पंछी हैं, वे माता-पिता के 'सम्पर्क' वाले उद्देश्य से कई पंख ऊपर उड़कर फ़ोन का उपयोग गेम, सोशल मीडिया इत्यादि के लिए करते हैं। इस बाईप्रोडक्ट का भार सीधे आँख के हस्पतालों और माता- पिता के सिर पे पड़ता है। इस सिरदर्द से बचने के लिए स्क्रीन टाइम को कई माध्यमों से नियंत्रित किया जाता है। कुल मिलाकर माता-पिता, स्कूल बच्चों को एक संतुलित और स्वस्थ्य स्क्रीन टाइम देने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं।

अब रूख़ करते हैं स्कूल की तरफ़। एक आम स्कूल की कक्षा में एक बड़ा एल॰ई॰डी॰ टी॰वी॰, क्लास में ज़रूरत के हिसाब से रिकॉर्डिंग करने के लिए कैमरा आम है। सारे क्लासरूम वातानुकूलित होते हैं। मुख्य प्रशासनिक कार्यालय से सूचना का सीधा प्रसारण करने के लिए प्रसारण यन्त्र लगे होते हैं। लिस्ट बहुत बड़ी है। बड़ी बात यह है कि ज़रूरत के हिसाब से ये लिस्ट मौसम के बदलने जैसे बदल जाती है।  ये बदलाव evolutionary होता है। ज़रूरत के हिसाब से नई-नई तकनीकों का इस्तेमाल करने में चटकवाही होती है। इसका उदाहरण कोरोना काल में मिला। जहाँ कई देशों में एक-दो साल विद्यालय बच्चों को देखने को तरस गए, वही कोरिया ने दो महीनों के भीतर आने वाले भविष्य को भाँप लिया। वो कहते हैं न कि आज के हिसाब जियो, कल किसने देखा है ? स्कूलों ने तकनीकी साधनों का उपयोग कर पहले ऑनलाइन पढ़ाई शुरू कर दी। फिर कुछ ही महीनों में BLENDED LEARNING यानि कि माहौल के हिसाब से ऑफलाइन-ऑनलाइन कक्षाओं का मिश्रण चलने लगा। 

पुस्तकें ज्ञानार्जन की धुरी:

आप आकलन लगाएँ कि ऐसी कक्षाओं में किताबें कैसी होंगी-digital ebook या काग़ज़ की क़िताब ? ऐसे माहौल से मेल खाते TABLET, iPAD जैसे गैजेट्स का होना तो बनता ही है। जी नहीं ! बच्चों की पीठ पे बस्ते के भार में कोई रियायत नहीं। जो भी तकनीकी यन्त्र हैं, वो अध्यापक पढ़ाने में सहूलियत के लिए इस्तेमाल करते हैं। उसके आलावा बच्चों की बेंच एकदम पुराने माहौल में सजती है। किताबें..., किताबें..., सिर्फ़ किताबें। क़लम, मिटौना (Erasor), कटर (sharpener) आपने आप मान लीजिये। हर दर्जे की अपनी किताबें होती हैं, जिनको स्कूल प्रशासन देता है। मुफ़्त ! इनके आलावा हर सेमेस्टर में एक क़िताब बाल साहित्य की होती है। यही इक़लौती क़िताब ख़रीदनी पड़ती है। हर कक्षा की क़िताब उसके स्तर के हिसाब से होती है। इस साहित्य को विद्यालय प्रशासन निर्धारित करता है। प्रतिदिन इस पुस्तक का पठन होता है। नाना विधान से उसपे चर्चा होती रहती है। सेमेस्टर के अंत में एकाध महीने की छुट्टियाँ रहती हैं। उनमें पढ़ने के लिए २०-३० चुनिन्दा पुस्तकों की लिस्ट अध्यापक द्वारा बच्चों को सुझाई जाती है। इतनी क़िताबें ख़रीदना अभिभावक के लिए मुनासिब कहाँ होगा ! इसके लिए यहाँ पे जगह-जगह सार्वजनिक पुस्तकालय हैं। पुस्तकालयों में किसी भी क़िताब की दो-तीन प्रतियाँ ही हो सकती हैं। लाइब्रेरी से क़िताबों को पाने का सुरूर इतना कि आज अध्यापक से लिस्ट मिली नहीं कि ये किताबें लाइब्रेरी से नदारद ! शक़ भी होता है कि कहीं लिस्ट लीक (leak) न हो गई हो ! बहरहाल, पाठ्यक्रम से इतर एक बाल साहित्य हर सेमेस्टर पाठ्यक्रम में होता है। अध्यापक ऐसी क़िताबों को पढ़ाने पर बहुत बल देते हैं। 

अभिभावक भी बच्चों की इन पुस्तकों को ख़रीदने में पीछे नहीं रहते। बच्चे घर से बहुत सारे व्यवहार अप्रत्यक्ष रूप से सीखते रहते हैं। क़िताबों का पढ़ना भी ऐसा ही है। माता-पिता भी पढ़ने में ख़ूब रुचि रखते हैं। मेरे खेती वाले मित्र की धर्मपत्नी जी के घर में बड़ी-सी लाइब्रेरी है। दूसरे क़रीबी कोरियन दोस्त। एक हफ़्ते की छुट्टी, मतलब  दो-तीन किताबें निपट गईं । इनकी कार की डिग्गी में क़िताब पिकनिक की चीज़ों में एक है। बुकस्टोर में किताबों का भरा होना आम है, लेकिन आवाम का उनको ख़रीदना ख़ास है। बुकस्टोर में लोगों की भीड़-बच्चे, वयस्क, बुज़ुर्ग, माताएँ...समाज के सभी वर्ग के लोग-किताबें खोजते-ख़रीदतेरहते हैं। हाल ही में जब कोरोना की धूप तेज़ हुई, लोगों ने क़िताबों की छतरी तान ली थी।   

जीवनशैली के केंद्र में पुस्तकालय :

पुस्तकालय यहाँ की जीवनशैली के अंग हैं। जैसे शारीरिक कसरत के मैदान हर जगह मौजूद रहते  हैं, वैसे ही मानसिक कसरत की ये व्यायामशालाएँ जगह-जगह मौजूद रहती हैं। चिंतन के खुराकों की ये फार्मेसियाँ सरकारी होती हैं। ये नगर महापालिका द्वारा संचालित होती हैं। आप गर्दन किसी दिशा में घुमाएँ, अधिकतम एक किलोमीटर की परिधि में ये पुस्तकालय किसी-न-किसी रूप में अवश्य मिलेंगे।  रेलवे स्टेशन, पार्क...। विद्यालयों में तो पूछिए ही नहीं। बड़े पुस्तकालयों में नौनिहालों, किशोरों, वयस्कों, सभी के लिए अलग वर्ग बनाकर उनसे सम्बन्धित पुस्तकों को रखा जाता है। एक बार में पाँच पुस्तकें दो हफ़्तों के लिए मिलती हैं जिनको एक हफ़्ते तक और बढ़वाया जा सकता है। देरी से पुस्तक वापस करने के लिए कोई मूल्य नहीं है। वापसी में जितने दिन की देरी, उतने दिनों तक पुस्तकें नहीं प्राप्त होंगी।  शुल्क बड़ा अनूठा है और यह पुस्तक से प्रेम को दर्शाता है। स्कूल की लम्बी छुट्टियों के दौरान मिलने वाली अधिकतम किताबों की संख्या दुगुनी यानि दस हो जाती है। मनचाही पुस्तक यदि पुस्तकालय में न हो तो,  उसे बाहर से ख़रीदकर पुस्तकालय को दिया जा सकता है। फिर उसे फिर पढ़ने ले जाया जा सकता है।  पुस्तकालय उसका मूल्य वापस कर देते हैं। पढ़ने में कोई अवरोध नहीं होना चाहिए। यूँ कहें कि देश नहीं चाहता है कि ज्ञानापूर्ति में पुस्तकालय की ओर से कोई कमी रहे। बच्चा पैदा होने पे पुस्तकालय की तरफ़ से कुछ क़िताबें भेंट मिलती हैं। ऐसा नहीं है कि बच्चे अपने आप पढ़ने लगते हैं। छोटी उम्र में माता-पिता बच्चों को ढेर सारी चित्र वाली क़िताबें पढ़कर सुनाते  हैं। लोगों के घर में पिक्चर बुक्स का भण्डार मिलता है। बच्चे के बड़े होने पे पेटी-की-पेटी पुस्तकें पड़ोसी या मित्रों को पहुँचती हैं। यहाँ पे एक कहावत है। 세 살 버릇 여든까지 간다. गोद की आदतें चिता तक जाती हैं। इसीलिए पालने से ही कहानी सुनाने पे बहुत ज़ोर दिया जाता है। बच्चों में भाषा और भाव को विकसित करने का यह अनोखा तरीक़ा होता है, जिसे 또박또박 읽어주기, यानि शब्दों में भाव की स्पष्टता को समाहित करते हुए पढ़ना। पुस्तकालयों में छोटे बच्चों को सुलाने की भी व्यवस्था होती है। लाइब्रेरी का शान्त माहौल बरक़रार रहे, इसलिए नौनिहालों के क़िताबों का मस्त-मौलाना अड्डा मुख्य पुस्तकालय में ही अलग खण्ड में रहता है।  

इन पुस्तकालयों में तरह-तरह के कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। मूवी थिएटर होते हैं, जहाँ बच्चों की फिल्में साप्ताहिक लगती हैं। लेखकों की कार्यशालाएँ भी समय-समय पे होती हैं, जिनमें लेखन से जुड़े लोग बारीकियाँ सीखते-सिखाते हैं। पुस्तकालय अनेक माध्यमों से आस-पास के लोगों को चिंतन करवाने और नए-नए नज़रिये को विकसित करने का ज़रिया बनता है। किताबें कोरियन भाषा में होती हैं। साथ ही कुछ अंग्रेज़ी साहित्य की भी पुस्तकें रहती हैं। बाक़ी चीनी, जापानी, हिन्दी इत्यादि भाषा सीखने से सम्बंधित किताबें भी रहती हैं। वैसे गांधी जी के बारे में ढेर सारी कोरियन क़िताबें तो रहती हैं, पर भारत का हिन्दी या अन्य भाषाओं का साहित्य नहीं दीखता है। एक बार हिन्दी का बाल साहित्य मिला। कोरियाई पुस्तकालय में हिन्दी का साहित्य मिलना कोरिया में राह चलते हिन्दुस्तानी के मिलने जैसा है; रेगिस्तान में ठूठे पेड़ की छाव का मिल जाने वाली बात;  दूसरे ग्रह पे पृथ्वी वाले से मिल जाने जैसा। यह कोरियन लेखक द्वारा लिखी गई थी। वो भारत गए थे। भारत में ली गई तस्वीरों के साथ उन्होंने भारत के बारे में हिन्दी में बताने का भरसक प्रयास किया था। 



बढ़ना है, तो पढ़ना है :

अब YOUTUBE, FACEBOOK पे घण्टों समय बिताके कोई देश विश्वगुरु तो बनने से रहा। पता चला कि हम ये सब देखते रहे और ज़माना खिसक के कोसों दूर खड़ा हमपे हँस रहा है ! बहुत सारे देशों की रोज़ी-रोटी ज्ञान से ही चलती है। इस ज्ञान की विशेषता है कि यह अपने आप में पूर्ण नहीं होता है। अनुसन्धान दिन-प्रतिदिन अपने आपको चुनौती दे रहा है। जब  विज्ञान अपने आपको परिष्कृत किये जा रहा है, तो आदमी का ज्ञान क्यों ढलकर पेंशन जोह रहा है ? पढ़ने के फ़ायदे आप जानते ही होंगे, फिर भी कुछ :

  • पुस्तकें पढ़ने वाला आदमी इस वहम से बचा रहता है कि वो सर्वज्ञानी है। वहम ही अहम् का जनक है। पढ़ने से वो आजकल प्रचलित विचार-संकीर्णता की महामारी से बचता है। वो शब्दों से संसार रचता है। सवाल करता है और फिर उनके ज़वाब ढूंढ़ता है। इन सवाल-ज़वाबों से समाज निखरता है। 
  • पढ़ते समय दिमाग़ पन्नों की क्यारियों में दौड़ते हुए  कसरत करता है। उम्र के साथ दिमाग़ धीमा हो जाता है। यह लगभग सर्वमान्य मिथक है। तथ्यतः ग़लत है। हाँ, दिमाग़ ढीला छोड़ने पे जंग ज़रूर लग जाती है। जंग को हटाने के लिए किताबों की रगड़ लाभदायी होती है। पॉपुलर साइंस पत्रिका के अनुसार दिमाग़ की सीखने की क्षमता बढ़ती उम्र के साथ धीमी नहीं पड़ती। दिमाग़ का आकार ज़रूर घटता है, लेकिन दिमाग़ अपनी दक्षता को बनाये रखने के लिए अपने पुर्ज़ों के बीच नए-नए जाल बुनता रहता है। 
  • पढ़ना एक प्रकार का योग है। यह स्वयं से जोड़ता है। दिमाग़ को स्थिरता प्रदान करता है
 क़िताबें दाल-भात हैं और इंटरनेट उसमें का घी। केवल घी पीने से अनपच होना तय है।उम्मीद है कि सभी अपने इर्द-गिर्द क़िताबों से घिरे होंगे और अपने आपको, अपने आस-पास को निखारते रहेंगे।

ऐसे ही एक सार्वजनिक पुस्तकालय में 'गूँज दबते स्वरों की' भारतीय समाज की अजर हस्ताक्षर के रूप में विद्यमान रहेगी। आगामी समय में दक्षिण कोरिया में हिन्दी और भारत पे काफ़ी बल रहेगा। आशा है कि दूर किसी समय में यहाँ के लोग 'गूँज' को चाव से पढ़ेंगे। पुस्तक के लिए मील का यह पत्त्थर  आपके आशीर्वाद और शुभकामनाओं के फल के सिवाय और कुछ भी नहीं। 



इस लेख को पढ़ने के लिए आपका आभार।

पढ़ते रहें, बढ़ते रहें।

सादर प्रणाम 

-काशी की क़लम





टिप्पणियाँ

  1. सत्य एवम अनुकरणीय. वैज्ञानिक (Scientific) और तकनीकी (technological) उपलब्धियां बिना ज्ञान कहाँ सम्भव. बिना पुस्तक ज्ञान कहाँ सम्भव. इसलिए सत्य ही कहा गया है कि,
    सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम्। सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम्॥

    अर्थात्‌, सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख त्याग देना चाहिए। सुख चाहने वाले के लिए विद्या कहाँ और विद्यार्थी के लिए सुख कहाँ॥

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  2. इस लेख के माध्यम से आप ने दक्षिण कोरिया की जो खूबसूरती बयां की है उसकी वजह से अब मन में ऐसा विचार आता है कि काश हम भी कोरिया में पले बढ़े होते । दक्षिण कोरिया अपनी तकनीक के लिए ही प्रसिद्ध है जिसकी वजह से ही वह अपने आप में आत्मनिर्भर देश है। इस लेख को आपने बहुत ही साहित्यिक ढंग से प्रस्तुत किया है। उम्मीद करता हूं आप अपने लेखन के माध्यम से आने वाले भविष्य में इसी तरह की ज्ञानवर्धक सूचनाएं हम लोगों के लिए उपलब्ध कराते रहेंगे। धन्यवाद

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  3. नवीन, आप ने डिजिटल लाइफ से शूरु करके के पुस्‍तकालय पे अंत किया है लेख को। सब बातो से सहमत होके उम्मिद रखते हैं कभी भारत में भी पुस्तकालयों का दौर ऐसा ही जाए और छुटी का मतलब पुस्तक पढ़ना हो जाए तब भारत भी अन्या विकसित देश की ताराही mein समझ के साथ आगे बढ़े। कुछ पंक्तिया बहुत अच्छी तरह जैसे एक अंत भौतिक होता है जो आसन से दिख जाता है और दुसरे को देखने के लिए आत्म मंथन की दिव्य दृष्टि होनी चाहिए। Shubhkamnaye

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