सुनो ! मैं भीम बोल रहा हूँ। कविता
सुनो! मैं भीम बोल रहा हूँ।
जब ‘सोने की चिड़िया’ का दिल पत्त्थर हो जाता है,
उस पत्त्थर-दिल पे ऊँच-नीच का सत्तर हो जाता है।
जब मनु का मानुष हो उथला जाता है
मानवता को पैरों तले कुचला जाता है।
जन्मजात माथे पे कलंक मढ़ा जाता है,
नसीब की हथेली पे रंक गढ़ा जाता है।
यदा-यदा अनाचार असीम हो जाते हैं,
भीषण भंजन करने को भीम हो जाते हैं।
जिन राम ने शबरी के जूठे बेरों को खाया है,
कैसे पावन आँगन में मनहूस बना वो साया है?
जिनके लिए कुओं के पानी जर जाते हैं,
लाचारी के आँखों के भी पानी मर जाते हैं।
स्कूलों में कुण्ठित कुण्डियाँ लग जाती हैं,
निरंकुश दमन की पगडण्डियाँ बन जाती हैं।
जब ग़ुलामी में भी अपनों की ग़ुलामी बस्ती है,
मनमानी का राज और अधम जवानी सस्ती है ।
जब धर्म ही मानव धर्म से बेडगर हो जाते हैं,
तब नई डगर बनाने को आंबेडकर हो जाते हैं।
वीर मराठा माटी में अंबावाड़ेकर आ जाते हैं,
गुणों से पारस होने पे गुरु का नाम पा जाते हैं ।
माँ शारदे के मंत्र सुनते, उनकी धवल गोद में वास है,
अविरल उत्कंठा का जाप और शोध की अभिलाष है।
बेबसी-लाचारी से खौलता रग में सैनिक का ख़ून है,
ऊबड़-खाबड़ धरती को समतल करने का जुनून है।
प्रखर मेधा के दम रजवाड़ों में मणि-से चमके हैं,
भेदभाव की होलिका दहाने को मशाल-से दमके हैं।
पश्चिम की भ्रामक क़लमों को तीखे तर्कों से काटे हैं,
नस्लभेद की अफ़वाहों के गालों पे मारे देशी चाटे हैं।
नासूर बन चुके घावों की जड़ थहाने जाते हैं,
एक-दूसरे को छोटा दिखलाते घराने पाते हैं।
अपने घरवाले ही आँगन में जब नागफनी बो जाते हैं,
शूल चुभाने को बाहर वालों के हज़ारों हाथ हो जाते हैं।
गांधी जी के विचारों से सम्मान सहित टकराते हैं,
सत्याग्रह-अहिंसा के बज्रों को अपनाते नहीं कतराते हैं।
सत्याग्रह मंदिर का फूँककर सोयों को धधकाते हैं,
‘शिक्षा-एका-संगठन’ के मंत्र से महायज्ञ ठनवाते हैं।
धारदार क़लम से जन चेतना की अलख जगाते हैं।
ओजपूर्ण कण्ठों के भाषण पत्थर तक पिघलाते हैं।
सत्ता की सहभागिता के रास्ते समता सम्भव करवाते हैं,
भावी जागरूक मतदाता के सपने आँखों में बो जाते हैं।
‘राष्ट्र, राष्ट्र-अखण्डता सर्वोपरि’ का नया वर्ण बनाते हैं,
निज हितों को आहुतकर महा-भारत का कर्ण बनाते हैं।
लोगों से रत्ती भर भी बैर नहीं, लोग तो सारे अपने हैं,
शोषण के रावण को भस्मकर, रामराज्य के सपने हैं।
बेलग़ाम पूँजीवाद भी, मनमोहक शोषण वाला बहेलिया है,
मुक्त कामगार हाथों को रखने, जाल क़ानून का सिल दिया है।
क़ानून के आप पुजारी, अन्याय किसी से सह नहीं पाए हैं,
रक्षा करने अंतिम की भी, कवच संविधान का दे आए हैं।
कालजयी राष्ट्र-ग्रंथ, समता-मानवता की अटल आशा है,
रहे न देश पिछड़ा मिथकों से, आधुनिकता की परिभाषा है।
गिद्ध कुरितियों के पंजों से, माँ-बहनों की रक्षा की आरत है,
याद रखो ऐ रूढ़िवाद! यह ‘यत्र नर्यस्तु पूज्यंते’ का भारत है।
गिरते, धूल झाड़कर उठते और फिर गिरने से नहीं डरते हैं,
धूल चटाने बाधाओं को धुर दिमाग़-छाती फ़ौलादी धरते हैं।
अपनों की तसवीर सजाने को स्वयं की ध्वस्त करवाते हैं,
दमन तले कुचलों की काल के पत्थर पे लकीर बनाते हैं।
अंधकार से अधिकार की यात्रा अंगारों भरी पीर रही है,
रावण के सिर पनप न पाएँ, नाभि में ही सारी तीर रही है।
जब सिंहासन भीड़ के हवाले हो जाते हैं,
तब उस भीड़ के इरादे काले होते जाते हैं।
अंधों के बहुमत को शोषण का रोग धर लेता है,
सत्ता का लोभ अन्याय का भोग कर लेता है।
मुझे गोद लेकर सत्ता की आस लगाना ही मेरी हार है,
मेरे उसूलों को आत्मसात करो, वही मेरा सत्कार है।
जाति के बिच्छू के डंको को मैंने आजीवन हराया है,
पाले जो इसको मेरे पीछे, वह अपना नहीं पराया है।
लड़ाई मैंने भेदभावों से, जाति-नारी समानता की लड़ी है,
प्रतिमा को मैंने कब माना, क्या जताने ये मेरी खड़ी है?
-काशी की क़लम
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