'प्रभात' की ख़ोज: दसवें ग्रह की खोज, मौलिकता के संघर्ष और विजय की कहानी (सम्पूर्ण भाग)

 किसी चीज़ की महत्ता महज परिस्थितयों की दासी होती है। नहीं तो ग़ज़लों में चुभने वाले ग़ुलाब के काँटे, भला रेगिस्तान में नागफ़नी की पत्तियाँ होकर जान कैसे बचाते? सैकड़ों साल पहले एलुमिनियम को पूछ सोने से भी अधिक थी। जो एलुमिनियम के बर्तन राजाओं की शान में इतराते थे, आज सड़कों पर हाथ फैलाते दीख जाते हैं। जिन नज़रों को देखकर कभी नशा चढ़ा करता है , समय बीतने पर उन्हीं को देख नशा उतर भी जाता है। वैसे, इश्क़ के इज़हार में रौशनी की बड़ी भूमिका है। ब्रम्हाण्ड के सबसे बड़े प्रकाश के कारक सूर्य देव जी हैं। पर पता नहीं क्यों इश्क़ कभी सूरज की रौशनी में नहीं पनपता। मानो, जैसे उजाले से छत्तिस का अकड़ा हो। इश्क़ के रिश्ते होते हैं अंधेरे और उजाले के हाशिये पर। चाँदनी रात, कैंडल लाइट आदि के मद्धम उजाले में ही यह महफ़ूज़ रहता है। शायद प्यार का परदे में पनपना प्राकृतिक हो! मगर क्या ये इश्क़ लालटेन में भी हो सकता है? क्यों नहीं? ह पर एक दूसरे क़िस्म का! किसी का उसके सपनों से इश्क़!! ऐसे क़िस्से हर क़िस्म की रौशनी में जन्म लेते हैं।
  लालटेन! आज के इन्वर्टर के दौर में लालटेन की बिसात क्या है? राहुल के पापा को इन्वेर्टर की वफ़ादारी पे कोई शक़ न था। साथ ही उनको बिजली पे ख़ास भरोसा भी नहीं हो सका। लम्बे समय तक बिजली गुल रहने पर कौन-सा इन्वर्टर राहुल की पढ़ाई के काम आ सकता था? अपनी पहुँच से बाहर होते हुए भी उन्होंने इन्वर्टर का इंतज़ाम कर रखा था। साथ ही अपनी इस्तेमाल की हुई लालटेन से राहुल के सपनों का बीमा भी करवाया था। 
  कमरे में लालटेन मद्धम-मद्धम जल रही थी। उसके प्रकाश में राहुल अपने सपने सहेज रहा था। आज तो बहुत ख़ुशी का दिन था। आठवीं कक्षा का परिणाम आया था और पूरे स्कूल में वो अव्वल आया था। हर विषय में पूरे नंबर थे, बस एक अंग्रेज़ी को छोड़कर! ऐसा नहीं था कि अंग्रेज़ी में किसी और के राहुल से अधिक अंक थे। वो सबमें सर्वोत्तम था। बस सब विषयों की दौड़ में अंग्रेज़ी सबसे पीछे रह गई। स्कूल हिंदी मीडीयम का था। सारी पढ़ाई हिंदी में होती थी, और अंग्रेज़ी भी छात्र पूरे जी जान से पढ़ते थे। 'राम गए', 'राम सीता और लक्ष्मण के साथ वन को गए',  'सीता ने खाना पकाया', सीता ने स्वादिष्ट खाना पकाया' इत्यादि के अंग्रेज़ी अनुवाद तो सरपट हो जाते थे। पर इसके आगे सब कुछ बाधा दौड़ होती थी। अंग्रेज़ी में निबंध, अनुवाद की एक अनूठी एक कला होती थी। हिंदी के विचारों को व्याकरण और शब्दावली के सहारे फोर लेन (Four Line)  में चुनकर उतार देना आख़िर किस कला से कम है! अंग्रेज़ी का निबंध लेखन किसी हल्की-फुल्की आँधी के आ जाने से कम नहीं होता था।आंधियों से बच-बचाकर निपटा जा सकता था। बिजली तो तब कड़क उठती थी, जब बारी अंग्रेज़ी में बातचीत की आती थी। हालत ऐसी, मानो जीभ ऐंठ गई हो! दिमाग़ हिंदी में विचारकरके उसको सामानांतर अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की पूरी कसरत करता था। पर इतने में रिदम (rhythm) दम तोड़ देता। भाव तो बवण्डर में उड़-सा जाता था! अन्य विषयों में डिक्टेंशन  पाने वाले भी बोलने में कभी थर्ड डिवीज़न जितना  नहीं पा पाते थे।  इन सब बाधाओं के बीच भी राहुल को उस दिन परिवार के साथ ख़ुशियाँ मना लेने में कोई नुक़सान न था। कुछ दिन विद्या माता को आराम दे देता, तो माता जी सो नहीं जातीं। जिन लोगों की मंज़िल बड़ी होती है, वे पड़ाव की तालियों पे नहीं ठहरते।तालियों को सिर आँखों पे रखते ज़रूर हैं, पर उनसे जल्दी ही दूर हो जाते हैं। मंजिल के कान के परदों पर बुरा असर जो पड़ता है। 
   दूसरे कमरे में राहुल की मम्मी, राहुल के पापा से,  "सुनिए जी,  उसका मन उस स्कूल में लगा हुआ है... क्यों न वो आगे भी उसी में पढ़े?" राहुल के पापा भोजन खाते समय कम ही बोलते थे। खाते वक़्त बोलने से पाचन अच्छा नहीं होता। वो शांत रहकर खाने पर ध्यान लगाए रहे। 
"बस एक ही विषय में तो कम नंबर पाया है…बेचारा!… बाक़ी में तो अच्छा ले आया है।"
ज़वाब में राहुल के पापा की चुप्पी थी। पर इस विषय की गंभीरता को देखते हुए वे अपने भोजन करने की चाल को बढ़ा दिए। उनको यह भी पता था कि खाने को अच्छे से चबाकर खाना चाहिए। पर वे क्या करते इस गंभीर विषय पे एक दिन का अनपच दांव पे लगाया जा सकता था।आख़िर सबके भविष्य का जो सवाल था। इतने में मम्मी अपने बेटे को दूसरे स्कूल न भेजने के लिए अपनी दलीलें देती रहीं, 
"क्यों जी, वो क्या कहते हैं.... जो मास्टर साहब लोग अलग से पढ़ाते हैं,... उसको लगवा देते हैं। एक अंग्रेज़ी के लिए क्यों बच्चे को परेशान करना?"
पिता ने अपना हाथ धोते हुए, "अंग्रेज़ी में उसको ट्यूशन कहते हैं। हिंदी में किसी ने मुझे बताया नहीं।"
व्यंग की आहट से मम्मी आहत हो गईं। उनको पता था कि चुप्पी साधने की बारी अब उनकी थी।  
राहुल के पापा, "अंग्रेज़ी में आगे पढ़ेगा, तो अच्छी नौक़री-चाकरी कर लेगा। नहीं तो अपने बाप के जैसा तेल-साबुन बेचेगा।नमक़-रोटी जुटाने में ही तंग रहेगा।" लगातार बोलते रहना अधिक समझदारी का परिचय नहीं होता। सुनने वाला ही यह तय करता है कि बोलने वाला कितना समझदार है। बातें उसको बाँध के रख पाती हैं क्या। करती हैं क्या, बीच-बीच में एक 
 मैं दुकान पे अपने आँख-कान मूँद के नहीं रहता..., वो शर्मा जी का बेटा अमेरिका की कंपनी में अच्छी पेमेंट उठा रहा है। चौराहे के बाएँ वाला घर याद तो है न... सिंह साहब की बेटी की पढ़ाई अभी पूरी भी नहीं हुई कि नौक़री लग गई है। सब-के-सब उस अंग्रेज़ी वाले स्कूल से ही हैं।"
माँ तो दिन-रात तंग रहकर भी बच्चे की ख़ुशी की मन्नतें करती है। उसे किसी भी सूरत में बच्चे को तंग देखना कैसे गवारा हो सकता है। राहुल की मम्मी को घर की माली हालत पता थी। अच्छी-ख़ासी कोई बँधी तनख़्वाह तो थी नहीं। घर का पूरा भार किराने की दुकान पे था। राहुल के बाबा की विरासत में मिली थी वो दुकान। जब सोच बेहतरी की हो, तो भला मम्मी उन नेक हाथों को कैसे रोक सकती हैं। मम्मी अधिक पढ़ी-लिखी न थीं। इसके बावजूद भी अपने बेटे की पढ़ाई में बहुत दिलचस्पी रखती थीं। राहुल की भोर के चार बजे का अलार्म मम्मी ही तो थीं।  ऐसी अलार्म, जो राहुल को जगाकर ख़ुद भी उसके साथ जगती रहतीं। बेटे का हौसला बढ़ाने का यह उनका तरीक़ा था। क़रीब से बेटे को जानने का परिणाम ही था कि मम्मी को एक विषय की अंग्रेज़ी की पढ़ाई और अंग्रेज़ी में पूरी पढ़ाई के बीच का फ़र्क पता था। अगर राहुल ऐसे स्कूल में जाता तो आने वाले संघर्ष की आहट भी मम्मी को थी। पिता के शांत होते ज्वार-भाटों को भाँपकर हिचकिचाते हुए,
"ए जी, अंग्रेज़ी मीडियम का भार तो नहीं न पड़ेगा...?"
पापा, "अरे कैसा भार? ... तेज़ है.... लगनी भी है... कर लेगा।"
मम्मी, "फ़ीस?... उसकी तो फ़ीस भी अधिक होगी न... उसका क्या?"
पापा, "तुम चिंता मत करो, मैं कुछ इंतज़ाम कर लूँगा।"
थोड़ी देर पहले मम्मी सहमी हुई थीं। पर पैसे के जुगाड़ वाली बात से मम्मी को शक़ हुआ कि दुकान में कोई अलादीन का चिराग़ मिल गया है। वरना पतिदेव इस ढलती उम्र में आमदनी बढ़ाने की कैसे सोच सकते हैं?
    निर्माण का काम भगवान ही कर सकते हैं। माता-पिता बच्चों के भविष्य के विश्वकर्मा होते हैं।  भैतिकवादी किसी भी समाज में जब भी कभी यह ओहदा साक्ष्य के कठघरे में खड़ा होगा, तब निर्माण का यह सार्वभौमिक सिद्धांत कवच बनेगा। राहुल की अभी उम्र कच्ची थी, इसलिए उससे अंग्रेज़ी वाले स्कूल की राय नहीं पूछी गई। उसको पापा ने बताया कि अब वो नवीं से राज इंग्लिश स्कूल में पढ़ने जाएगा। उसकी राय नहीं ली गई, मगर उसको स्कूल बदली के कारणों की उत्सुकता तो ज़रूर थी। मम्मी ने कौतुहल की इस प्यास को शांत किया। 
  दिमाग़ का तेज़ होना और उस तेज़ दिमाग़ को धारदार बनाने के लिए मेहनत का पत्थर होना, ये दो ऐसी गंगा-जमुना हैं, जिनका संगम किसी अदृश्य सरस्वती में ही हो सकता है। जो इन सरस्वती की खोज कर ले, वो संसार का अगला आइंस्टाइन बन जाए। राहुल में उन्हीं सरस्वती नदी का वास था। प्रवेश परीक्षा के लिए फॉर्म भरा गया। पापा के निर्णय के प्रति समर्पित भाव से राहुल ने कमर तोड़ तैयारी की। प्रवेश परीक्षा अंग्रेज़ी में होनी थी। उसने आठवीं का सारा पाठ्यक्रम अंग्रेज़ी की पुस्तकों में पढ़ डाला। मेहनत का फल तो मीठा ही होता है, और साथ में माँ-बाप की दुआएँ उस मिठास की मिश्री थी। नतीजा, राहुल को सुनहरे भविष्य की चाबी के रूप में राज इंग्लिश स्कूल का आई.डी. कार्ड  मिल गया। 
   राज इंग्लिश स्कूल जाने का पहला दिन । राहुल एकदम बन-ठन के तैयार। जब राहुल ने शीशे में अपना चेहरा देखा, तो भौचक्क रह गया। बिना किसी ड्रेस कोड के स्कूल जाने वाला ब्लेज़र में था। कॉलर की बटन बंद करने पर घुटन महसूस करने वाले के गले में जेंटलबॉय की कसी हुई टाई थी। कमर कसकर पढ़ाई करना तो वो जनता था, पर यहाँ पढ़ाई करने के लिए वास्तव में कमर कसना पड़ता था, बेल्ट से। इससे पहले उसने कभी भी कमीज़ को पतलून के भीतर नहीं की थी। पैर की हवाई चप्पल आज हवा-हवाई हो गई थी। उनकी जगह ब्लैक शूज़ ने ले ली थी, जिसपे रोज़ चेरी ब्लॉसम पॉलीश की चमक चढ़ानी थी। अपने आपको इतना बदला देखकर वो घबरा गया! थोड़ी देर में होश संभाला। बेहतरी के लिए इस बदलाव को माना। फिर शुभ काम की शुरुआत करने से पहले हमेशा की तरह मम्मी ने दही-गुड़ कराया। मम्मी-पापा के चरणों को स्पर्शकर घर से बाहर क़दम रखा।
   गेट पर लिखा था RAJ ENGLISH SCHOOL। जगह-जगह दीवारों पर लिखा था- 'GENERATE ONLY ENGLISH WAVES. (केवल अंग्रेज़ी तरंगें ही उत्पन्न करें)'। पहले से ही असहज महसूस कर रहे राहुल के लिए यह कथन और पसीना छुड़ाने लगा। क्लास के सब बच्चे एक-दूसरे के लिए नए नहीं थे। अधिकतर बच्चे राज इंग्लिश स्कूल के ही थे, जो आठवीं पास करके आए थे। पाँच बच्चे दूसरे स्कूलों से भी आए थे, पर अंगेज़ी मीडियम वाले। हिंदी से अंग्रेज़ी में तिरछी छलांग लगाने वाला राहुल इक़लौता था। क्लासटीचर महोदय मिस्टर प्रभात नारायण जी आए। प्रेम से बच्चे उन्हें पी॰एन॰ सर के नाम से पुकारते थे।  राहुल दन-से खड़ा हो गया। उसके स्कूल में तो ऐसा ही होता था।  गुरु जी के आने पर उनको सम्मानित करने का तरीक़ा था। उसने अपने आजू-बाजू नज़र फेरी, पर केवल वही खड़ा था। बाक़ी सब बैठे-के-बैठे। पूरा माहौल ठहाके से भर गया। सारे बच्चे राहुल की ओर इशारा करके हँसी उड़ाने लगे। मानो बगुलों के बीच में कौआ अपने व्यवहार के रंग से ही पहचान में आ गया हो। अब राहुल कौआ था, या बगुलों में हंस, ये तो वक़्त ही बताता। उस स्कूल में टीचर को सम्मान नहीं, बस सैलरी मिलती थी। सैलरी, मेहनताना, जिसके लिए वो पढ़ाते थे। ख़ैर... माहौल शांत हुआ। क्लासटीचर महोदय ने अपना परिचय दिया। उसके बाद एक अंग्रेज़ी में जोशीली स्पीच भी दी। फिर उन्होंने बारी-बारी सबका परिचय पूछा। स्वाभाविक था... अंग्रेज़ी में! सबने फ़र्राटेदार इंट्रो दिया। राहुल को मम्मी के साथ-साथ नानी भी याद आ गईं। उसका अनूदित (TRANSLATED) परिचय हास्य-व्यंग की महफ़िल सजा गया। आज का हँसी के पात्रों का हीरो वही बना। और  मज़ाक़ बनने की क़सर जो बची रह गई थी, वो टिफ़िन करते समय पूरी हो गई। राहुल को खाना खाने का मैनर भी होता है, उसको  पता नहीं था। 
स्कूल का समय ख़त्म हुआ। वापस आते समय राहुल को स्कूल की दीवारों पर लिखी एक और बात दिखी जिसने उसके हौसले के कुऍं में से एक बाल्टी पानी और निकाल लिया-'A GOOD START IS HALF DONE (एक अच्छी शुरुआत का अर्थ मज़िल आधी पा जाना है।)'
 बड़ों में मज़ाक बनने की क्षमता जितनी होती है, उससे कई गुना कम क्षमता बच्चों में होती है। अगर अभिभावक बच्चों को सही मार्गदर्शन न करें, तो वे आए दिन अपने जिगरी दोस्तों से ही मुँह फुला लें। उनसे झड़प कर लें। वहीं हाल राहुल का भी था। इतना बुरा पहला दिन इससे पहले कभी न बीता था। घर पे मम्मी राहुल का जिस उल्लास से इंतज़ार कर रहीं थीं, वो राहुल के चेहरे से ग़ायब था। राहुल ने बनावटी चेहरे से सब कुछ छुपाने की कोशिश तो ज़रूर की, पर 'माँ सब जानतीं हैं'!  बुरी शुरुआत का असर कुछ ऐसा हुआ कि बीच में बैठने वाला राहुल महीने भर में सरकते-सरकते एकदम पीछे जा बैठने लगा। उसको मैथ्स तो जैसे-तैसे पल्ले पड़ जाती थी। परन्तु साइंस, सोशल साइंस, इत्यादि विषयों की हवा तक न लगती थी। अंग्रेज़ी का हिंदी अनुवाद करने में वो इतना उलझा रहता कि मूल बातें सिर के ऊपर से निकल जातीं। कभी नियमों की तह खोदने वाला लड़का अब उनकी सतह छूने से भी कतराने लगा। अपने कक्षा में नए-नए विचार रखने वाला अब क्लास में कोई आईडिया (idea) नहीं दे पाता था। मैथ्स में आती हुई चीज़ों को भी वो बतलाने में हिचकिचाता। क्लास में परफॉरमेंस रिटेल (Retail, खुदरी) की नहीं, होलसेल (wholesale, थोक) वाली होती है।  वहाँ उसका बोलबाला रहता है, जो सब विषयों में अच्छा रहे। केवल मैथ्स के सवाल ब्लैकबोर्ड (blackboard) पे हल करने से राहुल रामानुजम नहीं बन सकता था। और फिर उसको लोगों के समझाने में बोलना भी पड़ता...। हँसी का पात्र बनने से बचने के लिए अक़्सर जानते हुए भी राहुल कभी हाथ खड़े नहीं करता।
   घड़ी को एक हीन भावना (inferiority complex)  होती है। वो कितना हूँ चलती है, किंतु वो कभी आगे नहीं बढ़ती। उसी गोल घेरे में चक्कर खाती रहती है। ये उसका महज भ्रम है, असल में जर्मन मान्यता के अनुसार समय सीधी रेखा में चलता है। जो राज इंग्लिश स्कूल में भी चलता रहा। उस स्कूल में राहुल के लगभग तीन महीने बीत चुके थे। हमेशा खिलखिलाते रहने वाले बच्चे का मुरझाया चेहरा देखकर मम्मी चिंतित रहने लगीं। चाँद-तारों, ग्रहों-नक्षत्रों की तहक़ीकात करने वाला राहुल अब टिमटिमाता जुगनू देखने में भी रुचि नहीं दिखाता था। भोर में मम्मी के सिर सहलाने मात्र से दन से उठकर बैठ जाने वाले लड़के को झोर-झोरकर जगाना पड़ता था। अब यह झोरना झाड़ने में बदल गया। अब राहुल की नींद बस डाँट से ही टूटती। देखते-देखते छमाही इम्तेहान सिर पे आ गए। दिन-पर-दिन राहुल का आत्मविश्वास घटता हुआ नज़र आ रहा था। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ। किताबों में खोया रहने वाला राहुल अब अपनी ही क़िताब खोज रहा था।  
   एक दिन राहुल सूट-बूट कसकर स्कूल के लिए तैयार था। उसका यह रूप देख मम्मी मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं, जैसे बेटा कोई उद्योगपति बन गया हो। बस एक फ़र्क था कि मम्मी जैसी मुस्कान राहुल के चेहरे से नदारद थी। उदासी मौन से कुछ कहना चाह रही थी। मम्मी ने उस दिन बेटे को टोका और बोला,
“मेरे लाल, कहाँ खोए-खोए-से रहते हो? तुम्हारा यह गिरा हुआ चेहरा इस ड्रेस पर शोभा नहीं देता।”
राहुल, "नहीं माँ, मैं इस कपड़े में बड़ा अजीब फ़ील (महसूस) करता हूँ। शुरु के दिनों में तो ये ड्रेस बड़ी अच्छी लगती थी, पर पता नहीं क्यूँ अब इससे ऊब गया हूँ।"
मम्मी, "बेटा कपड़े की उपयोगिता बस तन ढँकने भर की है। ये ढँकता है, हमें इसके भार को ढोने में ऊर्जा ख़र्च नहीं करनी चाहिए। लोग तो देखा-देखी से कपड़े में मायने निकालने लगे हैं। कि सूट-बूट पहनो तो सभ्य, धोती-कुर्ता पहनो तो असभ्य। पता है बेटा,...  जब गांधी जी इंग्लैण्ड बैरिस्टर की पढ़ाई करने गए थे, तो किसी अपने देश वाले ने ही उनके कपड़ों की खिल्ली उड़ाई, उनको सभ्य बनने के लिए जेंटलमैन वाले कपड़े सुझाए। तब गांधी जी ने सूट-बूट-टाई... सब ख़रीद ली। पार्टियों में जाने के अलग क़िस्म के कपड़े बनवाए। धारा प्रवाह अंग्रेज़ी सीखी। फ़्रांस की भाषा भी सीखी। जेंटलमैन बनने के लिए अंग्रेज़ी बाजे बजाना भी सीखे। फिर ये सब कर करते हुए उन्होंने एकदिन अपने को शीशे में देखा। फिर उनको लगा कि वो नक़ल की दौड़ में अपना असलीपन पीछे छोड़ते जा रहे हैं, भूलते जा रहे हैं। तब से उन्होंने पहनावे को कभी अहमियत नहीं दी। आज गांधी जी अपने कपड़ों से नहीं, अपने व्यवहारों और विचारों के लिए जाने जाते हैं…।
थोड़ी देर बाद मम्मी को लगा कि उन्होंने बेटे को पका दिया। अपने उपदेशों को रोकते हुए, 
“ अरे, मैं ये क्या बक़-बक़ कर गई, ये सब तुझे तो पता ही होगा…”
राहुल, “ मम्मी, आप कहती हो कि आप ठीक से स्कूल नहीं जा पाईं…फिर गांधी जी के बारे में इतनी बातें कहाँ से जानती हो?”
मम्मी, “ बेटा! गांधी जी में जिनकी रुचि रहती है, उनके लिए स्कूल ज़रूरी नहीं होते। बेटा… गांधी जी महान पैदा नहीं हुए थे, वे तो बहुत ही मामूली थे। बचपन में अंधेरे से डरना, चोरी करना..., सब किए थे वो…पर उन्होंने अपने आपको साधा…और आज अमर हैं!”
   मम्मी की इन बातों ने राहुल का हौसला बढ़ाया। अब वो ड्रेस, जूते-मोजे मैनर आदि को ताख पे रख दिया। राहुल बनकर पढ़ने पर ध्यान लगाना शुरू किया। कितना हूँ जोश भरता, पर क्लास  की एकाएक बढ़ी हुई अंग्रेज़ी के प्रोटीन को उसकी समझ की किडनी पूरी तरह सोख नहीं सकती थी। हिम्मते मर्दा, मद्दते ख़ुदा। गांधी जी के जोश का नतीज़ा यह हुआ कि वो अंग्रेज़ी के सारे पाठ्यक्रम को हिंदी की किताबों से समझता था। फिर उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद करके समझता। अंग्रेज़ी की पढ़ाई और कॉन्सेप्ट (अवधारणा) के दो किनारों के बीच का पुल अनुवाद था। अनुवाद उसका ब्रह्मास्त्र था, जिसको चलाने के लिए कमर तोड़ मेहनत का भुजबल भी उसके पास था। मगर अनुवादों के इस चक्कर में राहुल अपना कुछ खोता जा रहा था। वो था उसका सीखने की जगह पर केवल पास होने पर फ़ोकस। समस्या से जूझने के बजाय उससे बचने के उपाय पे बल। गहराई की जगह वो शॉर्टकट लेने लगा था। सीधा रास्ता चलने का समय भी तो होना चाहिए। अब एक ही चीज़ को क्लास में अच्छे से न समझ पाना! फिर उसी को हिंदी की किताब से समझना!! और अंत में उसका अनुवाद करके अंग्रेज़ी में!!! एक काम के लिए तेहरकम्मा!!!! हाल ये हुआ कि अब  राहुल नए आइडिया की बात ही नहीं करता। मानो उसने अपने छलांग लगाने वाले दिमाग़ को रेंगने के लिए छोड़ दिया हो। चरित्र और कौशल की जननी शिक्षा नम्बर पाने का साधन बनती जा रही थी।
   समय बीता। छमाही की परीक्षा दबे पाँव आई, पर परिणाम शोर मचा रहा था। इस बार क्लास में राहुल का कोई स्थान न था। आलम ये था कि अंग्रेज़ी में तो लाल स्याही लगने से बस रह भर गई! अब राहुल अपने पिता को क्या मुँह दिखता। पर सच से मुँह मोड़ा भी नहीं जा सकता था। पिता की नाराज़गी स्वाभाविक थी। थोड़ा-बहुत तो ठीक था, पर वो अव्वल आने वाले राहुल से ये उम्मीद नहीं किए थे। राज इंग्लिश स्कूल उनकी जेब से परे था। फिर भी अपने बेटे के चमकीले भविष्य के लिए हिम्मत जुटाई। वो रोज़ शाम अपनी किराने की दुकान बंद करके लोमैटो (LOMATO) के लिए खाने की डिलीवरी करते थे। लोमैटो के माध्यम से लोग घर बैठे खाना ऑर्डर कर सकते थे।  डिलीवरी बॉय , अरे नहीं, डिलीवरी मैन, की वेष-भूषा में तो उनके पड़ोसी तक उनको न पहचान पाए थे। कइयों बार तो सड़क पर खड़ी राह जोह रही राहुल की मम्मी के सामने से भी ब्रूम-ब्रूम करते गुज़र जाते थे। सिर पे हेलमेट और डिलीवरी मैन  की पोशाक में अगर मोटरबाइक वाला आवाज़ न निकाले तो अपने पति को भी पहचानना मुश्क़िल हो जाता है। उनको इतनी मेहनत करके भी राज इंग्लिश स्कूल का सपना टूटता हुआ नज़र आ रहा था। इस सपने में बेटे का भविष्य भी बिखरता हुआ दीख रहा था। इसलिए पिता को अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन ठीक से न कर पाने का डर भी था। बेटे पर वो खीज तो रहे थे, पर खीज से समस्या की जड़ थोड़े ही नहीं खोद सकते थे। दुकान के एक नए ग्राहक से अच्छा व्यवहार बनाने में उनको काफ़ी मेहनत करनी पड़ती थी। सालों लग जाते। इसलिए बदलाव में लगने वाले समय का अंदाज़ा था उनको। फिर गंगा के तैराक को अंग्रेज़ी के समुद्र में स्थाई होने में समय तो लगेगा ही। यह सोचकर राहुल के पापा ने अपनी मेहनत का बोझ राहुल के दिमाग़ पर नहीं डाला। वे इसका करण जानने राहुल के क्लासटीचर महोदय से मिलने का मन बनाए गए। मिलने का बुलावा स्कूल ने रिपोर्ट कार्ड के साथ भेजा ही था।
   राहुल के क्लासटीचर श्री पी॰एन॰ सर राहुल गतिविधियों पर पहले दिन से ही नज़र बनाए थे। उसकी क्लास में बढ़ती जा रही असहभागिता उनकी चिंता का कारण थी। राहुल के बिना बताए ही सर जी को पता था कि वो किन परिस्थितियों में हिंदी की नाव छोड़ अंग्रेज़ी की नाव पर सवार हो आया था। कभी-कभार वो उससे व्यक्तिगत रूप से भी क्लास के बाहर मिल लिया करते थे। जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। पी॰एन॰ सर भी इस मीडीयम के दर्द से गुज़र चुके थे। इसके घातक परिणाम से भी वो भली भाँति परिचित थे। इन परिणामों को वो चाहते तो राहुल के पिता को पहले ही बुलाकर बता सकते थे। मगर स्कूल मैनज्मेंट  इस प्रकार के अति व्यक्तिगत परामर्श की अनुमति नहीं देता था, क्योंकि कभी-कभी इससे स्कूल के वित्तीय हितों को घाटा हो जाता था। स्कूल से निकलकर बच्चे कंपनियों में काम करेंगे। वहाँ पर व्यवसायिकता ( प्रोफेशनलिज़म) वाला व्यवहार ही चलता है। राज इंग्लिश स्कूल के वातावरण में इसकी नींव रखी जाती थी। सबको भेड़ की तरह पढ़ाया जाता था। अपनी क्लास लीजिए, और घर चलते बनिए। उसमें पी॰एन॰ सर जैसे जी जान से पढ़ाने और भविष्य को बनाने को समर्पित लोग छटपटाकर रह जाते। एक दूसरा हिचक का कारण भी था। सर की बात को राहुल के अभिभावक अन्यथा भी ले सकते थे। बच्चे के भविष्य का निर्धारण माता-पिता करते हैं, और गुरु इसका निर्माण। पर हमारे यहाँ गुरु को यह श्रेय बस कथनी भर है, दुर्भाग्यवश करनी में नहीं है। बातचीत करने के इन तमाम अवरोधों को अध्यापक-अभिभावक मीटिंग ने दूर कर दी।

  निर्धारित समय पर पी॰एन॰ सर और राहुल के पिता स्कूल में मिले। राहुल के पिता ने पी॰एन॰ सर के चरण स्पर्श किए, जो कि सर को भी थोड़ा असहज लगा। असहज इसलिए क्योंकि दूसरे अभिभावक ऐसा नहीं करते थे। पिता का शर्मिंदगी से मुँह ऐसा लटका था, जैसे परीक्षा उन्हीं ने दी हो। पिता जी,
“गुरु जी, माफ़ कर दीजिए…अभी और मेहनत करेगा लड़का। बड़ा होनहार है। हिंदी से आया है…. बस थोड़ा टाइम लग रहा है।”
पी॰एन॰ सर, सिर हिलाकर उनकी क्षमा याचना को टाले और पूछे, “आपने हिंदी में ही आगे क्यों नहीं पढ़ने दिया?”
पिता जी, “गुरु जी, हिंदी में पढ़कर अच्छी नौक़री कहाँ लग रही है।”
सर, “लेकिन अभी भी वो पढ़ तो हिंदी में ही रहा है…।”
पिता जी अचंभित! चेहरे ने सवाल किया- ये क्या बात हुई?
पी॰एन॰ सर जी ने पूरी बातें विस्तार से बताईं-कैसे राहुल अंग्रेज़ी क्लास-हिंदी किताब-अंग्रेज़ी कॉन्सेप्ट के तीन पाटों के बीच पिसता जा रहा है। कैसे वो क्लास में नज़रे चुराता-फ़िरता है। अंग्रेज़ी न बोल पाने की वजह से दूसरे बच्चे उसे अलग-थलग किए रहते हैं। जैसे वो किसी दूसरे ग्रह से आया एलियन हो। 
पिता जी के लिए ये सारी बातें चौंकाने वाली थीं। उन्होंने तो बेहतरी की तलाश में भेजा था, पर यहाँ तो राहुल ही खोता नज़र आ रहा था।
पी॰एन॰ सर, आगे एक अध्यापक के तौर पे नहीं, एक अभिभावक के अवतार में राहुल के पिता जी से बोले, 
"भाई साहब! शिक्षा बस परीक्षा और डिग्रीयों का खेल नहीं है। या केवल नौकरी पाने का ज़रिया नहीं। इसमें बच्चा कुशलता सीखता है। वो अपने आप को जानने की कोशिश करता है...। वो शिक्षा के मंदिर में एक अच्छा नागरिक बनकर लोकतंत्र का अच्छा पुजारी बनता है। अपनी संस्कृति को अपनी अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का माध्यम बनता है..."
पिता जी, गुरु जी की बातों को बीच में ही रोकते हए, " गुरु जी, हम नहीं चाहते हैं कि हमारा बेटा हमारे गल्ले पे बैठे। इसके लिए उसको आपके स्कूल में पढ़ना ही पड़ेगा। यहाँ से निकले बच्चे बड़ा अच्छा कर रहे हैं।"
पी॰एन॰ सर, भौंह सिकोड़ते हुए, "अच्छा कर रहे हैं?... आप भी क्या बात करते हैं। शिक्षा का उद्देश्य केवल नौक़री पाना नहीं है। हाँ,  शिक्षा के उद्देश्यों में रोज़ी-रोटी सबसे अहम ज़रूर है…। लोग ग़रीब होंगे, तो देश ग़रीब होगा। बिना धन का देश अपने आपको समृद्ध और सुरक्षित नहीं रख सकता। देश को पैसा मिलता है टैक्स (कर) से। अब कर देने के लायक़ होने के लिए लोगों की उतनी आमदनी होनी चाहिए। अब मानिए कि सारे लोग ऐसी नौक़री करें कि उनकी सालाना आय ढाई लाख से भी कम हो। तो सरकार के हाथों में  क्या कर  मिलेगा? बिजली, सड़क, पानी...ये सब कैसे जुटाएगी कंगाल सरकार। इसीलिए अच्छी शिक्षा बहुत ज़रूरी है, जहाँ पर लोग बड़े-बड़े काम करें और अधिक-से-अधिक कमाएँ। "
   राहुल के पिता जी सुनते रहे....चुपचाप! आँखें फाड़कर!! समझने की कोशिश तो बहुत किए कि आख़िर गुरु जी कहना क्या चाहते हैं। बेटे की नौक़री का उनके घर के सामने की सड़क से क्या रिश्ता था? उनके लड़के के कंधे पर ये सब भार क्यों रहेगा। ये सब तो उन नेता जी की ज़िम्मेदारी है, जो वोट माँगने आते हैं। घनचक्कर में फँसे पिता जी को एक बात का तो भरोसा था कि गुरु जी उनके बेटे की भलाई की ही बात बता रहे हैं। नहीं तो कोई मास्टर इतनी तल्लीनता से अपना पसीना क्यों व्यर्थ करता।
सर मुस्कुराते हुए बोले, "देखिए मैं आपको पकाना नहीं चाहता हूँ, अब मैं सीधे बोलता हूँ, जब पैसा ही कमाना है, तो अंग्रेज़ी में ही पढ़ना ज़रूरी है क्या?"
इससे पहले इन जैसे ओहदे का आदमी इतना क़रीब बैठकर यह सवाल पहले कभी नहीं पूछा था। इससे पहले कि वो हकलाकर कोई ज़वाब मन में गढ़ते, गुरु जी ने सवालों की झड़ी  लगा दी, " आप तो हिंदुस्तानी हैं, हिंदी आपकी मातृभाषा होगी, मम्मी  जी अंग्रेज़न होंगी.... या फिर उस देश की, जहाँ की मातृभाषा अंग्रेज़ी हो?"
राहुल के पिता जी को लगा कि अब गुरु जी खिल्ली उड़ाने पर उतर आए हैं। वो मुण्डी हिलाकर इशारा किए कि माता भी हिंदी वाली ही हैं।
पी॰एन॰ सर, "देखिए भाषा अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) का जरिया है। अभिव्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही सबसे नैसर्गिक (नेचुरल)  रूप में प्रवाहित होती है। जो चीज़ प्राकृतिक है, वही टिकाऊ। बाक़ी बनावटी, बरबस चीज़ें तो बस काम चलाऊ हैं। आप सोचिए...अगर राहुल की मातृभाषा अंग्रेज़ी होती, तो वो उसमें पढ़ाई-लिखाई करता, आगे बढ़ता...वो जो भी करता, उसमें एक तरह की मौलिकता (ओरिजिनैलिटी) रहती, ...अपनापन रहता। उसकी भावनाएँ, उसके विचार, उसकी सोच.... सब कुछ अंग्रेज़ी में होते, इसलिए वो उनकी अभिव्यक्ति भी अंग्रेज़ी में आसानी से कर सकता था। अब आप इस समय की स्थिति देखिए। छः महीने पहले अपनी मातृभाषा में पहचान रखने वाला लड़का आज अंग्रेज़ी के स्कूल में खुद को भूलता जा रहा है। अब उसको कोई मौलिक विचार नहीं आते। कुछ सोचने से पहले ही उसकी अंग्रेज़ी आड़े आ जाती है, वहीं पे उसका साहस टूट जाता है। और आगे वो पूरे जीवन अपने असली रूझान को जान नहीं पाएगा…”
थोड़ी देर इधर-उधर देखने के बाद पी॰एन॰ सर बोले, “उसमें भी राहुल के साथ एक विचित्र बात और है!"
'विचित्र' शब्द सुनते ही पिता जी के कान खड़े हो गए। अच्छे-ख़ासे,  होनहार, क़द-काठी से सुडौल लड़के में छः महीने में गुरु जी कोई ऐब तो नहीं ढूंढ लिये! शायद नए गुरु जी की नज़रों में राहुल के भीतर कुछ अलग दीखा हो। परीक्षा के परिणाम और अब इस 'विचित्रता' वाली बात की दोहरी लज्जा से पिता, शर्म में हिलोरे खा रहे स्वर से पूछे, "गुरु जी, कहीं ग़लत सोहबत में आकर बत्तमीज़ी तो नहीं कर दिया है?" 
सर, "नहीं…नहीं! वो बात नहीं है। शोध में इस बात की पुष्टि हुई है कि जो बच्चे अपनी प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में करते हैं, वे आगे चलकर बहुत अच्छा करते हैं। क्योंकि उनकी नींव मज़बूत होती है। अब देखिए राहुल ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हिंदी में की है, और अच्छे-से कर रहा था । मातृभाषा पे अच्छी पकड़ होने से वो सारे विषयों, जैसे गणित, विज्ञान, इतिहास में भी अच्छा कर रहा था। अब एकाएक यहाँ अंग्रेज़ी में आकर वो उस नींव पे दूसरी इमारत खड़ा कर रहा है। ये तो हिंदुस्तानी नींव पर ब्रिटिश रूप-रेखा (आर्किटेक्चर) वाली बिल्डिंग वाली बात हुई। आप ज़रा सोचिए, क्या इमारत बेढब नहीं लगेगी? किसी फटे कपड़े में लगी चकती जैसी नहीं दिखेगी? ताजमहल के ऊपर ब्रिटिश रूप-रेखा (आर्किटेक्चर) की बिल्डिंग आपको अच्छी लगेगी?"
अध्यापकों का काम बोलने का होता है। लोग भ्रमवश समझते हैं कि बोलना बहुत आसान है, पर इतनी ऊर्जा लगती है कि पूछिए ही नहीं। आप एक घण्टे लगातार किसी को कुछ समझाने के लिए बोलकर देखिए। दिमाग़ी और ध्वनि ऊर्जा के क्षय से जो थकान होती है, वो अध्यापक ही महसूस कर सकते हैं। अध्यापक पूरे जीवन यह काम पूरी शिद्दत के साथ करते हैं। अत्यधिक बोलने की वजह से तो कुछ अध्यापकों को गले की सर्जरी तक करवानी पड़ जाती है। पी॰एन॰ सर मेज पर रखी पानी की बोतल से अपने गले को गीला किए। थोड़ी देर सुस्ताने के बाद पिता जी से उन्होंने बहुत गंभीरता से पूछा, "जानते हैं, हमारा देश आज भी ग़रीब क्यों है?" ज़वाब में था पिता का शून्य और समर्पण। इसपर पी॰एन॰ सर बोले, "हमारी सोच अभी भी अंगेज़ी हुकूमत की ग़ुलाम है! हम अभी भी कारखानों में काम करने और बाबू बनने के लिए स्कूल जाते हैं। जिस दिन हम अपनी मातृभाषा में सोचना शुरु कर देंगे, विकास की असल क्रांति आ जाएगी। यहाँ पढ़कर लोग अपनी समस्याओं के समाधान अपने आप ढूँढेंगे, क्योंकि अपनी समस्याओं को हमसे बेहतर और कौन जान सकता है। यही नहीं, हम दूसरे देशों की भी मदद कर पाएँगे।"
पिता जी इतना सुनने का धैर्य लेकर नहीं आए थे, फिर भी उनको गुरु जी में भगवान श्री कृष्ण दीख रहे थे। उन्होंने बड़े समर्पण भाव से हाथ जोड़कर बोला, "तो गुरु जी, आप ही आगे कुछ रास्ता बनाइए।"
   उस दिन मिलने का समय केवल राहुल के पापा के नाम नहीं था। उनके पीछे भी लाइन लगी थी। अगले बच्चे के पिता जी देरी से पैदा हुई बेचैनी को रोक न सके और सर के पास आ धपके। उनको जिस समय पे बुलाया गया था, उससे आधे घण्टे की देरी पहले ही हो चुकी थी। उनकी वेष-भूषा के साथ-साथ तपाक भी ब्रिटिश था। आते ही उन्होंने पी॰एन॰ सर को अपनी आँखों से ही क्रोध जताया। आख़िर समय की क़द्र तो होनी चाहिए। इससे पहले वे पी॰एन॰ सर को कुछ उल्टा-सीधा कहते, राहुल के पिता ने उनके सामने हाथ जोड़कर बोला, "भाई साहब!  बस पाँच मिनट ...मेरे भविष्य का सवाल है।" अभिभावक महोदय खीजे, एक सागर-सी गहरी साँस लिये, और जाकर क्लास के बाहर रखे सोफ़े पर बैठ गए।
   पी॰एन॰ सर अपनी एकाग्रता के लिए जूझते दीखे। जैसे-तैसे उनकी मुस्कान पटरी पर लौटी। अब वे अपनी बातों को जल्दी से समेटने का प्रयास करते हुए, " जब नौक़री ही करना है, तो क्यों नहीं वो अपनी मूल भाषा में शिक्षा ले। क्या पता वो अगला अब्दुल क़लाम बनकर असंभव काम करे, या फिर टैगोर बनकर समाज को सही दिशा दे। अपनी मातृभाषा में शिक्षा लेने वाले देश तरक़्क़ी कर रहे हैं...चीन, जापान, कोरिया, फ़्रांस..., ख़ुद इंग्लैंड और अमेरिका को ही ले लीजिये। जो देश अपनी मातृभाषा में शिक्षा नहीं ले रहे, वे उन देशों की सेवा कर रहे हैं.... और करते रहेंगे।"
घर की मुर्गी साग बराबर। राहुल की मम्मी ने स्कूल बदलने से पहले ममता के हवाले से ही सही, यही बात कही थी। उन्होंने  मातृभाषा का महत्त्व बँधी आवाज़ में कहने की कोशिश की थी। 'राहुल का मन इस स्कूल में लगा है, तो केवल अंग्रेज़ी के लिए ही स्कूल क्यों बदलना?' गुरु जी के कृष्णावतार ने पिता की आँखें खोल दीं। उन्होंने सर जी से बोला, "गुरु जी! कुछ महीने महीने और रह गए हैं, इस स्कूल में पढ़ लेने दीजिये, फिर उसको पुराने वाले में भेज दूँगा।"
सर, "मैं तो कहूँगा कि बचे हुए समय भी पुराने वाले में ही पढ़ाइए। हिंदी में वो सारी चीज़ें पढ़ता आ रहा है, ऐसे में उसका अधिक नुक़सान नहीं होगा।"
इतने में बड़ी देरी से अपनी बारी का इंतज़ार करने वाले अभिभावक अंदर आए और फायर हो गए। आधे घण्टे, और दस मिनट की देरी !!! इसलिए वे आग बबूले भी थे, और गरज भी रहे थे। मैनर, वैल्यू ऑफ़ टाइम...बड़बड़ा रहे थे। सर जी ने उनको आदरपूर्वक बैठने का आग्रह किया। फिर वे उठे और राहुल के पिता जी को बाहर तक छोड़ने गए। उन्होंने मुस्कुराते हुए एक गूढ़ ज्ञान की बात भी बोल डाली, "देखिए, अपने यहाँ बढ़ रहे वृद्धाश्रमों के कारणों की आपने झलक देख ली। अभी वाले महाशय अंग्रेज़ी भाषा तो भाषा, अंग्रेज़ी संस्कृति भी ओढ़ लिये हैं। तो आगे चलकर ऐसे ही अभिभावकों के बच्चे जब वृद्धाश्रम में उनके लिए जगह आरक्षित करते हैं, उस समय इनको एक प्रश्न का ज़वाब ढूँढने से भी नहीं मिलता-'आख़िर हमारी परवरिश में ऐसी क्या कमी रह गई?' अरे जब पेड़ चेरी ब्लॉसम का लगाएँगे, तो उसमें फूल गुड़हल के थोड़े ही न लग जाएँगे! देखिए भाई साहब, मातृभाषा को संस्कृति से भी जोड़कर देखिए। पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कृति की विरासत संभालने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है।"
इतना कहकर उन्होंने राहुल के पिता को विदा किया। पिता ने गुरु जी के चरण कमलों को स्पर्शकर उनका धन्यवाद ज्ञापन किया। अपनी साइकिल से घर वापस लौट आए।
   गुरु जी से मिलने के बाद सबसे अधिक ख़ुश कौन हुआ? गुरु जी? पिता जी? ख़ुद राहुल?? नहीं! ख़ुशियों की असल बाढ़ तो मम्मी के जिगर में आई। अब उनके जिगर के टुकड़े  का लटका हुआ मुँह जो नहीं देखना पड़ता। राहुल दोबारा अपने पुराने विद्यालय में जाने लगा। जान बची लाखों पाए, लौटके बुद्धू घर को आए। किसी हरे-भरे पेड़ को उखाड़कर ऐसी जगह लगाया जाए, जहाँ नया वातावरण अनुकूल न हो, तो पेड़ मुरझा जाता है। राहुल का पौधा अपनी मिट्टी में लौटते ही फिर से हरा-भरा हो उठा। 
   उस दिन देरी होने की वजह से क्रोधित अभिभावक जी ऐसे ही वापस नहीं चले गए थे। उन्होंने अपनी नाराज़गी प्रिंसिपल सर से मिलकर दर्ज़ कराई। फ़ीस में देरी पर फ़ाइन (Fine), तो उनके समय का जो नुक़सान उस हुआ, उसका हिसाब माँग गए थे। इस हिसाब के चक्र को पूरा होना ही था। परिणाम-प्रिंसिपल सर जी ने पी. एन. सर की क्लास ले डाली। साथ में उनकी सैलरी में सालाना वृद्धि उस साल रोक दी। आगे से हिंदी से अंग्रेज़ी की छलांग लगाने वाले बच्चों को सर की क्लास से दूर रखा गया। आदमी एक बार मार झेल सकता है, पर तिरस्कार कभी नहीं। सर ने आत्मसम्मान की रक्षा में एक दिन वो स्कूल छोड़ दिया। अंग्रेज़ी स्कूल की गुटबंदी कहिए कि एक स्कूल को नाराज़कर आप दूसरे में अधिक दिन तक ख़ुश नहीं रह सकते! कम-से-कम उस शहर के स्कूल इस गुटबंदी के राडार में रहते हैं।पढ़ाना तो था ही, तो सर मजबूरन दूसरे शहर चले गए। राहुल के एपिसोड पर समय की धूल जमती गई। पर सर को हमेशा एक बात सताती रही-क्या राहुल का उन्होंने उचित मार्गदर्शन किया? मन के कोने में राहुल के भविष्य की उत्सुकता हमेशा बनी रही। बीसों बरस बीत गए। सर ससम्मान अवकाश प्राप्त किए। उन्होंने अपनी दूसरी पारी (Second Inning) भी लोगों के शिक्षा के माध्यम से सम्बंधित भ्रमों को दूर करने में लगा दी। अख़बार खंगालना सर का शौक़ था। समसामयिक घटनाक्रम पे उनकी पैनी नज़र बनी रहती थी। रोज़ की तरह धरती डोली, सुबह ने दस्तक़ दी। सूरज की किरणों के साथ सर की मेज पर मेड-इन-काशी अख़बार। मुख्य पृष्ठ पे हेडलाइन: 
'अंतरिक्ष वैज्ञानिक राहुल ने की दसवें ग्रह 'प्रभात' की खोज!'
विज्ञान में नई खोज से सर कभी उतने आकर्षित नहीं होते थे। हम जितना जानते हैं, प्रकृति उससे काफ़ी परे है। ख़बर में सर जी को सबसे अधिक आकर्षित किया 'राहुल' नाम ने!! साथ में नए ग्रह के नाम का 'प्रभात' होना उनको यह विश्वास दिला रहा था कि यह वही राहुल है। सर जी ने तुरंत गूगल की मदद ली और इस रातों-रात जन्मे वैज्ञानिक की जीवनी खंगालनी शुरु की। राहुल के जगह-जगह पर दिए गए साक्षात्कारों की इंटरनेट पे बाढ़ थी। विज्ञान कल्पना नहीं है। जो वैज्ञानिक को दीखता है, वही औरों को भी दिखाना पड़ता है। प्रमाणिकता ही विज्ञान में विश्वास पैदा करती है। राहुल ने अपने संघर्षों और गणितीय सूत्रों को विस्तार से बता रखा था। अन्य वैज्ञानिकों की शंकाओं को दूर करते-करते उसको बरसों लग गए।
   राहुल को बड़े होने पर रातों-रात सपना अंतरिक्ष का नहीं आया था।  ‘तारे क्यों टिमटिमाते हैं?’,  ‘सूरज इतनी रौशनी कहाँ से लाता है?’ ‘आकाश में और क्या-क्या है, जो हमें नहीं दीखते?’ ऐसे राहुल के बचपन के सवाल थे, जिनका ज़वाब मम्मी की कहानियों ने तो देने का प्रयास ज़रूर किया था, पर सवाल, सगे-सम्बन्धियों से अधिक होते गए। ‘ मम्मी, वो क्या है’, ‘बेटा, बड़े बाबा हैं, बड़े अच्छे थे!’ ऐसे उत्तरों के बीच राहुल बड़ा तो ज़रूर हो गया, मगर बड़े होने पर विज्ञान ने रिश्तेदारों का समर्थन नहीं किया। उस समय से राहुल की अंतरिक्ष की जिज्ञासा बढ़ती ही गई। एक नए ग्रह की खोज उसकी इसी अतृप्त जिज्ञासा की फल थी। इस प्यास की तृप्ति उसकी मौलिक सोच के निर्मल-पावन जल से ही सम्भव हो सकी। कई साक्षात्कारों में राहुल अपने उन गुरु को कृतज्ञता ज्ञापित करता रहा, जिन्होंने शिक्षा का व्यापक उद्देश्य राहुल के पिता को समझाया। उन्होंने अंग्रेज़ी-हिंदी के अनुवादों के बीच राहुल की मौलिकता को मरने से बचा लिया था।
  ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी ग्रह का नाम भारतीय हो। इससे पहले हमेशा ग्रहों के नाम रोमन देवताओं के नामों पर ही रखे जाते थे (EARTH , पृथ्वी इसका अपवाद है, जिसका नाम देवी-देवता से सम्बंधित नहीं है।) राहुल ने अपनी खोज को गुरु 'प्रभात' का नाम देकर ग्रहों के नामकरण की परंपरा को भी क़ायम रखा। उसने विश्व को बताया कि भारत में गुरु गॉड (GOD) ही तो हैं।  पी॰एन॰ सर की क्लास में हज़ारों बच्चे आए-गए। पढ़कर निकलने के बाद किसी ने भी उनकी कभी कुशल-मंगल नहीं पूछी।  किसी ने उनकी ओर पलटकर नहीं देखा। पर राहुल के साथ आधे साल के अस्थाई सम्बन्ध ने गुरु का असली महिमा मण्डन किया। वाक़ई में शिक्षा संस्कृति की संवाहक निकली। कई घण्टों में सर ने इंटरनेट खंगाल डाला। अब राहुल से मिलने की उनकी आतुरता बढ़ती जा रही थी। ‘कैसा होगा’ ‘मैंने ऐसा क्या कर दिया, जिसको वो ज़रूरत से ज़्यादा मान दे रहा है’, ‘सारी मेहनत और प्रतिभा तो उसकी ही है’, ये सब वो राहुल से कहना चाह रहे थे। लेकिन अब उससे कैसे मिलते? उसको सर का पता मालूम न था। सर उसके सामने चले जाते, वो भी सर को परम्पराओं का उल्लंघन लग रहा था। धर्मसंकट!!  मिलकर शाबाशी व आशीर्वाद न दे पाने से हृदय भारी था। शिष्य की उपलब्धि पर आँखें नम थीं। ज़ाहिर-सी बात है, आँसू ख़ुशी के ही थे।
  थोड़ी ही देर में सर के दरवाज़े पर एक दस्तक़ हुई! इतनी सुबह तो अख़बार  वाले को छोड़कर कोई और नहीं आता था। और अख़बार आ चुका  था! अब कौन आ गया? इन सब अटकलों के बीच सर ने दरवाज़ा थोड़ा-सा खोलकर, झाँकने की कोशिश की। सामने खड़े आदमी की हल्क़ी-सी झलक मिली। ‘मेड-इन-काशी’ अख़बार वाले ही थे! सर ने सोचा-पैसे माँगने बड़ा ज़ल्दी आ गए, अभी तो महीना भी पूरा नहीं हुआ!! दरवाज़ा पूरा खोला। अख़बार वाले महाशय के पीछे भीड़ लगी थी। मीडिया के सितारों में सर जी का नाम सबसे तेज़ चमक रहा था। अख़बार वाले पी॰एन॰ सर की तलाश तब से कर रहे थे, जब से राहुल ने उनका नाम लिया था। यह ख़ुफ़िया काम सर को रोज़ अख़बार देने वाले ने कर दिया। कैमरे, माइक़, गाड़ियाँ…सब खड़े थे। नए-नए लोग आते जा रहे थे। सर जी किंकर्तव्यविमूढ़!! पत्रकारों ने सवालों की झड़ी लगा दी। वहीं पर एक पत्रकार ने सर की ओर अपना फ़ोन बढ़ाते हुए बोला, “ Hello Sir, Dr. Rahul wants to talk to you. Would you please? ( सर, डॉ. राहुल जी आपसे बात करना चाहते हैं, कृपया?)”
सर भावनाओं की आँधी से जूझते हुए फ़ोन थाम लिये। डॉ. राहुल, सर जी का विडीओ कॉल पर इंतज़ार कर रहे थे। सर ने राहुल को निहारा, और अपने पढ़ाए राहुल से मिलान किया। डॉ. जी साधारण क़मीज़ में थे, जिसकी ऊपर की दो बटनें खुली थीं। बाल का स्टाइल था-कुछ नहीं। घड़ी और आभूषण-नदारद थे। उनके पास एक मणि के जैसे चमकते ललाट के अलावा और कोई आभूषण न था। राहुल ने चरण स्पर्श बोलते हुए गुरु जी को दण्डवत प्रणाम किया। मीडिया कलेजा पसिजाने वाले इस दृश्य का जीवंत (लाइव) प्रसारण कर रही थी। फिर गुरु-शिष्य अपने हाल-चाल में यूँ खो गए कि उनको कैमरे की परवाह न थी। राहुल ने सर को ज़ल्द मिलकर ‘प्रभात’ की पूरी कहानी साझा करने का निवेदन किया। पूरे विश्व के सामने गुरु श्री ‘प्रभात’ नारायण जी कृष्ण के अवतार में स्वीकार हुए। इस माध्यम के महाभारत में राहुल असली अर्जुन थे।
***** इति श्री*****





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