'गूँज दबते स्वरों की'- नब्ज़

 'लिखकर ले लो' .... ये वाला डायलॉग अक्सर सुनने को मिलता है। मगर यही बात वाक़ई में अगर लिखनी पड़ जाए, तो आदमी हजार बार सोचता है। कलम काँप जाती है, और लिखने की बात को मज़ाक में उड़ा देता है। क्योंकि उसको पता होता है, उसके लिखे का भूत सालों-साल तक पीछा नहीं छोड़ेगा। 

बात समझदार आदमी की। यदि वह बोलते वक़्त शब्दों को किराना वाले तराजू में तौलता है, तो उसी बात को लिखते समय सोनार के तराजू में। कलम रत्ती भर भी इधर-उधर न होने पाए, इसका बाक़ायदा ध्यान रखता है।

 ऐसे में गूँज दबते स्वरों की बेबाक़ समीक्षा कैसे मिले? तो बात-चीत में मैं कुछ काशी की कलम के काम का पकड़ने का प्रयास कर रहा हूँ। इसी कड़ी में घनिष्ठ मित्र श्री योगेश्वर सिंह जी के सधे हुए शब्दगण ,

"ऐसा लगा नहीं कि यह आपकी पहली किताब है!" 



गूँज दबते स्वरों की (कहानी संग्रह)

भारतीय ज्ञानपीठ

 


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मशीनें संवेदनशीलता सीख रही हैं, पर मानव?

हुण्डी (कहानी)

कला समाज की आत्मा है, जीवन्त समाज के लिए आत्मा का होना आवश्यक है।